हर घर तिरंगा से हर हाथ तिरंगा : देशभक्ति की राजनीति

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— शशि शेखर प्रसाद सिंह —

ज 15 अगस्त 2022 को भारत की आजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं। पिछले साल 21 मार्च 2021 से 15 अगस्त 2023 तक आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का मोदी सरकार ने निर्णय लिया था। इसी दिशा में सरकार ने ‘हर घर तिरंगा’ का नारा देकर भारत के लोगों को अपने घर पर स्वतंत्रता दिवस के पूर्व 13 अगस्त से स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त तक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लगाने का आह्वान किया और 20 करोड़ घरों पर तिरंगा लगाने की योजना बनाई। अभी कुछ दिनों पहले 31 जुलाई को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को सोशल मीडिया के अपने डी.पी. में तिरंगा लगाने की अपील की। ज्ञात रहे कि कोरोना महामारी में मोदी जी ने महामारी भगाने के लिए भारतीय जनता से थाली बजाने से लेकर दीये तक जलवाये थे। अधिनायकवादी राजनीति जनता में आज्ञाकारिता की भावना तथा कर्तव्यभाव-बोध को विकसित करती है।

फिर ‘आप’ की सरकार मोदी की देशभक्ति की राजनीति से कैसे पीछे पीछे रहती। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार ने तो आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में देशभक्ति बजट में 104 करोड़ के व्यय का प्रावधान करके पूरी दिल्ली में 115 फीट से लेकर 165 फीट ऊँचा 500 तिरंगा लगाने की योजना घोषित कर दी थी, और ठीक स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पूर्व पच्चीस लाख दिल्लीवासियों को ‘हर हाथ तिरंगा’ लहराने का आह्वान कर दिया। मुख्यमंत्री ने कहा कि इससे लोगों में देशभक्ति की भावना आएगी और भारत विश्व में नम्बर एक राष्ट्र बनेगा।

दिल्ली को तिरंगामय करने के बजाय यदि सरकार दिल्ली में गरीबी और बेरोजगारी दूर करने की दिशा में कदम उठाती तो बेहतर परिणाम होता। विज्ञापनों पर करोड़ों खर्च करके छवि निर्माण और देशभक्ति का पाठ पढ़ाने की कोशिश एक ओर जनता को उसकी समस्याओं से ध्यान भटकाने का प्रयास है, वहीं भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्ववादी देशभक्ति से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी।

सच तो यह है कि आम आदमी पार्टी का जन्म उस इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन की कोख से हुआ जिसमें राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को ही लोगों के हाथों में थमाकर भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए लोकपाल बनाने की बात की गई थी! मजे की बात यह है कि संघ में लोकपाल अधिनियम है किंतु लोकपाल नहीं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी बार बार जीत कर शासन कर रही है किंतु दिल्ली में न तो लोकपाल अधिनियम है , न ही लोकपाल! अब तो शायद केजरीवाल को लोकपाल की याद भी न हो क्योंकि मोदी और केजरीवाल नये नये जुमले का प्रयोग करने की कला में पारंगत हैं और जनता जानती है कि यह एक और जुमला है किंतु अगले जुमले की बार बार गूंज के बाद जनता पुराने जुमले भूल जाती है।

भारत में आजादी के बाद मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी, महिला आंदोलन हुए, गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से 1974-75 में जेपी आंदोलन हुए, इन आंदोलनों में तिरंगा लेकर आंदोलन नहीं हुए थे। लेकिन 2012 का इंडिया अगेंस्ट करप्शन का अन्ना आंदोलन लोगों को तिरंगा हाथ में थमाकर कराया गया मानो किसी विदेशी सत्ता के खिलाफ आंदोलन हो रहा हो, और तब से राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा देश के अंदर सत्ता की राजनीति के केंद्र में आ गया और देश में हर कोई राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को एक दूसरे के खिलाफ अपना हथियार बनाकर राजनीतिक हित सिद्ध करने लगा है।

भारत ने अपनी आजादी के 25 साल होने पर रजत जयंती और 50 साल पूरे होने पर स्वर्ण जयंती मनायी थी किंतु केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी या राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टियों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को लेकर ऐसी राजनीतिक होड़ नहीं हुई। आखिर विगत कुछ सालों में ऐसा क्यों हो रहा है कि राजनीतिक पार्टी सत्ता पाने की ललक से लेकर सत्ता में बने रहने के लिए जनभावना उभारने वाले नारों और धार्मिक उत्सवों का सहारा ले रही है तथा उसके विज्ञापनों पर करोड़ों-अरबों रुपये सरकारी खजाने से लुटा रही है।

अब प्रश्न उठता है कि राष्ट्रीय ध्वज को लेकर ‘हर घर तिरंगा’ का आह्वान हो या ‘हर हाथ तिरंगा’ का नारा- इसके पीछे इन सरकारों या राजनीतिक दलों का मकसद क्या है? क्या ये मानकर चलती हैं कि इसके पहले भारतीय जनता में देश-प्रेम और राष्ट्रभक्ति की भावना नहीं थी इसलिए देश की जन समस्याओं का समाधान नहीं हुआ और देश विश्वगुरु या विश्व में नंबर वन नहीं हो पाया।

एक अन्य प्रश्न उठता है कि अगर ‘हर घर तिरंगा’ का आह्वान है तो आखिर 20 करोड़ घरों पर ही तिरंगा क्यों या ‘हर हाथ तिरंगा’ तो सिर्फ 25 लाख दिल्लीवासियों के हाथ ही तिरंगा क्यों? जिन घरों पर तिरंगा नहीं या जिन हाथों में तिरंगा नहीं, उनमें देशभक्ति कैसे आएगी !

भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता तथा राष्ट्रीय एकता का प्रतीक : तिरंगा

राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता तथा राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। 22 जुलाई, 1947 को देश की संविधान सभा ने तिरंगा को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया जिसमें सफेद पट्टी पर चरखे की जगह अशोक के धम्म चक्र को रखा गया। 15 अगस्त 1947 को दो सौ साल से अधिक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी/ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से स्वतंत्र होने के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा इंडिया गेट के प्रिंसेस पार्क में फहराया था लेकिन फिर दूसरे दिन यानी 16 अगस्त को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से नेहरू जी ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराया था और ऐतिहासिक भाषण हुआ था। इस प्रकार दुनिया के मानचित्र पर भारत एक स्वतंत्र तथा संप्रभु राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया था।

26 जनवरी 1950 को नया संविधान लागू कर भारत एक गणतंत्र राष्ट्र बना और देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराया था। यह ज्ञात रहे कि इसके पहले 1929 में रावी नदी के तट पर कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा देकर अगले साल 26 जनवरी को देशवासियों को तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता दिवस मनाने को कहा था। तब से कांग्रेसी हर वर्ष 26 जनवरी को तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता दिवस मनाते थे लेकिन 15 अगस्त को आजादी मिलने के बाद हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा देश के प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति के द्वारा राजकीय समारोह में फहराया जाता रहा है।

सरकारी कार्यालयों तथा शैक्षणिक संस्थानों में दोनों राष्ट्रीय दिवसों पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा सम्मानपूर्वक फहराया जाता रहा है किंतु सत्तारूढ़ पार्टी या राजनीतिक दलों ने अपने राजनीतिक हितों तथा वोट-राजनीति को लेकर कभी तिरंगा को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया था और न तिरंगा फहराने को नागरिकों की देशभक्ति से जोड़कर देखा था जैसा कि अब देखा जा रहा है।

तथाकथित राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति के नाम पर जनता में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को घर घर फहराने के लिए तमाम प्रचार से लेकर दबाव तक बनाया जा रहा है। दिल्ली सरकार ने देशभक्ति बजट के द्वारा राजधानी दिल्ली में जगह जगह सैकड़ों की संख्या में 115 फीट ऊँचा तिरंगा स्थायी रूप से स्थापित कर दिया है।

राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा यदि प्रत्येक भारतीय के लिए सम्मान और गर्व का प्रतीक रहा है तो इसके पीछे किसी राजनीतिक दल या सत्तारूढ़ पार्टी का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष, त्याग और बलिदान का योगदान रहा है।

कौन भुला सकता है जब महात्मा गांधी ने 1942 में अंग्रेजो, भारत छोड़ो का नारा 8 अगस्त को दिया था और 9 अगस्त का सवेरा होते होते महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल तथा मौलाना अबुल कलाम सहित कांग्रेस के सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिये गए थे तो 9 अगस्त को बंबई के उसी गोवालिया टैंक मैदान में नियत समय पर समाजवादी युवा नेत्री अरुणा आसफ अली ने ब्रिटिश पुलिस के तमाम सुरक्षा घेरे को तोड़कर अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ध्वज तिरंगा को फहरा दिया था। देश में हजारों लोगों ने इसी तिरंगे को फहरा कर ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी थी। 11 अगस्त को पटना में सात युवा इसी तिरंगे को फहराने के लिए ब्रिटिश गोलियों से छलनी हो गए लेकिन तिरंगा को फहरा दिया था। आजादी के आंदोलन में तिरंगा फहराना ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की मुक्ति का प्रतीक था। उत्तर प्रांत के बलिया या बंबई प्रांत के सतारा में आजादी के दीवानों ने ब्रिटिश सरकारी भवनों पर कब्जा कर यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहरा दिया था और अपने को आजाद घोषित कर दिया था।

स्वतंत्रता आंदोलन के तिरंगे का विरोध

यह अलग बात है कि कई धार्मिक, सांप्रदायिक तथा राजनीतिक संगठनों का ब्रिटिश साम्राज्य के समर्थन से लेकर राष्ट्रीय आंदोलन के विरोध का इतिहास जगजाहिर रहा है और यही कारण है कि आजादी के संघर्ष के दौरान और स्वतंत्र भारत में भी तिरंगा को लेकर मतभेद और विरोध रहा है। मूलतः 1921 में जिस तिरंगा को कांग्रेस ने आजादी के आंदोलन में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक बनाया था उसमें गांधीजी ने चरखा को बीच की सफेद पट्टी के बीच डाला था और वह क्रमशः भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक ध्वज बन गया था जो ब्रिटिश साम्राज्य के यूनियन जैक को भारतीय जनता की प्रत्यक्ष चुनौती के समान था। अतः राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विरोध करने वाले संगठन तिरंगा के भी स्वाभाविक विरोधी बन गए।

इसमें 1906 में गठित मुस्लिम लीग जो एक सांप्रदायिक राजनीतिक संगठन था, और आगे चलकर हिंदूवादी संगठन – हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना के अनुरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ध्वज तिरंगा को भविष्य के स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार करने की जगह भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में देखने का सपना सँजोये थे। मुस्लिम लीग का नेतृत्व मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का जबरन दावा ठोकने के कारण कांग्रेस को हिंदू संप्रदाय का दल घोषित करने पर उतारू रहता था। परिणामतः एक संप्रदाय विशेष के लिए अलग राष्ट्र की कल्पना के कारण भारतीय जनता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस और उसके ध्वज तिरंगा को स्वीकारने को तैयार नहीं था।

यह तो तथ्य है कि कांग्रेस के राष्ट्रव्यापी जन आंदोलन के कारण ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्षरत अन्य संगठनों का भारतीय जनमानस पर बहुत सीमित प्रभाव था। मुस्लिम लीग ने कभी ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारत की आजादी के संघर्ष में प्रत्यक्ष हिस्सा ही नहीं लिया और दूसरी तरफ हिंदूवादी संगठनों को सिर्फ एक धर्म विशेष के हिंदू राष्ट्र की कामना थी। अतः उन्होंने कभी स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत नहीं की उलटे उसका निरंतर विरोध किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, आरआरएस तथा द्वितीय विश्वयुद्ध में रूस पर जर्मनी के आक्रमण के बाद कम्युनिस्ट विरोध कर रहे थे यद्यपि उनके अपने अपने अलग कारण और तर्क थे। यही कारण है कि तिरंगा को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में वो स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।

हिंदू महासभा के सावरकर ने साफ साफ शब्दों में कहा था – हिंदू किसी भी कीमत पर वफादारी के साथ अखिल हिंदू ध्वज यानी भगवा ध्वज के सिवा किसी और ध्वज को सलाम नहीं कर सकते। 1925 में स्थापित आरआरएस के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने भी ऐसी ही मंशा बहुत स्पष्ट रूप में जाहिर करते हुए लिखा- भारत का झंडा एक ही रंग का और भगवा होना चाहिए, तीन का शब्द तो अपने आप में ही अशुभ है और तीन रंगों का ध्वज निश्चय ही बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और देश के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा।
हिंदू महासभा के सभापति रह चुके और स्वतंत्र भारत में भारतीय जनसंघ पार्टी के संस्थापक डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भी कहा- भगवा रंग वाला ध्वज ही एकमात्र ऐसा ध्वज है जो हिंदुस्तान में राष्ट्रीय ध्वज होना चाहिए और हो सकता है। जो लोग भाग्य के सहारे से सत्ता में आए हैं, वो भले ही हमारे हाथों में तिरंगा दे दें, लेकिन इसका कभी सम्मान और स्वामित्व हिंदुओं के पास नहीं होगा।

यह भी जगजाहिर है कि आरआरएस ने आजादी के 52 साल बीत जाने के बाद भी अपने मुख्यालय नागपुर में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा नहीं फहराया था। लेकिन आज उसी आरआरएस की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी की सरकार हर घर तिरंगा का नारा दे रही है, प्रधानमंत्री मोदी लोगों से सोशल मीडिया पर अपने डीपी में तिरंगा लगाने की अपील कर रहे हैं – क्या संघ और भारतीय जनता पार्टी को इतिहास की अपनी भूल का अहसास हो गया है या वो हर घर तिरंगा के माध्यम से भारत के नागरिकों से उसकी देशभक्ति का प्रमाण मांग रहे हैं और यदि भारतीय समाज में पिछले आठ वर्षों में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे उत्पीड़न और उनकी देशभक्ति को लेकर उठनेवाले सवालों को देखें तो साफ हो जाएगा कि यह संघ और भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति का हिस्सा है जहाँ एक ओर अल्पसंख्यक में डर पैदा किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कट्टर हिंदूपन्थी लोगों को राजनीतिक रूप से संगठित किया जा रहा है।

उत्तराखंड के भाजपा प्रमुख महेंद्र भट्ट के द्वारा 12 अगस्त को दी गयी धमकी को देखिए जहाँ वो साफ कह रहे हैं कि उन घरों की तस्वीर लीजिए जिस पर हर घर तिरंगा आह्वान के बाद तिरंगा नहीं लगा है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कह डाला कि जो घर पर तिरंगा नहीं लगा सकते उनकी देशभक्ति पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। वस्तुतः भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति में तिरंगा के माध्यम से न सिर्फ नागरिकता की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश हो रही है बल्कि देशभक्ति को नये सिरे से स्थापित करने की भी कोशिश हो रही है। इतना ही नहीं, भारतीय आजादी के संघर्ष को भी अलग से दिखाने की कोशिश है। इसी कड़ी में भाजपा सरकार के द्वारा 14 अगस्त को भारत विभाजन विभीषिका दिवस को मनाये जाने को देखा जा सकता है। पार्टी के द्वारा जारी वीडियो में भारत विभाजन के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, नेहरू तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की गयी है।

विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने के पीछे एक संप्रदाय विशेष के विरुद्ध भावना और नफरत को बढ़ाने की साजिश है। भारतीय जनता पार्टी के द्वारा हर घर तिरंगा के साथ भारत विभाजन की विभीषिका दिवस को जोड़कर देखने की जरूरत है। साथ ही मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन अधिनियम ( सीएए) तथा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के कदमों को मिलाकर देखने पर भारत में अल्पसंख्यक विरोधी भाजपा की नीति और नीयत साफ हो जाएगी।

भाजपा सरकार की हर घर तिरंगा योजना की राजनीति और दिल्ली की केजरीवाल सरकार की हर हाथ तिरंगा की राजनीति, दोनों से तथाकथित देशभक्ति की प्रतिद्वंदी राजनीति की तस्वीर साफ हो जाती है। साथ ही यह बात भी साफ हो जाती है कि यह भाजपा सरकार की अपनी आर्थिक नीतियों से कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने से लेकर देश में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, डालर के मुकाबले रुपए की गिरती कीमत तथा दुनिया में जनतांत्रिक देश के रूप में लगातार भारत की गिरती छवि से ध्यान भटकाने की कोशिश का हिस्सा है क्योंकि जिस देश में सभी लोगों को अपना घर नहीं और कोरोना महामारी में लाखों की मौत तथा रोजगार के अवसरों में भारी कमी से गरीबी बढ़ी है वहाँ सरकार हर घर तिरंगा की बात कर रही है। इतना ही नही, भूखे और बेघर को देशभक्ति का पाठ तिरंगा के माध्यम से पढ़ाने की कोशिश देश के गरीबों का मखौल उड़ाने के सिवा कुछ नहीं।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत पर चोट

अंत में यह भी समझने की आवश्यकता है कि एक तरफ 20 करोड़ घरों पर तिरंगा लगाने की योजना में झंडे के निर्माण में पहले तो सरकार ने झंडा संहिता में परिवर्तन कर खादी और सिल्क की जगह पोलिएस्टर का इस्तेमाल करने को मंजूरी दे दी जिससे राष्ट्रीय आंदोलन और गांधी के आदर्श पर चोट हुई, और फिर झंडा निर्माण के ठेके में कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने की कोशिश की गयी। झंडे के निर्माण से करोड़ों की कमाई कॉरपोरेट की हुई पर सड़कों पर गरीब बच्चे तथा महिलाओं को एक दो रुपये के लाभ के लिए तपती धूप में झंडे बेचते देखा जा सकता है। यहाँ तक कि हर घर तिरंगा के नाम पर राशन की दुकानों पर गरीबों से 20 रुपये लेकर झंडे जबरदस्ती बेचने की खबरें भी आ रही हैं और सरकारी देशभक्ति निर्माण योजना को सफल बनाने के लिए भाजपा और ‘आप’ के लोग जबरन लोगों को घर पर झंडा देकर जा रहे हैं ताकि सरकार द्वारा थोपी गयी देशभक्ति से बहुमतवादी राष्ट्र निर्माण की कोशिश कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के समता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व और सर्व धर्म समभाव की साझी विरासत को कमजोर किया जा सके।

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