एवरग्रैंड संकट क्या चीन की अर्थव्यवस्था को ले डूबेगा?

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— सत्येंद्र रंजन —

चीन में रियल एस्टेट कंपनी एवरग्रैंड के कर्ज संकट पर शुक्रवार को वेबसाइट asiatimes.com ने अपनी खबर की हेडिंग दी- एवरग्रैंड बबल पॉप्ड इन टाइम : नो लीमैन मोमेंट  (एवरग्रैंड बबलसही समय पर दिख गया: इसलिए लीमैन जैसा क्षण नहीं आएगा) यानी आखिरकार तथाकथित विश्व मीडिया का एक हिस्सा इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि एवरग्रैंड संकट अपने-आप में चाहे जितना गंभीर हो, लेकिन उससे चीन की वित्तीय व्यवस्था उस तरह ढहने नहीं जा रही है, जैसा 2008 में संयुक्त राज्य अमरीका में बैंक लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने के साथ ही देखने को मिला था। जबकि 16 सितंबर को एवरग्रैंड की मुश्किलों के सामने आने के बाद बीते दिनों में पश्चिमी (और उसके समाचार स्रोत से चलनेवाले बाकी दुनिया के) मीडिया में कुछ ऐसे शीर्षक देखने को मिले : एवरग्रैंड्स डेट क्राइसिस : टाइम टु डिच चाइना, एवरग्रैंड एंड द एंड ऑफ चाइनाज बिल्ड, बिल्ड, बिल्ड मॉडल, एवरग्रैंड डेट इश्यूज : ए वेक-अप कॉल फॉर चाइनाज इकोनॉमी, एवरग्रैंड्स क्राइसिस हाइलाइट्स चाइनाज शार्टकमिंग्स।

अब इसे पश्चिमी दुनिया के अवचेतन मन में छिपी चीनी अर्थव्यवस्था के ढहने की इच्छा का इजहार कहें, या चीन की व्यवस्था को समझ पाने में अक्षमता- लेकिन एवरग्रैंड प्रकरण में सामने यही आया है कि पश्चिमी समाचार स्रोतों ने एक बार फिर एक समाजवादी व्यवस्था के गतिशास्त्र की यथार्थ से दूर व्याख्या पेश की है। जबकि कॉरपोरेट वर्ल्ड में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिनकी बातों को ये प्रमुखता दे सकते थे। उन विशेषज्ञों के सामने आरंभ से ही यह स्पष्ट था कि असल में एवरग्रैंड के साथ क्या हो रहा है और ये संकट कहां तक जा सकता है। मसलन, भारत की ब्रोकरेज फर्म फर्स्ट ग्लोबल की सह-संस्थापक देविना मेहरा ने वेबसाइट मनी कंट्रोल को दिए एक इंटरव्यू में कहा- ‘हमारी राय में यह मुद्दा चीन सरकार की सोची-समझी पहल का हिस्सा है, जिसमें सोच यह है कि कुछ कारोबार घरानों को फेल होने दिया जाए, ताकि अधिक बड़ी समस्या को नियंत्रित किया जा सके। इसलिए वे इसे अपने हाथ से बाहर नहीं जाने देंगे। यह स्थिति एक प्रकार के नियंत्रित विस्फोट की तरह है। चीन जैसी अपेक्षाकृत एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था में ऐसा करना पूरी तरह संभव है।’ एशिया में निवेश के रणनीतिकार के रूप में जाने जानेवाले फंड मैनेजर होमिन ली ने कहा– ‘एवरग्रैंड की स्थिति एक नियंत्रित विध्वंस जैसी है। पूरी व्यवस्था पर इसका प्रभाव पड़ने की संभावना सीमित है।’

संकट यह खड़ा हुआ कि चीन की सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी समझी जानेवाली एवरग्रैंड के सामने कर्ज चुकाने में डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो गयी। कंपनी पर 305 अरब डॉलर का कर्ज है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा अमरीका में बॉन्ड बेच कर उगाहा गया है। कंपनी की वित्तीय स्थिति इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अपने यहां अनेक प्रबंधकों और कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का भुगतान भी इस महीने समय पर नहीं कर पायी।

ताजा घटनाक्रम में कंपनी पहली बार चर्चा में तब आयी, जब यह खबर फैली कि वह इस महीने अमेरिकी बॉन्ड पर ब्याज और कर्ज के मूलधन को चुकाने की समयसीमा के अंदर भुगतान नहीं कर पाएगी। उसके साथ ही कंपनी के कॉलैप्स करने (ध्वस्त होने) और उसके संक्रामक असर से पूरी चीनी अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त हो जाने के अनुमान लगाये जाने लगे। कंपनी की मुसीबत को पूरे चीन की मुसीबत के रूप में पेश किया गया।

पश्चिमी मीडिया में इस बात पर आक्रोश जताया गया कि चीन सरकार इस कंपनी का बेलआउट करने के लिए आगे नहीं आ रही है। इस कंपनी के संदर्भ में भी टू बिग टु फेल (यानी कंपनी इतनी बड़ी है कि उसे फेल होने नहीं दिया जा सकता) का मुहावरा चर्चित होने लगा। इस मुहावरे का इस्तेमाल अमरीका में तत्कालीन बराक ओबामा प्रशासन ने बीमा कंपनी एआईजी- अमरीकन इंटरनेशनल ग्रुप- और ऑटोमोबिल सेक्टर की संकटग्रस्त हुई कंपनियों को बेलआउट पैकेज देने के तर्क के रूप में पेश किया था। ओबामा प्रशासन ने कंपनी अधिकारियों की बिना कोई जवाबदेही तय किये और उन कंपनियों में पब्लिक सेक्टर की भूमिका सुनिश्चित करने का बिना कोई उपाय किये सरकारी कोष से लाखों डॉलर की रकम उन्हें दे दी थी।

पश्चिम के कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया की एवरग्रैंड के सिलसिले में भी यही इच्छा है कि चीन सरकार करदाताओं के पैसे से इसे उबार ले, ताकि इस कंपनी में पश्चिमी निवेशकों ने जो पैसा लगाया हुआ है, वह संकट में ना पड़े। लेकिन चीन सरकार ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की है।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एवरग्रैंड जैसी बड़ी कंपनी का फेल होना चीन की अर्थव्यवस्था में पैदा हुई विसंगतियों का परिणाम है। ये विसंगतियां चीन में अपनायी गयी नीतियों का नतीजा हैं। माइकल हडसन जैसे अर्थशास्त्री लंबे समय से ये चेतावनी देते रहे हैं कि चीन का रियल एस्टेट सेक्टर कभी भी बड़े संकट से ग्रस्त हो सकता है। इसकी वजह यह है कि चीन के स्थानीय प्रशासनों ने रियल एस्टेट कंपनियों को जमीन लीज पर देकर मकानों की सट्टाबाजारी को बढ़ावा दिया। इन कंपनियों को वित्तीय संस्थाओं ने आसानी से कर्ज मुहैया कराये। कंपनियां बड़ी हो गयीं, तो उन्होंने अंतरराष्ट्रीय शेयर बाजारों से भी पैसा उगाहा। इस क्रम में लाखों की संख्या में ऐसे फ्लैट बनाये गये, जिनके खरीदार नहीं हैं। ऐसे में इस कारोबार का देर-सबेर ढहना तय मान कर चला जा रहा था।

लेकिन क्या इसके साथ ही पूरी चीनी अर्थव्यवस्था भी कॉलैप्स कर जाएगी, जैसा 2008 में अमरीका और उसके बाद कर्ज संकट के कारण ही कई यूरोपीय देशों में हुआ था? इस बिंदु पर आकर जरूरत चीन की (या किसी भी समाजवादी) अर्थव्यवस्था की सही समझ अपनाने की होती है।

चीन और पश्चिम की अर्थव्यवस्थाओं में मूलभूत फर्क यह है कि चीनी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन है। बैंक और वित्तीय क्षेत्र का तो लगभग 80 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र में है। वित्तीय नीतियां बाजार की स्वच्छंदता से नहीं, बल्कि सरकार की प्राथमिकताओं के अनुरूप तय की जाती हैं। चीन की सरकार ने पूरी व्यवस्था और अर्थव्यवस्था में अपना बड़ा दखल बनाये रखा है।

जबकि पश्चिम में हाल यह है कि सरकार ने अपने कुछ प्रमुख अंगों का भी निजीकरण कर दिया है। इसलिए सब-प्राइम क्राइसिस और उसके परिणामस्वरूप लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होते समय अमेरिका सरकार ने अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कोई निर्णायक कदम उठाने में खुद को अक्षम पाया था। लेकिन चीन में स्थितियां अलग हैं, जिस बारे में ठोस समझ देविना मेहरा, होमिन ली और कॉरपोरेट-फाइनेंस जगत के कई दूसरे लोगों ने भी दिखाई है।

दरअसल, एवरग्रैंड संकट खड़ा नहीं होता, अगर चीन की सरकार ने पिछले वर्ष अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने का निर्णय नहीं लिया होता। उस निर्णय के साथ ही सुविचारित और सुनियोजित ढंग से ‘बेकाबू’ होती जा रही बड़ी कंपनियों को नियंत्रित करने की शुरुआत की गयी। पहला कदम अरबपति जैक मा के एंट ग्रुप के खिलाफ उठाया गया, जब उसके इनिशियल पब्लिक ऑफर यानी शेयर जारी करने की प्रक्रिया को आखिरी वक्त पर रोक दिया गया। तब से अब तक बड़ी टेक कंपनियों, प्राइवेट ट्यूशन और कोचिंग कंपनियों, ऑनलाइन म्यूजिक कारोबार, वीडियो गेम्स की सेवा देनेवाली कंपनियों आदि के खिलाफ कार्रवाई की जा चुकी है। बहरहाल, यहां मुद्दा एक रियल एस्टेट कंपनी का है। तो गौर करनेवाली बात ये है कि इस सेक्टर की कंपनियों के मामले में आखिर क्या फैसले लिये गये, जिससे एवरग्रैंड के डिफॉल्ट करने की शुरुआत हो गयी।

राष्ट्रपति शी जिनपिंग के निर्देश पर चीन की विनियामक संस्थाओं ने बीते साल रियल एस्टेट सेक्टर के लिए तीन ‘रेड लाइन्स’ का एलान किया था। इसके तहत सबसे प्रमुख बात यह थी कि अब ऐसी कोई कंपनी अपनी जायदाद के कुल मूल्य के 70 फीसदी से ज्यादा का कर्ज नहीं ले सकेगी। अगर यह नियम नहीं होता, तो एवरग्रैंड नया कर्ज लेकर पुराने कर्ज को चुकाने की समय-सारणी के मुताबिक भुगतान कर देती। लेकिन इस नये नियम ने उसके हाथ बांध दिये।

तो यह सहज सवाल उठता है कि खुद अपनी अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाकर आखिर चीन सरकार क्या हासिल करना चाहती है? इसे समझने के लिए चीन सरकार के इन उद्देश्यों पर ध्यान देना चाहिए-

 चीन सरकार की राय है कि उसके हाल के कदम से प्रोपर्टी सेक्टर में हवाई विकास (बबल ग्रोथ) और सट्टेबाजी काबू में आएंगे। चीन सरकार की समझ है कि बबूला (बबल) फोड़ने से नुकसान होगा, लेकिन बबल अर्थव्यवस्था को चलते रहना देना ज्यादा हानिकारक है।

 चीन सरकार की समझ है कि ऐसे कदम से मकानों की कीमत घटेगी, जिससे उसके नये सामाजिक लक्ष्य ‘साझा समृद्धि’ (कॉमन प्रासपरिटी) को हासिल करने में मदद मिलेगी।

 इससे बाजार में कुल मुद्रास्फीति काबू में आएगी, जिससे आम आदमी की जिंदगी सुगम होगी। रियल एस्टेट सेक्टर में स्पेकुलेटिव ट्रेंड घटने से लोहा, तांबा, सीमेंट, और अन्य सामग्रियों की कीमत घटेगी, जिससे आम लोग अपना आवास निर्मित करने में अधिक सक्षम होंगे।

 एक समझ यह है कि रियल एस्टेट बुलबुले के कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों और बिल्डरों के बीच जमीन लीज सौदों में भ्रष्ट तरीके अपनाये गये हैं। इसलिए रियल एस्टेट सेक्टर पर नियंत्रण से भ्रष्टाचार भी काबू में आएगा।

 पिछले साल चीन सरकार ने संकेत दिया था कि वह ऐसे कारोबार को हतोत्साहित करना चाहती है, जिससे समाज के एक छोटे हिस्से को तो खूब मुनाफा हो रहा है, लेकिन जिसकी वजह से पूंजी का उन क्षेत्रों में निवेश नहीं हो रहा है, जो चीन के दीर्घकालिक विकास के लिए जरूरी हैं। हाई टेड आविष्कार, ग्रीन अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य, और मैनुफैक्चरिंग में प्रोडक्टिविटी बढ़ाना 14वीं पंचवर्षीय योजना में चीन के नये लक्ष्य हैं। सरकार की समझ है कि रियल एस्टेट में अनावश्यक निवेश को नियंत्रित करने से उन क्षेत्रों में पूंजी निवेश का अनुकूल माहौल बनेगा।

 यह भी इस सिलसिले में ध्यान में रखना चाहिए कि चीन ने 2035 तक के लिए अपनी जो दीर्घकालिक आर्थिक योजना तय की है, उसमें जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) केंद्रित अर्थव्यवस्था से हटने का लक्ष्य रखा गया है। इसके विपरीत अर्थव्यवस्था का मकसद पर्यावरण संरक्षण के साथ लोगों की खुशहाली को सुनिश्चित करना रखा गया है।

(जारी)

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