— आनंद कुमार —
हमारे दौर की अनूठी समाजशास्त्री गेल ओमवेट (2 अगस्त,1941 – 28 अगस्त, 2021) की अमरीका के मिनियापोलिस शहर से शुरू जीवन-यात्रा का 80 बरस की आयु में भारत के सांगली जिले के कासेगांव (महाराष्ट्र) में समापन हुआ। उनकी कई पहचान थी– उच्च स्तर की समाजशास्त्री; ‘बहिष्कृत भारत’ के विमर्श की व्याख्याकार; वंचित जमातों और समुदायों की हमदर्द; पितृ-सत्ता के अन्यायों से जूझ रही स्त्रियों की प्रवक्ता; किसानों और खेत-मजदूरों के संगठनकर्ताओं की सहयोगी।

उनके भारत से असाधारण लगाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 1976 में अपना जीवन साथी एक भारतीय आंदोलनकारी डॉ. भारत पाटनकर को बनाया। एक अमरीकी विश्वविद्यालय में अध्यापिका की नौकरी से इस्तीफा देकर भारत जी के साथ महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र में कासेगांव में गृहस्थी बसायी। मराठी भाषा सीखी। 1983 में भारत की नागरिकता भी ग्रहण की। वह सच्चे अर्थों में वसुधैव कुटुम्बकम की प्रतीक थीं।
सामाजिक क्रांति की शोधकर्ता
गेल ओमवेट भारतीय सामाजिक क्रांति के बहुआयामी विमर्श को सामने लानेवाली समाजशास्त्री थीं। उनका वैचारिक आधार मार्क्सोत्तरी समाज विश्लेषण था। इसलिए उनके योगदान को ‘नव-वामपंथी’ चिन्तन धारा से जोड़कर देखा गया है। उन्होंने 1973 और 2021 के बीच के पाँच दशकों के लम्बे दौर में जाति-व्यवस्था, जेंडर (लिंगभेद) से जुड़े प्रश्नों, ग्रामीण जीवन की चुनौतियों और पर्यावरण आन्दोलन जैसे कई असुविधाजनक पहलुओं को प्रस्तुत करके भारत के लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण में समाजशास्त्र की प्रासंगिकता को बढ़ाने में ऐतिहासिक योगदान किया। भारतीय समाजशास्त्र परिषद ने भी उनकी भूमिका का सम्मान करते हुए 2019 में ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से विभूषित किया।
मूलत: गेल ओमवेट का भारत परिचय फुलब्राइट फेलो के रूप में 1963-64 में शुरू हुआ। तब वह कुल 22 बरस की छात्रा थीं। लेकिन अगले दो दशकों में इतना अपनत्व बढ़ा कि जहां भारत का सभ्रांत वर्ग अपने सुशिक्षित लड़के-लड़कियों को अमरीका की नागरिकता लेने के लिए प्रोत्साहित करने में जुटा था वहीं एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रतिबद्ध इस जन्मजात अमरीकी समाजशास्त्री ने भारत को अपना ससुराल और देश बना लिया। महाराष्ट्र के आदिवासी गाँवों के स्त्री-पुरुष भी उन्हें अपने परिवार का सदस्य जैसा मानते थे।
परिवर्तन के समाजशास्त्र के विश्वप्रसिद्ध अध्ययन केंद्र बर्कले स्थित केलिफोर्निया विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. स्तर तक की उच्चतम शिक्षा प्राप्त गेल ओमवेट का शोधप्रबंध औपनिवेशिक भारत में 1873 और 1930 के बीच के सांस्कृतिक विद्रोह और गैर-ब्राह्मण आन्दोलन के बारे में था। 1873 में जोतिबा फुले के सत्यशोधक समाज की स्थापना को भारत में ‘वंचित भारत’ की सामाजिक मुक्ति से जुडी एक युगांतरकारी घटना के रूप में प्रस्तुत करनेवाले इस शोधग्रंथ ने फुले–आम्बेडकर धारा की प्रामाणिकता को स्थापित किया। अपनी दूसरी कालजयी किताब ‘दलित्स एंड द डेमोक्रेटिक रेवोलुशन’ (1994) में इस धारा को भारत की जनतांत्रिक क्रांति की जीवनरेखा सिद्ध करते हुए उन्होंने डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा बम्बई प्रेसिडेंसी में उत्पन्न दलित जागरण के इतिहास को नया अर्थ दिया।
उनके शोधकार्य और प्रकाशनों ने भारत के नव-जागरण की कहानी को अरविन्द और बंग-भंग प्रतिरोध के सन्दर्भ में उत्पन्न राजनीतिक राष्ट्रवादी जागरण (1905) और चम्पारण में सत्याग्रह के जरिये फैली आर्थिक राष्ट्रीयता की चेतना (1917) को विस्तृत फलक प्रदान किया जिससे हम 1873 से आगे के घटनाक्रम की प्रासंगिकता को जान सके। उन्होंने इस दृष्टि-विस्तार को समकालीन चुनौतियों और आन्दोलनों से जोड़ते हुए ‘इंडियन विमेन इन स्ट्रगल’ (1979), ‘री-इन्वेंटिंग रेवोलुशन– न्यू सोशल मूवमेंट्स एंड द सोशलिस्ट ट्रेडिशन इन इंडिया’ (1993), ‘जेंडर एंड टेक्नोलाजी’ (1994), ‘बुद्धिज़्म इन इण्डिया– चैलेंजिंग ब्राह्मनिज्म एंड कास्ट’ (2001), और ‘वी शैल स्मैश दिस प्रिजन– अंडरस्टैंडिंग कास्ट’ (2011) जैसी गंभीर रचनाओं से एक वैकल्पिक विमर्श के रूप में पहचान दिलवायी।
‘वंचित समाज’ के अध्ययन में योगदान
गेल ओमवेट के अध्ययन में नूतनता और प्रामाणिकता का आकर्षक संतुलन था। इसलिए उन्हें देश-विदेश के अनेकों विश्वविद्यालयों और शोध-संस्थानों में योगदान का निमंत्रण मिला। इसमें सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय (पुणे), निस्वास (भुबनेश्वर), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी उन्मुक्त विश्विद्यालय (नयी दिल्ली), नार्डिक इंस्टिट्यूट ऑफ़ एशियन स्टडीज (कोपनहेगन), भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (शिमला) और नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय (नयी दिल्ली) उल्लेखनीय हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, और ऑक्सफैम जैसे वैश्विक मंचों ने भी उनकी विशेषज्ञता का लाभ पाया।
गेल ओमवेट ने कई प्रसंगों में बहसों को भी जन्म दिया। वह एक तरफ ‘ब्राह्मणवाद’ और ‘गांववाद’ की आलोचक थीं और दूसरी तरफ ‘मार्क्सवाद’ से भी असहमत थीं। नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नेतृत्व में आदिवासियों की अनुपस्थिति और सूखे की समस्या के बारे में इस आन्दोलन का मौन उनको अस्वीकार था। इसी प्रकार श्रमिक मुक्ति दल और स्त्री मुक्ति संघर्ष समिति में सक्रियता के बावजूद वह मार्क्स के विचारों और मार्क्सवादी दलों की नीतियों की समीक्षा पर बल देती रहीं। संत तुकोबा के रचना-संकलन, जोतिबा फुले के विचार परिचय, डा. आंबेडकर की जीवनी, और जाति-विरोधी बौद्धिकों के जीवन-चित्रण में उनके रुझान की स्पष्ट प्रस्तुति हुई है।
गेल ओमवेट अमरीका को एक ‘रंगभेद आधारित समाज’ मानती थीं और उन्होंने ‘जाति-प्रथा’ और ‘रंगभेद’ में समानता देखी। उनके लेखों ने जाति और रंगभेद को अलग माननेवाले वरिष्ठ समाजशास्त्रियों की आलोचना को निमंत्रित किया। उन्होंने जगन्नाथ मंदिर (ओड़िशा), मीनाक्षी मंदिर (तमिलनाडु) और हिन्दू धर्म में व्याप्त सांस्कृतिक संकीर्णता और आनुवंशिकता के खिलाफ लेख लिखे। वह गांधी के ग्राम-स्वराज के सपने को औपनिवेशिक विमर्श से जुड़ी मान्यताओं के प्रकाश में देखती थीं और आम्बेडकर की भारत के गाँवों में आलोचना के पक्ष में खड़ी रहीं।
जाति, वर्ग, लिंगभेद,पर्यावरण-संकट और समता-विमर्श
गेल ओमवेट एक सरोकारी और सक्रिय समाजवैज्ञानिक थीं। उन्होंने दलित आन्दोलन, महिला आन्दोलन, किसान आन्दोलन और पर्यावरण आन्दोलन में विद्यार्थी-भाव से हिस्सा लिया। इसलिए इन अन्दोअनों से जुड़े लोग उनकी समीक्षा की कद्र करते थे। अपने विद्यार्थी जीवन की शुरुआत में वह अमरीका के युद्ध-विरोधी आन्दोलन, स्त्री-मुक्ति अभियान और रंग-भेद विरोधी आन्दोलनों में हिस्सा ले चुकी थीं। भारत में भी शोधकार्य के दौरान ही वह फुले-आम्बेडकर से प्रेरित दलित-बहुजन अभियानों से निकटता बना चुकी थीं।
गेल ओमवेट-भारत पाटनकर निजी जीवन में ही नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी श्रमिक मुक्ति दल के माध्यम से सहयात्री रहे। इनका यह साझा सपना था कि वंचितों के अधिकारों के लिए चल रहे सभी आन्दोलनों में अधिकतम संवाद और न्यूनतम सहयोग के लिए उपाय होने चाहिए। इसमें वह मार्क्स-फुले-आम्बेडकर की त्रिमूर्ति की प्रासंगिकता मानती थीं। उनके महाप्रस्थान के बाद भी समता आधारित दुनिया के लिए प्रयासरत व्यक्तियों और आन्दोलनों के लिए गेल ओमवेट के अध्ययनों, उनकी दृष्टि और दिशा की एक अमूल्य विरासत के रूप में महत्ता बनी रहेगी।
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