— डॉ महेश विक्रम —
जैव-प्रौद्योगिकी की भाषा में इसे चाहे मस्तिष्क और शरीर के न्यूरॉन और जैव-तरंगों की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाए, यह अंतत: होमो-सैपियनों के अपने सम्पूर्ण परिवेश/पर्यावरण के संदर्भ में उनके एकाकी या सामूहिक या सामुदायिक स्तर पर प्रकट होने वाली उनकी भावनात्मक और भौतिक प्रतिक्रियाएं और सामाजिक अभिव्यक्तियां ही रही हैं जिन्होंने मानव-इतिहास की दिशा निर्धारित की है। हम इसे मिथकों, कथाओं और सुविचारित वृत्तान्तों (नैरेटिव) जिस भी रूप में देखना चाहें, यह मानव जाति द्वारा विभिन्न क्षेत्रों और कालों में अनुभूत संवेदनाएं और जागतिक अनुभव ही हैं जिन्हें दार्शनिकों, आध्यात्मिक एवं धार्मिक गुरुओं और सामाजिक नेताओं नें होमो-सैपियनों के दिमाग में उनके बैंड/टोली/समूह, क्लान/कुल/वंश, जनजातीय और फिर संगठित सामाजिक अवस्थाओं में समय-समय पर भिन्न-भिन्न विश्वासों और संबन्धित कर्मकांडों से युक्त धार्मिक प्रणालियों और संस्कृतियों के रूप में प्रतिपादित, प्रचारित और नियोजित/प्रतिरोपित किया है।
इसके अनंतर निश्चित ही यह व्यापारिक संपर्क और लेन-देन और उसके साथ ही चलते रहे औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी अभियानों के द्वारा दूसरे समुदायों पर नियंत्रण और व्यापक क्षितिज पर तद्जनित संपर्कों और संघातों का ही परिणाम था जिसने एक ओर जहां नस्लीय, सांप्रदायिक-सामुदायिक और रूढ़िवादी आग्रहों को पैदा किया तो दूसरी ओर मानवीय, उदार, सहिष्णु और धर्म/संस्कृति निरपेक्ष लोकतान्त्रिक सिद्धांतों और दर्शनों की नींव रखी।
दो विश्व-युद्धों के भयानक अनुभवों के साथ प्रकट साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक विस्तार का दौर समाप्त हो गया और 20वीं सदी से ही सह-अस्तित्व और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के स्वप्न ने भी आकार लेना प्रारम्भ किया। कतिपय राष्ट्रीय संदर्भों में प्रकट हुए ‘स्वतन्त्रता, समानता और भातृत्व’ और फिर वैश्विक क्षितिज पर उठे ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारों को उदार लोकतंत्रों और समाजवादी प्रणालियों ने अपने अपने ढंग से चरितार्थ करने के दावे किए। जहां उदार पूंजीवादी लोकतान्त्रिक प्रणालियों ने समानता को नजरंदाज करते हुए स्वतन्त्रता प्रदान करने का दम भरा, वहीं तथाकथित समाजवादी व्यवस्थाओं ने उन्हीं पूंजीवादी यंत्रों के बल पर पुरुषार्थों और वाणी या विचार की स्वतंत्रता की बलि देकर समानता और सर्वहारा के शासन का दावा किया और एक सर्वप्रभुतासंपन्न तानाशाही को अपना लिया।
मानवता के महान आदर्शों से पथभ्रष्ट होती इन दक्षिण और वाम दोनों ही प्रणालियों के समक्ष कतिपय उदार समाजवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं ने भी उन्हीं पूंजीवादी साधनों से स्वतन्त्रता और समानता दोनों का समानुपात बनाना चाहा लेकिन जैसा कि होना था वह भी इसमें बुरी तरह असफल सिद्ध हुईं क्योंकि आप एक ही समय में अपने भोजन के निवाले को खाने और बचाने का भी काम नहीं कर सकते और ऐसे में अपने सम्मानजनक पुरुषार्थों और यथोचित आय से वंचित विशाल पराश्रित समूहों को समय-समय पर कुछ छोटी मोटी तात्कालिक सहायता (भीख) पहुँचाते रहने या सहायक राशि (सबसिडी) देते रहने के अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
अंतत: पूंजीवादी खेमे की विजय के साथ नव-पूंजीवादी और नव-उदारवादी वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के गंभीर परिणाम किसी को भी नजर आ सकते हैं। जिसमें प्रभुता और संपत्तियुक्त लोगों के हित में ही विकसित अविवेकपूर्ण प्रौद्योगिकी तथा तकनीकी व्यवस्थाओं के आरोपण के फलस्वरूप एक ओर संपत्ति का कुछ चुनिन्दा हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होते जाना और दूसरी ओर विशाल मानवता का उसके जीवन यापन के स्रोतों और संसाधनों और रहवासों से विस्थापित और वंचित होते जाना और उनके लिए कोई सम्मानजनक विकल्प उपस्थित न हो पाना किसी से छिपा नहीं है।
और अब किसी भी नाम से स्थापित सरकारों के संरक्षण में बाजार की नयी शक्तियां अपने धुआंधार विज्ञापनों और प्रचार के द्वारा लोगों के दिमाग को ऐसे असंयमित लोभ और इच्छाओं से ग्रस्त/संचालित करने में सफल होती देखी जा सकती हैं जो रोबोटिक बुद्धिचातुर्य (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और जैव-प्रौद्योगिकी के अमर्यादित विकास के द्वारा गिलगामेश के अमरत्व के स्वप्न को पूरा करने और मनुष्य को ऐसा अति-मानव बनाने की कल्पना से युक्त है जो स्वयं होमो-सैपियन प्रजाति के अस्तित्व को ही समाप्त कर देगी। यहाँ यह ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं है कि उपभोक्तावाद की यह संस्कृति पहले से ही सम्पूर्ण प्राकृतिक स्रोतों को एक क्षण में भोग लेने में जुटी है जो भयानक पर्यावरणीय संकट का कारण बन चुका है।
पर विकल्पहीन नहीं है दुनिया का
जहाँ 1990 के दशक के प्रारम्भ में फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी ‘एंड ऑफ हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन’ में इस पूंजीवादी व्यवस्था के प्रभावस्वरूप जल्दबाज़ी में ‘विचारों के अंत’ और ‘इतिहास के अंत’ जैसी बात कही थी वहीं अब वर्तमान में सम्पदा के अनियंत्रित रूप से बहुत थोड़े से हाथों में केन्द्रित होते जाने और उसके फलस्वरूप असमानता के भयानक स्तर तक अप्रत्याशित विस्तार को देखते हुए हाल में न्यू स्टेट्समैन को दिए गए अपने साक्षात्कार (17 अक्टूबर, 2019) में उसे अपने निष्कर्षों में संशोधन करते हुए यह कहना पड़ा कि, ‘अगर समाजवाद से आप का आशय न्यायसंगत पुनर्वितरण करनेवाली यानी आमदनी और धन की वर्तमान भयंकर असमानता को समाप्त करने वाली व्यवस्था से है तो मैं कहूँगा कि समाजवाद न केवल वापस आ सकता है बल्कि उसे आना ही चाहिए’। हालाँकि, चकाचौंध कर देनेवाली आधुनिकतम तकनीकी से लैस इस पूंजीवादी एकाधिपत्य के संकट को हम एक दूसरी तरह से भी देखना चाहेंगे।
इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि प्रौद्योगिकी के अविष्कार का अपना स्वतंत्र क्षेत्र होता है लेकिन यह भी कहा जाता है कि आवश्यकता ही हर एक आविष्कार की जननी होती है। यहाँ क्या हमें इस आत्मविवेचन की आवश्यकता नहीं है कि सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वतन्त्रता और समानता का वास्तविक उद्देश्य क्या है! क्या यह मनुष्य मात्र की मानसिक शांति, परस्पर विश्वास और स्वतन्त्र स्थिति, जीवन-यापन के न्यूनतम साधनों की उपलब्धता से इतर कुछ और है, भले ही हम इसे मानव इतिहास की प्रगति की दिशा में एक अन्य मिथक या काल्पनिक कथा के रूप में ही समझना चाहें! कम से कम यह तो तय ही है कि यह सब केवल किसी भी प्रकार के योगासनों या योगिक क्रियाओं तथा पाँच सितारा होटलों के बंद दरवाजों के भीतर व्यावसायिक विशेषज्ञों और प्रभुओं को श्री श्री रविशंकर द्वारा दिये जाने वाले ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ (जीने की कला) जैसे व्याख्यानों से नहीं ही संभव है।
क्या यह सब किसी अति-मानव के निर्माण की लिप्सा के परित्याग की भावना से युक्त मानवता या स्पष्टत: कहें तो किसी यथोचित राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा समर्थित सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की स्थापना के बिना संभव होगा! क्या यह सब छोटे और स्थानीय स्तर पर सभी के सरोकारों से जुड़े आवश्यक भौतिक ढांचे के उन्नयन की योजनाओं के निर्माण या उसके अनुमोदन की प्रक्रिया के बिना संभव होगा जो परस्पर सहकार और सहयोग के धरातल पर विकसित और प्रसारित होता हुआ ही क्रमश: अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर विस्तृत होगा! क्या यहाँ हम गांधी को याद नहीं करेंगे जिनका चरखा निर्माण और संतोष का प्रतीक होने के साथ ही स्वतन्त्रता और समानता की दिशा में भी मानवता के विकास का मार्ग था!
क्या यहाँ हम ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन या स्वराज के स्वप्न को व्यवहार में उतारने के बारे में नहीं सोचेंगे जो एक ऊर्ध्वगामी प्रगतिवादी सोच के साथ मानवता को राज्य, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी जोड़ने का माध्यम बनेगा! क्या हम इसे पहले ही अपने पैरों को गंवा चुके होने के बाद पीछे की ओर चलना कहेंगे! यह तो हमें तय करना ही होगा, होमो-सैपिएन्स को तय करना होगा, कि हम स्वयं अपने पर शासन करने की ओर अभिमुख तकनीकी और उसके जादुई जाल के अविवेकपूर्ण विकास को रोकना चाहेंगे और अपने कदमों को पीछे खींचने और अपने सही पगचिह्नों को फिर से पहचानने का प्रयास अभी करेंगे या फिर कभी नहीं!
[यह अक्सर पूछा जाता रहा है कि क्या कभी सभ्यता को पुराने जमाने की समाज एवं आर्थिकी की आत्मकेंद्रित और आत्मजीवी अवस्था में वापस पहुंचाया जा सकता है! यह प्रश्न सामान्यत: इस भ्रांतिपूर्ण धारणा से जुड़ा होता है कि यह कोई पीछे जाने जैसी बात है। जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है। यहाँ केवल यह सुझाया जा रहा है कि हमें कुछ ठहरने, अवकाश लेने, पुनरावलोकन करने और मनुष्य की मानसिक और भौतिक आवश्यकताओं के अनुरूप आधुनिक तकनीकी का चयन करते हुए अपनी प्रणालियों को पुनर्संगठित करने की अनिवार्यता है जो बहुसंख्यक समाज की व्यक्तिगत और सामुदायिक अपेक्षाओं के लिए हितकारक हो सके। अनेक चिंतनशील नेताओं और ई.एफ. शुमाखर (स्माल इस ब्यूटीफुल के लेखक) जैसे कुछ विद्वानों ने इसके लिए व्यावहारिक और प्रयोगात्मक समाधान प्रस्तुत किए हैं। पीवीसीएचआर/डिगनिटी (डेनिश इंस्टीट्यूट अगेन्स्ट टॉर्चर), वाराणसी चैप्टर द्वारा वर्ष 2015 में प्रकाशित मेरी अपनी पुस्तक ‘लोकतन्त्र, समाजवाद और कल्याणकारी राज्य या स्वराज’ में भी अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारत के संदर्भ में इसकी व्याख्या की एक झलक पायी जा सकती है।
पूर्व में अपनायी गयी प्रणालियों की असफलता के नाम पर आप पहले कभी प्रयोग में नहीं लाये जा सके ऐसे किसी विचार को खारिज नहीं कर सकते। यह सवाल केवल इच्छाशक्ति और चुनौती लेने के विचार से ही जुड़ा है। जहाँ तक यह प्रश्न है कि, ‘इसे करेगा कौन!’, तो इसका सीधा सपाट उत्तर यही होगा कि वर्तमान राजनीति में संलिप्त कोई दल हमें उस रास्ते पर ले जाने वाला नहीं हो सकता। वर्तमान लोकतान्त्रिक प्रणाली में हम कम से कम सत्ता पर काबिज किसी जनविरोधी सरकार को बदलते रहने और सत्ता में आनेवाली नयी सरकार पर लगातार दबाव बनाते रहने का ही कार्य करते रह सकते हैं। जो भी हो, मानवता हमेशा से विभिन्न संकटों के बीच से रास्ता खोजती आयी है और जनता के बीच से ही अपने लिए नए नए नेतृत्व का निर्माण भी करती रही है। यह पहले हुआ है और अनेक नए-पुराने अनुभवों के साथ पुन: होते रहना भी तय है। अन्यथा, चाहे या अनचाहे, हमें विकल्पशून्य होकर स्वनिर्मित प्रलय के लिए तैयार रहना होगा।]