ऐसे थे हमारे खडस भाई – अनिल सिन्हा : तीसरी किस्त

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मैं नागपुर के लोकमत को छोड़कर इंडियन एक्सप्रेस समूह के जनसत्ता में काम करने मुंबई आया तो आते ही मुझे खडस भाई का यह विस्तारित परिवार मिल गया जो अपनी सोच में पूरी तरह राजनीतिक था और अपने-अपने तरीके से लोकतांत्रिक समाजवाद को वास्तविकता में उतारने में लगा था। इनमें से ज्यादातर लोगों से मेरा परिचय समाजवादियों के सम्मेलन में हो चुका था। यह संगठन तो आगे नहीं बढ़ सका
, लेकिन इससे बने रिश्ते टिकाऊ सिद्ध हुए। मैं मुंबई में खडस भाई के घर ही टिक गया। कहने को तो मैं अपने सहयोगी पत्रकार के साथ एक मकान भी शेयर कर रहा था और बाद में खडस भाई की ही मदद से अरुणा सादिक (फिल्म निर्देशक जयंत धर्माधिकारी) के मकान में रहने लगा था। लेकिन मुंबई से रागिनी की अनुपस्थिति में ज्यादातर समय उन्हीं के घर रहा। खडस भाई के घर एक सदस्य के रूप में रहने के अपने अनुभवों के बारे में एक पूरी किताब ही लिख सकता हूँ।

मुझे याद है कि बाबरी मस्जिद ध्वंस के दिन खडस भाई और फाफा चिपलूण में थे। मैं और समर त्रिमूर्ति (चूना भट्टी) में थे। हमने टीवी नहीं लगाया था, इसलिए पता नहीं था कि अयोध्या में क्या हुआ। खडस भाई का फोन आया। उन्होंने हमें सावधान किया। पहली बार उनके स्वर में एक ऐसी चिंता थी जो उनके जैसे आदमी के लिए एकदम नयी थी। हिंदू-मुसलमान के साँचे में खुद को देखना उनके लिए पीड़ादायक था। मैं रामदास आठवले की ओर से शिवाजी पार्क में छह दिसंबर के अवसर पर आयोजित रैली को कवर करने गया। उसे संबोधित करने तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी आए थे। मुंबई की हवाओं में डर घुलने लगा था। केसरी से बातचीत के बाद यह अंदाजा हो गया था कि केंद्र सरकार का रवैया कितना लचर था।

इस घटना ने मुंबई का तानाबाना पूरी तरह बिगाड़ दिया। सच पूछिए तो  महानगरी की पुरानी रवानी कभी वापस नहीं आयी। यह खडस भाई जैसे लोगों के लिए अग्निपरीक्षा के दिन थे। मेरा भी विचित्र हाल था। मैं बांद्रा पूर्व में हाउसिंग बोर्ड कालोनी के जिस हिस्से में रहता था वह मुस्लिम बहुल झोपड़पट्टी बेहरामपाड़ा के ठीक सामने था। पास में ही हुसैन दलवाई का घर था जो बेहरामपाड़ा से एकदम सटकर था। वह सबसे खतरनाक जगह मानी जानेवाली जगह पर था। हाउसिंग बोर्ड कालोनी हिदू सांप्रदायिक तत्त्वों और शिवसेना का केंद्र बन गया था। वे बेहरामपाड़ा को नेस्तानाबूद करने का इरादा रखते थे। उधर भी जवाबी गोलबंदी थी। मुंबई के दंगों के दौरान यह अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में से था।

रागिनी पटना में थी और मेरे साथ जनसत्ता के सहयोगी जावेद इकबाल रहते थे। मैं चूना भट्टी चला जाया करता था तो वह अकेले पड़ जाते थे। सांप्रदायिक तनाव इतना बढ़ गया था कि मेरी सोसाइटी के लोग पूछने लगे थे कि आपके साथ एक मुसलमान रहता है। कर्फ्यू लग गया तो एक-दो बार मैं पुलिस की गाड़ी में घर आया। जावेद जी कुछ समय के लिए हमारे संपादक राहुलदेव के यहाँ चले गये क्योंकि चर्चगेट की आखिरी लोकल पकड़ कर बांद्रा आना और स्टेशन से पैदल घर आना जरा भी सुरक्षित नहीं था।

रात भर जगी रहनेवाली मुंबई ने जैसे नशे की गोली खा ली थी। रात होते ही लोकल ट्रेन खाली हो जाती थी।

मैं देर रात चूना भट्टी लौटता था तो लोकल में वैसे डब्बे ढूँढ़ने पड़ते थे जिसमें कोई आदमी बैठा हो। मुझे 81 नंबर की बस पकड़ने दादर टीटी के बाजार से होकर पैदल जाना पड़ता था। रास्ते में करीब-करीब अँधेरा होता था। हर साया डरावना। ऐसे में जब लौटता था तो नौ बजे सो जानेवाले खडस भाई जागते मिलते थे और फाफा की नींद उड़ी होती थी। दोनों मुझे डाँटते थे कि ऐसे माहौल में काम जल्दी खत्म कर घर लौट जाना चाहिए। उन्हें लगता था कि दाढ़ी, खादी का कुर्ता-पायजामा और बिहारी हिंदी मुझे मुसलमान साबित करने के लिए काफी है। बिस्तर पर जाते ही नींद में डूब जानेवाले खडस भाई की आँखों की नींद गायब होने लगी थी। उनकी आँखों में चिंता की लकीरें देखकर मुझे बहुत बुरा लगता था।

हम लोग उठते-बैठते महानगर की स्थिति के बारे में ही बातें करते रहते थे। लगातार बढ़ती हिंसा की खबरें आ रही थीं। बांद्रा की स्थिति एकदम विस्फोटक थी। वहाँ का शिवसेना विधायक मधुकर सरपोतदार सांप्रदायिक तत्त्वों को जुटाने में लगा रहता था। पास ही, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का निवास था। यह सब इस इलाके को सांप्रदायिक तनाव का हॉट स्पाट बनाने में मदद करता था।  

खडस भाई जैसे लोगों पर एक नयी पहचान थोपी जा रही थी जिसे उन्होंने कभी अपनाया ही नहीं था। उनके घर में ईद में खाने-पीने की चीजें भी उसी तरह बनती थीं जैसी दीपावली में। रक्षाबंधन पर एक हिंदू बहन के यहाँ इस उत्साह जाते थे कि जैसे कोई सगी हो। उन्हें अपने को कभी किसी खास मजहब से जोड़ने की नौबत ही नहीं आयी। लेकिन वह आम लोगों की आस्था को ठेस पहुँचाना गलत मानते थे और अपने को नास्तिक सिद्ध करने की कभी कोशिश नहीं करते थे। मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के संस्थापक हमीद दलवाई (फाफा के भाई) ने अपना दाह संस्कार कराया था। खडस भाई का मानना था कि यह मुस्लिम समाज से अलग-थलग करने वाला कदम था और राजनीतिक रूप से गलत था।

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