— हिमांशु जोशी —
किताब शुरुआत में आपको वह नहीं बताती जो उसे बता देना चाहिए था पर धुंध के पार की सुंदरता दिखाने के लिए यह आवश्यक भी था, नागेंद्र सकलानी के बारे में कुछ अधिक भी लिखा जा सकता था।
किताब पढ़ आप शायद नागेंद्र सकलानी के बारे में और अधिक सामग्री खोजने लगें। क्या पता ‘सरदार ऊधम’ की तरह कल कोई नागेंद्र पर अधिक शोध कर ‘गुमनाम नागेंद्र’ बना दे। ‘जिन्हें खत्म मान लिया गया था, वो राजे-महाराजे अपनी पूरी सामंती ठसक के साथ अब भी संसद में कब्जा जमाए बैठे हैं’ जैसी पंक्ति कमाल करती है तो ‘जेल की सीलन भरी कोठरियों में कोड़ों की मार के बाद भी यदि कोई कोयले से जेल की दीवारों पर गीत उकेरने लगे तो उसके आगे सत्ता के सारे हथियार बौने हो जाते हैं’ जैसी पंक्ति किसी देशभक्ति फिल्म का संवाद बन सकती है।
किताब स्नेहलता रेड्डी को याद करते शुरू होती है, उनके बारे में पढ़ेंगे तो आगे चलकर किताब का हर शब्द जीते हुए चले जाएंगे। अगला नाम प्रसिद्ध इतिहासकार शेखर पाठक का है, फिर लेखक के कुछ विचार और सीन। किताब का नाम और आवरण चित्र समझने के लिए पूरी किताब पढ़ना जरूरी है।
‘शहादतों की ऊर्जा और ऊष्मा’ में शेखर पाठक की पंक्तियां ‘मनुष्य की विकासयात्रा गुफावास से भूमंडलीकरण के दौर तक पहुंच गई हैं’ समझाने में कामयाब रही हैं कि भूमंडलीकरण ही हर बवाल की जड़ है। यहीं पर आगे लिखते शेखर पाठक शहादतों से सीख लेने की बात भी कह जाते हैं।
‘जो मैं समझा’
‘जो मैं समझा’ में लेखक सुनील कैंथोला बताते हैं कि कैसे एक शवयात्रा ‘टिहरी जन क्रांति बन गयी’। लेखक के लिखने का तरीका और भाषा बिल्कुल आसानी से समझ में आ जाती है। लेखक भारतीय इतिहास से राजा-प्रजा के सम्बन्धों को हमारे सामने लाते हैं, यहां आप जागृत होती प्रजा के बारे में पढ़ते हैं।
सच, पाश की ‘घास’ कविता की तरह है, पंक्ति का इस्तेमाल कर लेखक ने किताब को इतिहास के साथ- साथ हिंदी के विद्यार्थियों के लिए भी अध्ययनार्थ बना दिया है। लेखक के दादाजी का गांव छोड़नेवाला किस्सा आपको बदलाव के दौर से गुजर रहे भारत के दर्शन कराता है।
लेखक 12 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर से नागेंद्र सकलानी की मुखजात्रा के साथ चले सैलाब को उत्तराखंड के वर्तमान आंदोलनों से जोड़, उत्तराखंड की वर्तमान दशा-दिशा पर विचार करवा देते हैं।
‘जो मैं समझा’ का अंत आते-आते आपको पता चल जाता है कि ‘मुखजात्रा’ क्या है और यह भी कि जो राक्षस उस दिन नागेंद्र की अंत्येष्टि के साथ समाप्त हुआ था वह फिर दबे पांव लोकतंत्र के मंच पर प्रवेश कर चुका है।
‘जैसा मैंने देखा’
‘जैसा मैंने देखा’ में लेखक भारत के गुलाम होने की दास्तान इतिहास के पन्नों से खोज-खोज कर हम तक पहुंचाते हैं। वर्तमान हालात पर उनकी पंक्ति ‘जिन्हें खत्म मान लिया गया था, वो राजे महाराजे अपनी पूरी सामंती ठसक के साथ अब भी संसद में कब्ज़ा जमाए बैठे हैं’ हथौड़े की चोट मार जाती है। आगे पढ़ते हुए किताब एक करोड़ हिंदुस्तानियों के भूख से मारे जाने और चंद गिनती के अंग्रेज़ों ने भारत में कैसे राज कर लिया इनकी वजहें हमारे सामने लाती है। जिसे जानने के लिए किताब खरीदना जरूरी हो जाता है।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन वजहों से वो मृत्यु हुई और अंग्रेज़ों ने भारत पर राज किया, वही सारे कारण आज भी जस के तस बने हुए हैं। लेखक अब धीरे-धीरे किताब को उसके मूल मुद्दे की ओर ले जाते हैं। अब आप यहां पर ब्रिटिश शासन के दौरान गढ़वाल का इतिहास समझते हैं, वहां के शासन में चल रही उथल-पुथल के बारे में पढ़ते हैं।
किताब की मुख्य विशेषता यह है कि सब कुछ सन्दर्भ सहित कहा गया है। हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों पर तब शासन की जिन नज़रों का उल्लेख किताब में किया गया है, उन्हें आप आज से जोड़कर देखेंगे तो किताब में लिखा हर शब्द आपको सत्य लगेगा।
किताब के मध्य भाग में नाटक के 39 सीन की शुरुआत होती है, अंत में नागेंद्र सकलानी के पत्र चस्पां हैं जो आपको आजादी के आसपास चल रहे घटनाक्रम से परिचित कराते हैं।
नाटक के मंच का आंखों देखा हाल बताकर महात्मा गांधी से शुरुआत की जाती है। उन्हें नागेंद्र सकलानी और भोलूराम जरदारी की तीन दिन चली शवयात्रा, टिहरी रियासत की आजादी और हिंसा न होने की बात बतायी जाती है। इसे पढ़कर नाटक के प्रति आपकी जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक है।सीन 6 तक पहुंचते पहुंचते आपको समझ आ जाएगा कि किताब इतिहास में झांक वर्तमान को समझाने का प्रयास करने के लिए लिखी गयी है।
अंग्रेजों की जेलें राजा की जेलों की तुलना में फाइव स्टार हुआ करती थीं यह लिख लेखक ने जेलों का अंतर भी बताया है और किताब पढ़ते-पढ़ते आपको श्रीदेव सुमन, रामचन्द्र उनियाल जैसे भुला दिये गये नायकों के बारे में जानने को भी मिलता है। गिंदाडू और नागेंद्र संवाद किताब की जान है।
सीन 18 को हम किसान आंदोलन से जोड़ सकते हैं, सीन 22 में नागेंद्र और साथियों के भाषण अविस्मरणीय हैं। लेखक ने इन्हें बड़ी सरल भाषा में गहरे अर्थों के साथ लिखा है। सीन 25-26 में नागेंद्र सकलानी और भोलू राम की मृत्यु का मंचन किया गया है, जिसे पढ़ते हुए आप घटनाक्रम को अपनी आंखों के सामने चलता महसूस करेंगे और भावुक भी हो जाएंगे। सीन 27 ही वह पड़ाव है जहां चन्द्र सिंह गढ़वाली का जनता से संवाद पढ़ कोई नागेंद्र सकलानी पर फिल्म बनाने का निर्णय ले सकता है।
अंत के सीनों को पढ़ते आप कल्पना के सागर में डूब यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि एक मुखजात्रा से जुड़ते सैलाब को साक्षात देखना कैसा अनुभव रहा होगा। देश में चल रहे इस मुश्किल दौर के बीच मुखजात्रा को पढ़ा जाना आवश्यक है, क्या पता इसे पढ़ आजाद भारत के पिछड़ते नागरिकों की उम्मीद कोई नागेंद्र सकलानी पैदा हो जाए।
पुस्तक- मुखजात्रा
लेखक- सुनील कैंथोला
प्रकाशक- हिमालय लोक साहित्य एवं संस्कृति विकास ट्रस्ट देहरादून
पुस्तक मूल्य- 210 ₹
लिंक- https://www.amazon.in/dp/B08T74NHQX/ref=cm_sw_r_apan_glt_fabc_09ZE78T1MDE8XP3GM1XZ