— संजय गौतम —
अपने समय के विशिष्ट कथाकार हैं संजीव। अस्सी के दशक से लेकर आज तक वह कथा लेखन में पूरी तरह सक्रिय हैं। इस दौरान उन्होंने प्रायः दो सौ कहानियाँ और एक दर्जन से ज्यादा उपन्यास लिखे हैं। इसके अलावा उन्होंने नाटक, रिपोर्ताज, आलोचना एवं सामयिक विषयों पर भी प्रचुर लेखन किया है। उनका लेखन जितना विपुल है, उतना ही विविध भी। उन्होंने हिंदी कथा लेखन का पाट बहुत चौड़ा किया है। शोधपरक कहानी एवं उपन्यास लेखन की दिशा में उन्होंने नयी प्रविधि का इस्तेमाल किया। तथ्यात्मकता और वैज्ञानिक दृष्टि इनकी खासियत है। सूचना संभार का जोखिम लेकर अपनी रौ में चलते रहे। कथ्य और चरित्रों का एक बड़ा संसार खड़ा किया। हिंदी पाठकों की सौंदर्य दृष्टि बदलने में कामयाब रहे। उनकी रचनाओं का मूल्यांकन एक बड़ी चुनौती है।
कुलटी से प्रकाशित पत्रिका सहयोग ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अपना पहला ही अंक संजीव पर केंद्रित किया और उनका वृहद मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। लगभग छह सौ पृष्ठों के इस विशेषांक में उनके समग्र मूल्यांकन का प्रयास किया गया है। कुलटी से संजीव की पहचान है, और संजीव से कुलटी की। संपादकीय में प्रधान संपादक शिवकुमार यादव कहते हैं, “कुलटी के रास्ते से जो भी साहित्यप्रेमी गुजरते हैं, कथाकार संजीव याद आ जाते हैं। जिस तरह से काबा और काशी मुसलमान और हिंदू के लिए तीर्थ स्थल है, उसी तरह से इस शिल्पांचल के साहित्यकारों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे साहित्य जगत के लिए कुलटी तीर्थ स्थल बन गया है।” सही मायने में संजीव के साहित्य का निर्माण स्थल कुलटी ही है। उन्होंने इस शिल्पांचल की समस्याओं को ही अपने साहित्य का आधार बनाया और बहुत गहरे डूब कर, तमाम तथ्यों को खँगालकर अपनी कहानियों और उपन्यासों में इसे स्वर दिया। उन्होंने इस क्षेत्र के चरित्रों को अपनी कलम की धार से ऐसा मानीखेज व्यक्तित्व दिया, उनकी चमक पूरे हिंदी जगत में छा गयी।
संपादक निशांत ने सूझ-बूझ के साथ इसका संयोजन एवं संपादन करते हुए संजीव को समग्रता में प्रस्तुत करने का स्तुत्य प्रयास किया है। प्रथम खंड‘मंगलाचरण’ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेख ‘प्रेमचंद का महत्त्व’ प्रस्तुत किया गया है। यह टिप्पणी लगाते हुए कि द्विवेदी जी ने प्रेमचंद के बारे में जो कहा है उसे ही संजीव के बारे में भी समझा जा सकता है। वाकई संजीव प्रेमचंद को ‘छूने’ की आकांक्षा रखते हैं और उन्होंने प्रेमचंद को ‘छूवा’ भी है। कथावस्तु की बहुलता और सरोकार की दृष्टि से उनके समकाल में प्रेमचंद को ‘छूने’ वाले लेखक विरल हैं। पत्रिका में नामवर सिंह और राजेंद्र यादव के लेख दिये गये हैं, जो किंतु-परंतु के साथ संजीव के महत्त्व को रेखांकित करते हैं।
संजीव के आत्मीय मित्र नरेन का लेख उन्हें समझने के लिए जरूरी है। इसी खंड में संजीव के साथ निर्मला तोदी, मिथिलेश कुमार यादव की बातचीत के अलावा उनका वक्तव्य, अप्रकाशित लेख, नाटक व परिवार के सदस्यों के लेख भी प्रकाशित किये गये हैं, जो उन्हें समझने में हमारी मदद करते हैं। रविभूषण, मनोज शुक्ला, शंभुनाथ के आलेख विशेष रूप से पठनीय हैं। अपने निबंध ‘कहानी लेखन कला’ में संजीव कहानी लेखन में विजन व परकाया प्रवेश को महत्त्वपूर्ण तत्त्व मानते हैं। रविभूषण ने अपने आलेख में उन्हें विश्वामित्र की आत्मा और कोलंबस का बाना धारण करनेवाला कहा है। उनके शब्दों में, “संजीव ने अपना कथामार्ग स्वयं निर्मित किया है। प्रेरणाएँ देश-विदेश के अनेक कथाकारों से लीं, जिनका उन्होंने कई बार उल्लेख भी किया। एक समय उनकी इच्छा प्रेमचंद को ‘छूने’ की थी और यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रेमचंद को उन्होंने ‘छू’ लिया है। “वे प्रेमचंद के संग-साथ सदैव न रहे, पर उनसे दूर भी कम रहे हैं।” मनोज शुक्ला ने अपने आलेख ‘इतिहास के गुमशुदा लोगों की तलाश में’ में संजीव के कवि-रूप को उजागर किया है। संजीव कविता से कथा की ओर बढ़े हैं। उनकी कविताओं में लयात्मकता, गीतात्मकता के साथ आक्रोश और यथार्थ का विद्रूप भी है, जिसे विस्तार से व्यक्त करने के लिए उन्हें गद्य की ओर जाना पड़ा। उनके कथा साहित्य में काव्यात्मकता के स्रोत को यहाँ लक्षित किया जा सकता है।
दूसरे खंड में संजीव के उपन्यासों की चर्चा की गयी है। रणेंद्र ने आदिवासी जीवन पर आधारित संजीव के उपन्यासों- धार, पाँव तले की दूब, जंगल जहाँ से शुरू होता है- की चर्चा विस्तार से की है। रणेंद्र कहते हैं- “हमारा समय और समाज की धड़कनें उनकी रचनाओं की पंक्तियों के बीच इतनी जोर-जोर से धड़कते हुए सुनाई देती हैं कि उन्हें महसूस करने के लिए अलग से किसी आवर्धक लेंस या भूकंपमापी उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती।”
भिखारी ठाकुर पर केंद्रित उपन्यास ‘सूत्रधार’ की विस्तृत विवेचना की है प्रो. अवधेश प्रधान ने। वे लिखते हैं- “गंगा, सरयू और गंडक से घिरे दियारा का भूगोल, भोजपुरी अंचल का लोकजीवन, उसके तीज-परब, रीति-रिवाज, आचार-विचार, अंधविश्वास, नाच-गान गरज कि समूची लोकसंस्कृति का रसात्मक चित्रण इस उपन्यास को किसी दृष्टिसंपन्न खोजी समाजशास्त्री के लिए भी रुचिकर और अनिवार्य बनाता है और भिखारी ठाकुर के व्यक्तिगत जीवन संघर्ष, स्वप्न, आत्मविश्लेषण और रचना प्रक्रिया के सूक्ष्म अंकन के साथ मिलकर इस उपन्यास को संजीव की और हिंदी की भी एक विशिष्ट कलात्मक उपलब्धि के रूप में स्थापित करता है।”
अन्य उपन्यासों पर महेश दर्पण, जगदीश भगत, प्रतिभा प्रसाद, शेलेंद्र शांत, डॉ. कृष्ण कुमार श्रीवास्तव, डॉ. रीता सिन्हा, मकेश्वर रजक,, रोहिणी अग्रवाल, विवेक मिश्र इत्यादि के लेख हैं, जिनसे संजीव के उपन्यासों का मुकम्मल खाका उभरता है।
संस्मरण खंड में विभूति नारायण राय, मधु कांकरिया, नारायण सिंह, मृत्युंजय तिवारी, प्रेमकांत झा, संजय सुमति, गिरीश कासिद, अनवर शमीम के संस्मरण हैं। संजीव की कहानियों पर समग्र रूप से विचार किया है सुधीर सुमन, अरुण होता, राहुल सिंह, प्रेमपाल शर्मा, संजय राय, कलावती कुमारी, विनय कुमार पटेल, संदीप कुमार और संयोगिता वर्मा ने।
‘एक कहानी : एक आलेख’ खंड में संजीव की एक-एक कहानी पर अलग-अलग विचारकों के लेख हैं। इसमें उनकी महत्त्वपूर्ण कहानियों को शामिल किया गया है। उनकी सुप्रसिद्ध कहानी ‘अपराध’ के बारे में ए. अरविंदाक्षन कहते हैं- “चालीस वर्ष के बाद संजीव की कहानी अपराध का पाठ हम कर रहे हैं। अब भी यह कहानी इतनी ताजी क्यों लग रही है? उसके निहितार्थ के कई आयाम हमारे भीतर और बाहर खुलते नजर आ रहे हैं? अधिकार की राजनीति का चाहे वह मध्यकालीन हो, आधुनिक युग की हो या समकालीन राजनीति की हो। कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसी स्थिति में संजीव की कहानी का पाठ कई प्रकार से संभव है।” जाहिर है कि संजीव की कहानियाँ काल की सीमा पार करके अपने अर्थ और ज्यादा खोलने में समर्थ हैं।
अंतिम खंड में संजीव का राजेंद्र यादव, शिवमूर्ति, ओमा शर्मा, मदन कश्यप, बड़े भाई रामजीवन, पत्नी, भतीजे के साथ पत्राचार दिया गया है, जिनसे मित्रों और घर-परिवार के साथ उनके संवाद का रूप उभरता है, उनके व्यक्तिगत जीवन के सुख-दुख सामने आते हैं, उन्हें समझने की खिड़की खुलती है। अंक को खास फोटोग्राफ से समृद्ध बनाया गया है। संपादक निशांत की आकांक्षा है कि अंक को पढ़कर लोगों में संजीव की मूल कृतियों को पढ़ने की उत्कंठा जगे। अंक से परिचय कराने का मेरा उद्देश्य भी यही है। अंक को तैयार करने में सहयोग देनेवाले सभी निष्ठावान समर्पित रचनाकर्मी अभिनंदनीय हैं।
पत्रिका- सहयोग संपादक- निशांत
मूल्य- दो सौ रुपए मात्र
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