चौखम्भा राज : लोकतांत्रिक राष्ट्र-निर्माण का समाजवादी रास्ता

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— आनंद कुमार —

भारत के लिए आजादी के 75 साल का उत्सव आत्मविश्वास के संवर्धन का अपूर्व अवसर है। यह सभी भारतीय स्त्री-पुरुषों में 1857 से 1947 के बीच के समस्त ज्ञात-अज्ञात स्वतन्त्रता-सेनानियों की वीरता और त्याग के प्रति श्रद्धाभाव पैदा करता है। अपनी विरासत के प्रति गर्व की भावना जगाता है। इसके साथ ही हमें अबतक की स्वराज-यात्रा की प्रगति की समीक्षा की आवश्यकता के प्रति सजग करता है। एक राष्ट्र के रूप में हमारी क्या दशा और दिशा है? यदि सबकुछ ठीक है तो हमें यथावत गतिशील बने रहना है। लेकिन राष्ट्रीय आजादी के लाभ में हिस्सेदारी की दृष्टि से देश के किसी हिस्से में असंतोष है अथवा जनसंख्या के कुछ वर्गों-समुदायों-समूहों में आक्रोश है तो आत्मसंशोधन की जरूरत को स्वीकारना चाहिए। यदि दिशा ठीक है तो गति बढ़ानी चाहिए। यदि दिशा को लेकर समस्याएँ सामने हैं तो दिशा परिवर्तन में संकोच नहीं करना चाहिए। अतीत की भूलों से वर्तमान के सवालों को ढँकना भावी पीढ़ियों के प्रति गैर-जिम्मेदारी मानी जाएगी। यही राष्ट्रीयता का तकाजा है। युग-धर्म का निर्देश है।

वैसे भी विदेशी राज से मुक्ति संघर्ष में अगस्त-क्रांति (1942-1946) के बाद 1947 में मिली आधी-अधूरी विजय के बाद लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण का सही रास्ता चुनना भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की सबसे बड़ी चुनौती थी। क्योंकि स्वाधीनोत्तर भारत के नवनिर्माण के सन्दर्भ में नौ बड़े अंतर्विरोध स्पष्ट थे : 1. गाँव बनाम शहर, 2. खेती बनाम उद्योग, 3. प्रभुजातियाँ बनाम वंचित जातियाँ, 4. समुदाय बनाम राष्ट्र, 5. शिक्षित बनाम निरक्षर, 6. स्वदेशी बनाम पश्चिमीकरण, 7. साम्प्रदायिकता बनाम राष्ट्रीयता, 8. परम्परा बनाम परिवर्तन, और 9. केन्द्रीयकरण बनाम विकेंद्रीकरण। इनमें से कुछ सुलझ गये। कई अंतर्विरोधों का समाधान किया जा रहा है। लेकिन कुछ अभीतक अनुत्तरित हैं। इस चर्चा में दो उदाहरण सामने रखना इस निबंध की प्रासंगिकता के लिए उपयोगी होगा। क्योंकि दोनों ही सत्ता और समाज के संबंधों में क्रमश: नागरिक हिस्सेदारी और विकेन्द्रीकरण से संबंधित हैं।

भारतीय लोकतंत्र निर्माण के आरंभिक दशक के अनुभवों के आधार पर जयप्रकाश नारायण ने यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न रखा था किलोकतंत्र के सामने शायद सबसे कठिन प्रश्न यह है कि जब स्वतंत्रता रहती है तो उसका दुरुपयोग होता है और राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ती है, और जब राज्य का हस्तक्षेप होता है तो स्वतन्त्रता की कटौती होती है। तब कैसे स्वतंत्रता की रक्षा की जाए और उसका दुरुपयोग भी रोका जाए?’ इसके उत्तर में जेपी ने इंगित किया कि इस दुविधा का कोई राजनैतिक समाधान नहीं है; केवल नैतिक उपाय है। क्योंकि स्वतंत्रता का पूरक पहलू दायित्व होता है।

यदि व्यक्ति सामाजिक उत्तरदायित्व उठाने के लिए तैयार नहीं हैं और अपनी स्वतंत्रता के उपयोग से अपना स्वार्थवर्धन करते हैं और दूसरों के हितों की उपेक्षा करते हैं या हानि पहुँचाते हैं तो किसी-न-किसी प्रकार का राज्यवाद अनिवार्य हो जाएगा। यहीं गांधीजी के न्यासिता (ट्रस्टीशिप) के सिद्धांत की उपयोगिता और बुद्धिमत्ता प्रकट होती है। इसीलिए राज्यवाद और सर्वसत्तावाद का एकमात्र उत्तर न्यासिता (ट्रस्टीशिप) है। परन्तु अपनी आवश्यकताओं को स्वेच्छापूर्वक सीमित किये बिना न्यासिता को आचरण में उतारा नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में, भौतिकवाद या भौतिक सुख-सुविधाओं की अमर्यादित छूट की अस्वीकृति लोकतंत्र की रचना और रक्षा के लिए अति आवश्यक है।

विकेंद्रीकरण को भारत जैसे विराट राष्ट्र के लिए लोकतंत्र की प्रगति की मुख्य कसौटी माना गया है। समाजवादियों ने अबतक कीदो खम्भा सरकार’ (केंद्र और राज्य की सरकारें) को ब्रिटिश राज की विरासत मानते हुएचौखम्भा सरकार’ (केंद्र, राज्य, जिला और गाँव सरकार का परस्पर पूरक ढाँचा) की स्थापना का सुझाव दिया है। इसे मार्क्सवादी विचारक और जननेता ईएमएस नम्बूदरीपाद नेचार स्तंभों वाला लोकतंत्र’ (फोर पिलर डेमोक्रेसी) की पहचान दी है।

जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1959 से 1964 के बीच एस.के.डे के सहयोग से संवर्धितपंचायती राज और सामुदायिक विकासइसी के समानांतर माना जा सकता है। लेकिन नेहरू के निधन के बाद उनकी उत्तराधिकारी श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1966 में पंचायती राज और सामुदायिक विकास मंत्रालय को ही समाप्त कर दिया औरप्रधानमन्त्री कार्यालयके रूप में सत्ता के केन्द्रीयकरण का नया प्रतिमान बनाया। 1975-77 में इमरजेंसी राज के रूप में सत्ता के केन्द्रीयकरण के भयानक रूप को जनता ने जाना और 1977 के चुनावों में अधिनायकवाद के रास्ते पर आगे बढ़ रही कांग्रेस और प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को सत्ताच्युत करके दण्डित किया।

पश्चिमी बंगाल की वामपंथी मोर्चा सरकार, आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम सरकार और कर्नाटक की जनता पार्टी सरकार ने सत्ता की प्रक्रिया में ग्राम पंचायतों को हिस्सेदार बनाने की जरूरत को फिर से प्राथमिकता दी। 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमन्त्री बनने पर शासन की घटती साख के समाधान के लिए एक बार फिर विकेन्द्रीयकरण को प्रोत्साहन दिया गया। इसके लिए 1992 में भारतीय संविधान में 73वाँ और 74वाँ संशोधन करके जिला परिषद और नगरपालिकाओं को नयी महत्ता प्रदान की गयी। इसके एक दशक बाद 2005 में सूचना अधिकार कानून और 2006 में वनसंपदा अधिकार कानून बनाकर शासनतंत्र में जन-हिस्सेदारी की गुंजाइश को बढ़ाया गया। फिर भी सत्ता के विकेंद्रीकरण के बारे में शोधकर्ताओं की राय है कि हमारा देश अपने संविधान में स्वराज की प्रतिबद्धता के बावजूदकलक्टर राजमें ही फँसा हुआ है।

समाजवादियों के लिए स्वराज का अर्थ

इन सभी अंतर्विरोधों से मुक्ति के मार्ग कोस्वराजकहा गया और इन अंतर्विरोधों को भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन ने संबोधित किया। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने भी अपनी तरफ से 1934 में मार्क्सवाद आधारित नीति और कार्यक्रम रखा जिसमें सोवियत संघ में मिली सफलताओं के प्रति स्पष्ट रुझान था। इसपर टिप्पणी करते हुए गांधीजी ने समाजवादियों को भारत की असली समस्याओं को सम्बोधित करने की सलाह दी। उन्होंने समझाया कि समाजवादियों ने अपने कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान सम्बन्ध, अस्पृश्यता, असहनीय निर्धनता और बेकारी, तथा शराब और अन्य मादक वस्तुओं की आदत जैसे ज्वलंत प्रश्नों को संबोधित ही नहीं किया है। इस शुरुआती दूरी के बावजूद राष्ट्रीय आन्दोलन के बढ़ते कदमों के साथ गांधी और समाजवादियों के बीच संवाद और निकटता का ऐसा क्रम बना कि 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद समाजवादी कांग्रेस पार्टी से बाहर आकर विकेंद्रीकरण के जरिये ग्राम स्वराज के सबसे प्रबल प्रवक्ता बन गये।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, संविधान सभा और स्वाधीनोत्तर सरकार से बाहर रहकर भारतीय समाजवादियों द्वारा लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण के लिए वैकल्पिक चिंतन और आन्दोलन चलाया गया। कांग्रेस का 1947 में भारत-विभाजन की कीमत पर सत्ता मिलने के बादसंघर्ष युगसेभोग युगकी ओर फिसलना समाजवादियों के लिए अलगाव का मुख्य कारण बना। समाजवादी देश का बिना उत्पादन के आधुनिकीकरण के भोग के आधुनिकीकरण की और मुड़ना खतरनाक मानते थे। इसलिए समाजवादियों द्वारा गाँव की तमाम समस्याओं के बावजूद राष्ट्रनिर्माण में इसकी बुनियादी भूमिका को मान्यता देते हुए गाँव से केंद्र तक नीति-निर्माण प्रक्रिया और प्रशासन प्रबंधन के लोकतांत्रिकीकरण को पहला कदम बताया गया जिससे भूमि-सुधार, कृषि की प्रगति व स्थानीय उद्योग को प्राथमिकता के जरिये अन्न समस्या और बेकारी का निदान हो सके। राष्ट्र में नव-निर्माण का उत्साह पैदा करने के लिए सत्ता में सभी प्रदेशों को न्यायपूर्ण  हिस्सेदारी के साथ ही राष्ट्रीय एकतामूलक स्थानीय सामुदायिक स्वशासन अर्थात गाँव और जिले में नौकरशाही की तुलना में जनप्रतिनिधियों को महत्त्वपूर्ण बनाने की जरूरत मानी गयी। पूँजी और श्रम की दुहरी समस्या का समाधान राष्ट्रनिर्माण में सभी स्त्री-पुरुषों की आत्मप्रेरित हिस्सेदारी में (एक घंटा देश को!’) बताया गया। आर्थिक और राजनीतिक सुधार की एकजुटता के जरिये सभी देशवासियों की बुनियादी जरूरतों को नियोजित तरीके से पूरा करने के संकल्प को पूरा करने को स्वराज की कसौटी बनाया गया।

भारत के लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत में 1765 में बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब की पराजय के बाद ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी को बंगाल का आर्थिक नियंत्रण हासिल हुआ था। तबसे 1957-60 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बीच भारत में इस ब्रिटिश  कंपनी के राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र का लगातार विस्तार हुआ। इसमें उसने एक तरफ देशी रजवाड़ों को अपने अधीन किया और दूसरी तरफ यूरोप के अन्य साम्राज्यवादी देशों को पराजित किया। इसमें 1799 में मैसूर के सुलतान टीपू सुलतान की ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों हार का विशेष महत्त्व माना जाता है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन अकाल, भ्रष्टाचार और आर्थिक दोहन के लिए याद किया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार 1769 और 1861 के बीच ईस्ट इण्डिया कंपनी शासित भारत में पाँच भयानक अकाल पड़े और हर अकाल में लाखों स्त्री-पुरुष, बच्चे और मवेशी मृत्यु के शिकार हुए – 1769/70 बंगाल में (20 लाख की मृत्यु); 1783-84 में उत्तर भारत के प्रदेशों में (1 करोड़ 10 लाख व्यक्तियों की मृत्यु); 1791-92 में मद्रास प्रेसिडेंसी में (1 करोड लोगों की मौत); 1837-38 में आगरा–राजपुताना-दिल्ली क्षेत्र में (8 लाख लोगों की मृत्यु); 1860-61 आगरा–दिल्ली-हिसार में (20 लाख लोगों की मृत्यु)।

1860 से भारत की लगाम ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ईस्ट इण्डिया कंपनी से अपने हाथों में ले ली। लेकिन ब्रिटिश ताज की हुकूमत के आठ दशकों में भी सात भयानक अकाल पड़े– 1865-67 में ओड़िशा-बिहार और मद्रास में;1868-70 में राजपूताना में; 1883-84 में बिहार में; 1876-78 में बम्बई और मद्रास प्रेसिडेंसी के इलाकों में; 1896-97 में पूरे ब्रिटिश भारत में; 1899-1900 में बम्बई और पंजाब में; और 194344 में बंगाल प्रेसीडेंसी में। और हर अकाल में लाखों निर्दोष लोगों की मृत्यु हुई।

ब्रिटिश राज के दौरान भारत की परिस्थिति के बारे में तीन विशेष बातों को ध्यान में रखना चाहिए : एक, भारत की दो सदियों की गुलामी में ब्रिटेन की संसद ने साम्राज्यवाद के दरोगा की शर्मनाक भूमिका अपनायी। 1215 मेंमैग्ना कार्टाऔर 1689 मेंबिल ऑफ़ राइट्सस्वीकारा गया। 1707 में ब्रिटिश संसद स्थापित हुई और 1918 मेंजन-प्रतिनिधित्व कानूनपारित किया गया। लेकिन सात शताब्दियों के दौरान उत्पन्न लोकतांत्रिकीकरण की लहरों से भारत में ब्रिटिश राज के चरित्र में कोई सुधार नहीं आया।

दूसरे, 1765 से 1947 के बीच के ब्रिटिश साम्राज्य की रचना (क) राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीयकरण, (ख) सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विखंडन, (ग) आर्थिक दोहन, और (घ) जन-साधारण को भयग्रस्त और शक्तिहीन बनाने के आधार पर की गयी थी। इसलिए भारत में स्वराज का अर्थ देश की व्यवस्था को कम से कम इन चारों दोषों से मुक्त करना होना चाहिए।

तीसरे, ब्रिटिश राज ने 1835 से उपनिवेशवादी भूस्वामित्व नीति, शिक्षानीति और भाषानीति अपनाकर ब्रिटिश वर्चस्वता के बिचौलिये की भूमिका निभाने के लिए एक ऐसा प्रशिक्षित समूह तैयार किया जो पूरी तरह से ब्रिटिश राज पर आश्रित था और  भारत केपश्चिमीकरणका समर्थक था। विदेशी राज के दौरान गाँव पर शहर का वर्चस्व था और गाँव-शहर दोनों पर ब्रिटिश राज के देशी समर्थकों (नवाबों, राजाओं, ज़मींदारों, सरकारी कर्मचारियों, ब्रिटिश सेना में शामिल व्यक्तियों, ब्रिटिश कंपनियों के एजेंटों, वकीलों, आदि) का बोलबाला था। खेती की कमाई से शहरो में एक विलासी वर्ग पनप चुका था। देशी कुटीर-उद्योगो के मुकाबले विदेशी कंपनियों को प्राथमिकता दी गयी। पश्चिम से आयातित वस्तुओं के धंधे में जादा लाभ था। प्रभुजातियों का वर्चस्व और वंचित जातियों का बहिष्करण था। पश्चिमी शिक्षा के डिग्रीधारी व्यक्तियों के आगे निरक्षरों की कोई गिनती नहीं थी। पश्चिमीकरण के मुकाबले स्वदेशी की प्रक्रियाएँ  शक्तिहीन थीं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति ब्रिटिश राज कीबाँटो और राज करोकी नीति से प्रोत्साहित थी। 1888 में लार्ड रिपन के प्रस्ताव से लेकर 1935 केगवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्टके जरिये स्वशासन के अवसरों के विस्तार की अनेकों कागजी कार्यवाहियों के बावजूद ब्रिटिश राज की आत्मा वायसराय और ब्रिटिश महारानी के हाथों में सत्ता के निर्बाध केन्द्रीयकरण में बसती थी।

भारतीय समाज में स्त्री, अस्पृश्यता, धार्मिक अस्मिता, सांस्कृतिक विरासत और आत्मगौरव के सन्दर्भ में परम्परा और परिवर्तन को लेकर उन्नीसवीं शताब्दी से समाज सुधारकों द्वारा प्रोत्साहित आत्ममंथन सबसे बड़ा आंतरिक मोर्चा था। विदेशी राज के परिणामस्वरूप भारत पावरलूम (1785) और भाप इंजन (1789) से जुडी औद्योगिक क्रांति के दौरान हाशिये पर रहा। इसका उद्योगीकरण प्रथम विश्वयुद्ध के समाप्त होने तक अवरुद्ध रखा गया। भारत ब्रिटेन का उपनिवेश होने के कारण फ्रेंच राज्यक्रांति (1789) से शुरू लोकतांत्रिक सुधारों का अवसर गँवा चुका था। इसके लिए 1921 के असहयोग आन्दोलन से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दमन से गुजरना पड़ा।

इसीलिए 1947 में अंग्रेजों के भारत छोड़ते समय कुल 35 करोड़ की जनसंख्या में से 80 फीसद स्त्री-पुरुष गाँवों में और 6 करोड़ शहरों में रहते थे। एक औसत भारतीय की अनुमानित जीवन अवधि मात्र 32 बरस थी। धार्मिक पहचान की दृष्टि से 84 फीसद हिन्दू, 9.8 प्रतिशत मुस्लिम, 2.3 फीसद ईसाई, 1.9 फीसद सिख, 0.7 फीसद बौद्ध, 0.46 फीसद जैन और 0.43 प्रतिशत प्रकृतिपूजक और अन्य आस्था-समूहों से जुड़े थे। लेकिन पूरे देश के 77 फीसद पुरुष और 89 फीसद स्त्रियाँ निरक्षरता के अन्धकार में कैद थे। खेतीयोग्य कुल जमीन (268 करोड़ एकड़) के मात्र 33 फीसद में खेती हो रही थी और देश में गंभीर अन्न-संकट था। कश्मीर में पाकिस्तान की मदद से हमला हो गया था। कई बड़े रजवाड़े और नवाब भारत संघ में विलय की बजाय अलग अस्तित्व बनाये रखने के जुगाड़ में थे।

(जारी)

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