(हिंदी के मूर्धन्य पत्रकारों में से एक, प्रभाष जोशी ‘जनसत्ता’ के संस्थापक-संपादक थे। जनसत्ता के संपादक के तौर पर पत्रकारिता में उनका जो बेमिसाल योगदान रहा उसे दुनिया जानती है। पर वे अपने बेबाक और निर्भीक लेखन के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने देश में सांप्रदायिक घृणा का सुनियोजित तीव्र उभार देखा तो वह खामोश नहीं रह सके। उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए इससे लोहा लिया। उनका लिखना बेअसर नहीं होता था। बढ़ती असहिष्णुता से सहमे लोगों को जहां हौसला मिलता था वहीं भाईचारे तथा राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करने में जुटी ताकतों को उनका लेखन चुनौती की तरह मालूम पड़ता था। प्रभाष जी की एक बड़ी खासियत यह भी थी कि वह जड़ों से कटे हुए बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि ठेठ देशज मेधा के धनी थे और सांप्रदायिकता से लड़ने का बल उन्हें अपनी परंपरा से ही मिलता था। आज के हालात में उन्हें फिर से पढ़ा जाना और भी जरूरी हो गया है। लिहाजा उनका लंबा लेख ‘हिंदू होने का धर्म’ कुछ किस्तों में दिया जा रहा है। ‘यह प्रभाष परंपरा न्यास’ द्वारा दिल्ली के ‘अनुज्ञा बुक्स’ से ‘हिंदू होने का मतलब’ नाम से प्रकाशित पुस्तिका से लिया गया है।)
लेकिन पिछले छह महीनों से राम मंदिर और हिन्दुत्व के नाम पर एक निर्वाचित सरकार ने अपने जनादेश का गलत इस्तेमाल किया। न्यायालय के आदेश का उल्लंघन होने दिया। न्यायालय के सामने झूठे हलफनामे दिये। सर्वोच्च न्यायालय, संसद और राष्ट्रीय एकता परिषद को वचन दिये और उन्हें राम के नाम पर टूट जाने दिया। संविधान, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार के कर्तव्यों के धुर्रे बिखेर दिये। लेकिन दावा है कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि हिंदू भावनाएं सदियों से दबी हुई थीं। भारत सरकार ने उनकी परवाह नहीं की बल्कि मुसलमानों की भावनाओं का सम्मान किया। संविधान मुसलमानों के लिए बदला गया। न्यायपालिका से न्याय नहीं मिलता क्योंकि बाबरी मस्जिद–रामजन्मभूमि का मामला बयालीस साल से लटका हुआ है और देरी से दिया गया न्याय, न्याय नहीं है। न्यायपालिका चूंकि हिन्दुओं की भावनाओं का आदर नहीं करती, इसलिए हिंदू क्यों उसका सम्मान करें?विधायिका भी देश के लिए समान सिविल कोड नहीं बना सकी और उसके बनाये कानून हिंदू हितों में नहीं होते। फिर कांग्रेस सरकारों ने संविधान, न्यायपालिका और विधायिका से कोई कम खेल नहीं किये हैं। चूंकि देश में यह सब होता रहा है इसलिए हम भी यही करेंगे।
ये दलीलें देनेवाले भूल जाते हैं कि इन्दिरा गांधी ने संविधान और लोकतंत्र से जो भी खिलवाड़ किया, उसके लिए उनकी हमेशा आलोचना हुई। जागरूक जनमत ने भी की और प्रेस ने भी। संविधान सम्पूर्ण नहीं है, इसीलिए तो उसमें चौहत्तर बार संशोधन हुए हैं। किसी ने नहीं कहा कि संविधान में खामियां और कमजोरियां नहीं हैं लेकिन उन्हें सुधारने के तरीके हैं और खामियों और कमजोरियों की कोई कम आलोचना नहीं हुई है। कश्मीर और पंजाब में भारतीय राज्य की विफलता कोई कम नहीं दिखायी गयी है और इसके लिए केन्द्र सरकार की लगातार आलोचना हुई है। धार्मिक और साम्प्रदायिक कट्टरवाद के सामने घुटने टेकनेवाली सरकार के निकम्मेपन की पूरी प्रेस ने खबर ली है लेकिन निकम्मापन और लापरवाही अलग कोटि में आते हैं और एक निर्वाचित सरकार का खुद होकर अपने जनादेश, लोकतांत्रिक और संवैधानिक कर्तव्यों और अधिकारों को धार्मिक साम्प्रदायिक संगठनों को सौंप देना बिल्कुल अलग बात है। इसकी आप अनदेखी करें बल्कि कहें कि यह बड़ा धर्म-कार्य हुआ है क्योंकि हिन्दुत्व के नाम पर हुआ है तो यह हिंदू होना नहीं है।
हिंदू धर्म स्वतंत्र बुद्धि-विवेक को छोड़ कर हिन्दुत्व के नाम पर किये गये गलत काम को सही नहीं ठहराता, फिर वह काम चाहे प्रतिक्रिया में हुआ हो या दबी भावनाओं के विस्फोट के नाम पर। महाभारत में व्यासजी ने धर्म की जो व्याख्या की है वह, हमारे वर्तमान लोकतांत्रिक संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण है-
धारणाद्धर्म इत्याहुधमों धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारण संयुक्त स धर्म इत्युदादृतः।
प्रजा और समाज को धारण करनेवाले नियमों का नाम धर्म है। जो तत्त्व धारण कर सकता है, उसी को धर्म कहते हैं। ढांचे को ढहाकर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद को जिस तरह सुलझाने की कोशिश की गयी और उससे हिन्दुओं का जो रूप प्रकट हुआ वह धारण करनेवाला धर्म नहीं है।
भारत का धारण हिंदू-समाज ने कर रखा है क्योंकि वही देश का सबसे बड़ा समाज है। मुसलमानों या सिखों की प्रतिक्रिया में वह अपनी जिम्मेदारी, अपना स्वभाव, अपनी परम्परा और अपनी संस्कृति छोड़ दे तो इस देश को धारण नहीं कर सकता। पृथ्वी धारण करती है तो कितना सहती है तभी सबकी माँ है। मुझे मालूम है कि ऐसा कहने से कई हिंदू नाराज होते हैं कि हिन्दुओं को ही उपदेश क्यों दिया जाता है। मुसलमानों की संकीर्णता, हठधर्मिता, देशद्रोहिता आदि की भी भर्त्सना की जाए। उन्हें ठीक से बर्ताव करने को मजबूर क्यों नहीं किया जाता? मुसलमान द्वेष पर हमारा धर्म और देश टिका हुआ नहीं है। भारतीय समाज और राष्ट्र हिंदू धर्म के विराट, सर्वग्राही और सकारात्मक धारण तत्त्वों पर टिका है। इन तत्त्वों को पुष्ट करना हमारा धर्म है क्योंकि शक्तिशाली होकर वे हमें धारण करेंगे।
व्यासजी जब पूरी महाभारत लिख चुके तो उन्हें निराशा और विफलता की अनुभूति हुई। उनने लिखा : उर्ध्व बाहु…। मैं उँचे हाथ उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूं लेकिन मेरी कोई नहीं सुनता। धर्म का पालन करने से अर्थ, काम और मोक्ष तीनों सधते हैं लेकिन धर्म का पालन कोई नहीं करता। मैं जानता हूं कि इसपर भी हिन्दुत्व वाले कहेंगे कि ठीक है कीई नहीं करता तो हमीं क्यों करें। वे महाभारत करना चाहते हैं इसलिए उन्हें महाभारत का निचोड़- भारत सावित्री श्लोक- भी सुना दें।
न जातु कामात्र भयात्र लोभाद् धर्म
त्येज्जीवितास्यायि हेतोः।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये नित्यो
जीवो धातुरस्य त्वनित्यः।
भय, लोभ, काम या प्राणों के लिए भी धर्म को छोड़ना अनुचित है। धर्म नित्य है, सुख और दुख क्षणिक हैं। शरीर अनित्य है और जीवन नित्य है। हिन्दुत्व के नाम पर लोग भले ही इस धर्म को छोड़ें, मुझे तो अपने धर्म में मरना श्रेयस्कर लगता है। दूसरे का धर्म मेरे लिए नहीं है। गीता का यह आदेश मेरे हिंदू होने का धर्म है।
(समाप्त)