— शिव कुमार पराग —
गांधी : इनके मारे नहीं मरेंगे
इनके मारे नहीं मरेंगे
गाँधी फिर-फिर जी उट्ठेंगे।
नफरत के ठेकेदारों से,
हिंसा के पैरोकारों से,
कह दो, गाँधी डटे रहेंगे,
इनके मारे नहीं मरेंगे।
ये जितना भी जोर लगा लें,
दिल-दिमाग में विष फैला दें।
गाँधी अपना काम करेंगे,
इनके मारे नहीं मरेंगे।
दृष्टि नहीं ली, चश्मा पकड़ा,
जहर बुझा मन अकड़ा-अकड़ा।
गाँधी इनसे नहीं सधेंगे,
इनके मारे नहीं मरेंगे।
भगवा दल कितनो दुत्कारे,
साध्वी कितनो गोली मारे।
गाँधी टारे नहीं टरेंगे,
इनके मारे नहीं मरेंगे।
भीतर लिये घृणा की आँधी,
राजघाट पर गाँधी-गाँधी।
गाँधी को, ये क्या बूझेंगे!
इनके मारे नहीं मरेंगे।
मन के भीतर रहने वाले,
गाँधी कहाँ हैं मरने वाले!
गाँधी और-और फैलेंगे,
इनके मारे नहीं मरेंगे।
लो गंगा का बेटा आया!
माँ गंगा ने उसे बुलाया,
लो, गंगा का बेटा आया!
अच्छे दिन का पाठ पढ़ाया
कैसे-कैसे दिन दिखलाया,
जो जीवन-सरिता थी उसमें
लाशों का अम्बार लगाया।
जीवन भर छल करता आया,
लो, गंगा का बेटा आया!
बाबा-बाबा हैं गोहराते
छन्नूलाल जी दुखड़ा गाते,
दुख में जोहत ही रह जाते
बस टीवी पर बोलत पाते।
संकट में ना साथ निभाया,
लो, गंगा का बेटा आया!
राष्ट्रवाद का ज्वार उठाकर
भगवाध्वज की शपथ दिलाकर,
अपना जयकारा लगवाकर
मन की बातें सुना-सुनाकर।
लोगों को मन भर भरमाया,
लो, गंगा का बेटा आया!
सब कुछ तो बिकता जाता है
यह विकास है, समझाता है,
विश्वगुरु के गुन गाता है
देश रसातल को जाता है।
पूँजीपतियों को हरषाया,
लो, गंगा का बेटा आया!
— केशव शरण —
नया साल आया
आज
समयदेव का
वार्षिक श्रृंगार है
यत्र-तत्र-सर्वत्र
समयदेव
बिना देह
और बिना विग्रह के
कामदेव की तरह
महादेव के शिवलिंग की तरह
उनका प्रतीक
मात्र घड़ी
जो रात के बारह बजा रही है
पटाखे फूट रहे हैं
उनसे ज्यादा
बधाइयों और शुभकामनाओं के ढोल
बज रहे हैं
मुर्गे से पहले
मानव ने गाया
नया साल आया
नया साल आया।
फिर से
एक नया कैलेंडर
जिसमें पूरे बारह महीने
फिर से!
भाई वाह!
भाई वाह!
जब एक पल नहीं बचा था
और हजारों काम पड़े थे
चुक गया था
पुराना कैलेंडर
पूरी तरह से
जब दम घुटना ही रह गया था
एक पूरा साल
खुला और कोरा मिल गया
साँसें लेने के लिए
जीवन रंगों से भर
देने के लिए
भाई वाह!
भाई वाह!
— कुमार अरुण —
लकड़बग्घा : एक
लकड़बग्घों ने अपना स्वभाव बदल दिया है
उन्हें जीवित
गर्म हड्डी का चस्का पड़ गया है
परिणामतः मेरा घर
कुतरी हुई हड्डियों का जंगल हो गया है।
लकड़बग्घा : दो
इतिहास में हड्डी बोलती है
और चबाई गयी हड्डी
लकड़बग्घों की पोल खोलती है
इसलिए लकड़बग्घे
हड्डी की आखिरी बूँद भी चूस लेने की
भरसक कोशिश में हैं
लकड़बग्घा : तीन
हर नाके पर लकड़बग्घे हैं
तुम कहीं से भी निकलो
कुरते का कोना कोई झूलता छोर
उनके दाँत में फँस ही जाते हैं
मांस के चिथड़े नहीं निकले
चमड़ी पर नाखून के खरोंच पड़ जाते हैं
या नहीं हो कुछ
उनकी गुर्राहट लाल आँखे
और निकले दाँत
हड्डी को ठंडा तो कर ही देते हैं
( सभी चित्र : कौशलेश पांडेय)