ये विचार दो महानायकों के थे एक दूसरे के बारे में

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रक्स महात्मा गांधी की भी चर्चा चल रही होगी। ठीक है कि भारत की आजादी का कोई भी विमर्श महात्मा गांधी का नाम लिये बिना पूरा नहीं हो पाता। लेकिन इसमें कोई सत्यता नहीं कि उन दोनों में मनभेद था, हां मतभेद जरूर था और उससे गांधीजी या नेताजी बोस ने कभी इनकार नहीं किया ।

नेताजी बोस और महात्मा गांधी के बीच के वैचारिक भेद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करनेवाले लोग अक्सर 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव वाला प्रसंग जरूर याद दिलाएंगे। हमें बचपन से किताबों में एक ही वाक्य बार-बार पढ़ाया गया है जहां गांधी को इस अवसर पर यह कहते हुए दिखाया जाता है कि ‘पट्टाभि की हार मेरी हार है’। बस केवल यही एक वाक्य पढ़ा-पढ़ाकर एक भ्रम पैदा किया जाता रहा है। आइए हम 31 जनवरी, 1939 को बारडोली में लिखे गए गांधी के उस संदेश के कुछ और जरूरी हिस्से को पूरी और सही बात समझने के लिए पढ़ते हैं। यह संदेश चार फरवरी, 1939 को ‘यंग इंडिया’ में छपा था। इसमें गांधी कहते हैं, ‘…तो भी मैं उनकी (सुभाष बाबू की) विजय से खुश हूं और चूंकि मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा अपना नाम वापस ले लेने के बाद डॉ पट्टाभि को चुनाव से पीछे न हटने की सलाह मैंने दी थी, इसलिए यह हार उनसे ज्यादा मेरी है।’

गांधी आगे लिखते हैं, ‘इस हार से मैं खुश हूं….सुभाष बाबू अब उन लोगों की कृपा के सहारे अध्यक्ष नहीं बने हैं जिन्हें अल्पमत गुट वाले लोग दक्षिणपंथी कहते हैं, बल्कि चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बने हैं। इससे वे अपने ही समान विचार वाली कार्य-समिति चुन सकते हैं और बिना किसी बाधा या अड़चन के अपना कार्यक्रम अमल में ला सकते हैं. …सुभाष बाबू देश के दुश्मन तो हैं नहीं। उन्होंने उसके लिए कष्ट सहन किए हैं। उनकी राय में उनका कार्यक्रम और उनकी नीति दोनों अत्यंत अग्रगामी हैं। अल्पमत के लोग उसकी सफलता ही चाहेंगे।

27 अप्रैल, 1947 को आजाद हिन्द फौज के लोगों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा था, ‘आजाद हिन्द फौज का नाम अहिंसक आजाद हिन्द फौज रखना चाहिए न? (हंसते-हंसते), क्योंकि मुझसे आप कोई दूसरी बात नहीं सुन सकेंगे। सुभाष बाबू तो मेरे पुत्र के समान थे। उनके और मेरे विचारों में भले ही अंतर रहा हो, लेकिन उनकी कार्यशक्ति और देशप्रेम के लिए मेरा सिर उनके सामने झुकता है।’

अब चलते-चलते हमें उस संदेश का एक हिस्सा भी सुन लेना चाहिए जो सुभाषचन्द्र बोस ने गांधीजी के जन्मदिन पर दो अक्तूबर, 1943 को बैंकाक रेडियो से प्रसारित किया था। उसमें नेताजी ने कहा था, ‘…मन की शून्यता के ऐसे ही क्षणों में महात्मा गांधी का उदय हुआ। वे लाये अपने साथ असहयोग का, सत्याग्रह का एक अभिनव, अनोखा तरीका। ऐसा लगा मानो उन्हें विधाता ने ही स्वतंत्रता का मार्ग दिखाने के लिए भेजा था। क्षण भर में, स्वतः ही सारा देश उनके साथ हो गया। हर भारतीय का चेहरा आत्मविश्वास और आशा की चमक से दमक गया। अंतिम विजय की आशा फिर सामने थी….आनेवाले बीस वर्षों तक महात्मा गांधी ने भारत की मुक्ति के लिए काम किया और उनके साथ काम किया भारत की जनता ने। ऐसा कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि 1920 में गांधीजी आगे नहीं आते तो शायद आज भी भारत वैसा ही असहाय बना रहता। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनकी सेवाएं अनन्य, अतुल्य रही हैं। कोई एक अकेला व्यक्ति उन परिस्थितियों में एक जीवन में उतना कुछ नहीं कर सकता था।’

ये विचार दो महानायकों के थे एक दूसरे के बारे में। अपने इतिहास पुरुषों के बारे में बोलने से पहले उनको पढ़ना बहुत जरूरी है। एक बार पुनः स्वतंत्रता के वीर सिपाही सुभाष चंद्र बोस को सादर नमन!

डॉ मनोज मीता के फेसबुक वॉल से


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