गांधी के विरोधी : पांचवीं और अंतिम किस्त

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 – 15 मार्च 2015)

— नारायण देसाई —

कुछ मुद्दों पर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का भी गांधीजी से मतभेद था। दूसरे विश्वयुद्ध के समय राजगोपालाचारी मानते थे कि जापानियों के विरुद्ध लड़ने में इंग्लैंड और मित्र राष्ट्रों की हर तरह से मदद की जानी चाहिए। पाकिस्तान की माँग को अपनी व्याख्या के मुताबिक मान्यता देकर वह मुसलिम लीग के साथ भी समझौता किये जाने के पक्षधर थे। इन मामलों में वह कांग्रेस और गांधीजी से अलग पड़ गये थे, पर गांधीजी और राजाजी का स्नेह-संबंध कभी खंडित नहीं हुआ। दोनों एक दूसरे को समझते भी थे। उनके मतभेद ज्यों के त्यों थे, फिर भी आपसी संबंधों में दोनों पक्षों ने कोई कटुता नहीं आने दी।

गांधीजी के विरोधियों के बारे में विचार करते हुए हमने अब तक मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में विचार नहीं किया। यह कहना पड़ेगा कि गांधीजी से उनका जो संबंध था वह आखीर तक सुधरा नहीं था। संबंध सुधर गया होता तो गांधीजी की हत्या के बाद जिन्ना ने उन्हें जो श्रद्धांजलि दी, उसमें यह वाक्य न कहा होता कि वह हिंदुओं के महान नेता थे। इस वाक्य में जिन्ना की कड़वाहट थोड़ी झलक आयी थी। हालांकि उन्होंने श्रद्धांजलि देते हुए यह भी कहा था कि वह अपना जो कर्तव्य मानते थे उसे पूरा करते हुए मरे। उनकी मृत्यु से हमें चाहे जितना दुख हो, हम हत्यारे की चाहे जितनी भर्त्सना करें, पर वह एक उदात्त मृत्यु थी क्योंकि वह अपना फर्ज निभाते हुए इस दुनिया से गए। यह नहीं कहा जा सकता कि गांधीजी आखीर तक जिन्ना का दिल जीत सके थे। गांधीजी तो इसमें अपनी ही त्रुटि या कमी मानते थे। लेकिन देश के बँटवारे से आखिरकार जिन्ना भी सुख-संतोष से मरे, यह नहीं कहा जा सकता।

अब हम गांधीजी का विरोध करनेवाले कुछ व्यक्तियों के किस्से लें।

दक्षिण अफ्रीका के दूसरे सत्याग्रह के समय जब जनरल स्मट्स के आश्वासन पर गांधीजी ने यह मान लिया था कि अगर हिंदुस्तानी अपनी उँगलियों के निशान देकर नाम पंजीकृत कराएँगे तो पंजीकरण का कानून वापस ले लिया जाएगा। इस निर्णय से कुछ पठान आहत थे। प्रथम सत्याग्रह के समय उँगलियों के निशान देने का विरोध किया गया था। वह आग्रह अब क्यों छोड़ दिया गया, यह सवाल कुछ भोले पठानों के मन में उठा था। स्वेच्छा से पंजीकरण करानेवालों को छोड़कर, दूसरे गैर-कानूनी ढंग से दक्षिण अफ्रीका में घुसनेवाले को मुश्किल होनी थी। ऐसे कई लोगों ने यहाँ तक अफवाह उड़ा दी कि गांधीजी ने सरकार से पैसा खाकर स्वेच्छा से पंजीकरण कराना कबूल किया है।

गांधीजी अपने साथियों के साथ दफ्तर जा रहे थे तब एक समय उनका मुवक्किल रह चुका मीर आलम नाम के पठान ने ललकारा कि आप कहाँ जा रहे हैं? गांधीजी ने धीर-गंभीर स्वर में कहा कि दसों उँगलियों के निशान देकर अपना नाम रजिस्टर्ड कराने जा रहा हूँ। गांधीजी कुछ कदम गये होंगे कि पीछे से उनकी गरदन पर एक लाठी का प्रहार हुआ और कुछ देर में तो उन पर इतनी लाठियाँ पड़ीं कि वह मूर्छित होकर गिर पड़े। मीर आलम को तो आसपास इकट्ठा हुए लोगों ने पकड़कर जेल भिजवा दिया। लेकिन गांधीजी होश में आते ही मीर आलम के लिए चिंतित हो उठे; ‘उसे कोई परेशान मत करना, उस बिचारे ने अपनी समझ के मुताबिक बर्ताव किया है।

गांधीजी को कुछ दिन एक भले पादरी के यहाँ शुश्रूषा करानी पड़ी। दूसरी तरफ जेल में बंदी मीर आलम ने सुना कि गांधीजी ने उसके साथ सबको भलमनसाहत से पेश आने को कहा है और उसके खिलाफ गवाही देने से इनकार किया है तो मीर आलम को लगा कि यह आदमी ऐसा नहीं है कि रिश्वत खाकर देश की प्रतिष्ठा गिरवी रख दे, बल्कि अपने ऊपर हमला करनेवालों पर भी प्रेम बरसानेवाला पीर है। जेल से छूटने के बाद मीर आलम ने सत्याग्रह के अन्य कार्यक्रमों में आगे बढ़कर भाग लिया था। कुछ महीनों बाद गांधीजी को लोगों ने चेताया था कि आप जोहानिसबर्ग मत जाइए, वहाँ आपको मारने की साजिश चल रही है। गांधीजी ने कहा कि मैंने जोहानिसबर्ग का नमक खाया है, इस तरह डरकर वहाँ जाने मुँह कैसे मोड़ सकता हूँ? वह धड़ल्ले से वहाँ गए। एक खुली सभा बुलायी। वह बोल रहे थे कि इतने में अचानक हॉल की सारी बत्तियाँ गुल हो गयीं। वहाँ एक तरफ से ऊँची आवाज सुनाई दी, जो गांधी का बाल भी बांका करेगा, मैं उसकी जान ले लूँगा। यह ललकार सुनकर उपद्रवी वहाँ से खिसक गये। सभा में गांधीजी की बगल में जाकर एक ही आदमी खड़ा रहा। वह शख्स और कोई नहीं, बल्कि मीर आमल खुद था।

ऐसा ही एक किस्सा मिलि ग्रेहाम पोलाक ने अपनी गांधी द मैन नामक पुस्तक में दर्ज किया है। एक दिन एक सभा से लौटते हुए गांधीजी चले जा रहे थे। साथ में मिसेज पोलाक थीं। शहर की गलियों में पूरी तरह उजाला नहीं था। इतने में बगल की एक गली से एक आदमी निकलकर आया और गांधीजी के साथ कदम मिलाकर चलने लगा। दोनों बहुत धीमी आवाज में बात कर रहे थे। मिसेज पोलाक उनसे कुछ दूर आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थीं। यों भी दोनों की बातचीत वह समझ नहीं सकती थीं, क्योंकि दोनों गुजराती या उर्दू में बोल रहे थे और वह भाषा मिलि को आती नहीं थी। लेकिन दोनों की बातचीत का ढंग देखकर मिलि को कुछ अनिष्ट की आशंका हुई। फिर भी वह थोड़ा अंतर रखकर पीछे-पीछे चलती रहीं। कुछ देर बाद मिलि ग्रेहाम पोलाक ने देखा कि उस अनजान आदमी ने अपनी जेब में से कुछ निकाला और उसने अपना हाथ गांधीजी की तरफ बढ़ा दिया। गांधीजी ने भी अपना हाथ बढ़ाया। उस आदमी ने गांधीजी को कुछ देकर अपना हाथ वापस खींच लिया। कुछ कदम साथ चलने के बाद वह आदमी बगल की गली में मुड़ गया।

मिसेज पोलाक ने गांधीजी के पास आकर पूछा कि क्या था?’ गांधीजी ने कहा कि कुछ नहीं, वह आदमी मुझे मारने के इरादे से आया था। मिसेज पोलाक ने उत्तेजित होकर कहा, हें! तो पुलिस को खबर देनी चाहिए।गांधीजी ने कहा किइसकी कोई जरूरत नहीं। उसने अपना इरादा बदल दिया। देखो न, वह जो छुरा लेकर आया था, मुझे दे गया है!’ और मानो कुछ खास हुआ न हो, गांधीजी उन्हीं गलियों से गुजरते हुए मिसेज पोलाक के साथ घर पहुँचे और घर आकर किसी से इस बारे में बात भी नहीं की।

महादेव देसाई ने विरोधियों के पास खुद चलकर जाने का एक किस्सा दर्ज किया है। वह चंपारण के आंदोलन के दिनों में नील के कारखाना मालिकों के खिलाफ किसानों की शिकायतें दर्ज करा रहे थे। शिकायती कागजों का ढेर बड़ा होता जा रहा था यह पता चलते ही नील के कारखाना मालिक और नीलहे अंग्रेज चिंतित हो गये थे। उनमें से एक नीलहे की इस आशय की बात गांधीजी के कान में पड़ी कि यह गांधी बहुत डरपोक है। सवेरे से शाम तक लोगों से घिरा रहता है। अगर कभी मुझे अकेले मिल जाय तो मैं उसे गोली मार दूँ।

दूसरे दिन गांधीजी रोजाना से एक घंटा जल्दी उठे। उनकी बगल में सोये महादेव भाई भी जाग गये, पर कुछ बोले बिना चुपचाप निरीक्षण करते रहे। गांधीजी ने दातुन करके चप्पल पहनी। वह बाहर निकले तो महादेव भाई भी कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे गये। गांधीजी जिस गाँव में सोये थे उसे पार करके पड़ोस के गाँव में गये। वहाँ उन्होंने उसी नीलहे के घर का दरवाजा खटखटाया। नीलहे के लिए तो सुबह के चार बजे आधी रात ही थी। तमतमाये हुए उसने दरवाजा खोला तो सामने गांधी खड़े थे। गांधीजी ने कहा कि मैंने सुना है मैं एकांत में मिलूँ तो आपने मुझे गोली मार देने की प्रतिज्ञा की है। मैं क्या करूँ? लाचार हूँ। ये किसान मुझे सुबह से शाम तक घेरे ही रहते हैं। आज उन लोगों के उठने से पहले ही मैं अकेले आपके पास आकर खड़ा हूँ। अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लो!’

विरोधियों के पास भी प्रेमपूर्वक पहुँचनेवाले गांधीजी के मन में अद्वैत सिद्धांत पर श्रद्धा थी। इसलिए वह अपने-पराये का भेद करने को तैयार नहीं थे। इसीलिए वह प्रेमपूर्वक विरोधियों से भी जाकर मिल सकते थे। फिर, वह रोग और रोगी, दोनों को अलग-अलग करके देख सकते थे। वह जिस अन्यायी व्यवस्था से लड़ते थे उस व्यवस्था से व्यक्ति को अलग करके देखते थे। इसीलिए उसके प्रति क्रोध, डर या तिरस्कार के बदले उनके मन में दया, क्षमा या प्रेमभाव रहता था। श्रीमद् राजचंद्र के सुझाये ग्रंथों में से जैनों के अनेकांतवाद के सिद्धांत ने भी गांधीजी को यही बात समझायी थी कि हम खुद जो देखते हैं वही सत्य है, यह मानने का कोई कारण नहीं है। संभव है कि दूसरों को भी सत्य का कुछ अंश दिखता हो।

गांधीजी अपने विरोधियों के साथ जिस ढंग पेश आते थे, यह ऊपर के उदाहरणों से जाहिर है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वह उनका हृदय परिवर्तन कराने में हमेशा सफल ही हुए। कुछ लोगों का गांधी-विरोध इस प्रकार का था कि वे गांधीजी के सीधे संपर्क में आने से बचते थे। ऐसे लोगों की बाबत गांधीजी कोई प्रत्यक्ष परिणाम ला सके हों, यह दावा नहीं किया जा सकता।

आगा खाँ महल से रिहा होने के बाद गांधीजी विश्राम के लिए पंचगनी गये। तब एक दिन जिन्ना के साथ वह कुछ समझौते की बातचीत करना चाहते थे, यह देखकर गांधीजी के प्रति अपना विरोध करने के लिए नौजवानों का एक झुंड आया। वे लोग काफी आवेश में थे और उनकी भाषा में भी काफी जुनून झलकता था। गांधीजी ने उन लोगों से मिलने की इच्छा जाहिर की थी, पर विरोध करनेवालों ने मिलने से इनकार कर दिया। उन लोगों को पकड़ा गया तब उनके नेता के पास से एक बड़ा-सा छुरा मिला था।

गांधीजी को उनके खिलाफ कानूनी कदम उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी होने के नाते सरकार ने उन पर मुकदमा चलाया था। उस दृश्य के दो गवाहों ने छुरा रखनेवाले को पहचान लिया था। उसका नाम नाथूराम गोडसे था। उसी ने गांधीजी से मिलने से इनकार किया था। गांधीजी ने एक बार कहा था कि उनकी इच्छा 125 साल जीने की है। तब गोडसे ने अग्रणी नामक अपनी पत्रिका में इस बात की आलोचना करते हुए लिखा था कि पर उन्हें इतना जीने देगा कौन?’

एक बार गांधीजी से किसी ने कहा कि आपकी अहिंसा आपको बाइबिल के तीन प्रेम-सिद्धांतों तक ले जाती है : तुम परस्पर प्रेम करो, अपने पड़ोसी को अपनी ही तरह प्रेम करो और अपने दुश्मन को भी प्रेम करो। गांधीजी ने उस शख्स से हँसते-हँसते एक गंभीर सत्य कहा : इन तीन सिद्धांतों में से एक मुझ पर लागू नहीं होता। मेरा कोई दुश्मन नहीं है।

(गुजराती से अनुवाद : राजेन्द्र राजन)

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