वित्तीय वर्ष 2022-23 के स्वास्थ्य बजट से इस क्षेत्र के जानकार आहत और आक्रोशित हैं। पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव के. सुजाता राव कहती हैं– “कोविड–19 के कारण 30 लाख लोगों की मृत्यु होने का अनुमान है जो किसी भी दृष्टि से अस्वीकार्य है।मौत का यह आँकड़ा कम हो सकता था, लोगों की अकल्पनीय पीड़ा में भी कमी लायी जा सकती थी यदि हमारा स्वास्थ्य तंत्र ठीक से काम कर रहा होता।” के. सुजाता राव ने कहा– “स्वास्थ्य क्षेत्र की जैसी उपेक्षा बजट में की गयी है उससे मैं हतप्रभ हूँ। 2021-22 का आर्थिक सर्वेक्षण कोविड–19 की छाया में लिखा गया है। पिछले दो वर्षों ने हमें अनेक जख्म दिए हैं। मुझे उम्मीद थी कि स्वास्थ्य पर भरपूर ध्यान दिया जाएगा किंतु बजट में देश के नाकाम स्वास्थ्य तंत्र में सुधार लाने का कोई प्रयास नहीं दिखता।”
एसएलजी हॉस्पिटल के कार्यपालक निर्देशक सोमा राजू ने कहा कि सरकार को आवश्यक रूप से स्वास्थ्यक्षेत्र में या तो स्वयं निवेश करना चाहिए अथवा निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए तभी हमअर्धशहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकेंगे।
इन्फेक्शन कंट्रोल अकादमी के अध्यक्ष रंगा रेड्डी बुर्री की राय में बजट में प्राइमरी हेल्थकेयर की उपेक्षा की गयी हैऔर इसके परिणामस्वरूप आनेवाले दिनों में लोगों पर वित्तीय भार पड़ेगा।
महामारी विशेषज्ञ चंद्रकांत लहरिया के अनुसार डेल्टा वैरिएंट की दूसरी लहर के दौरान देश बुरी तरह प्रभावित हुआ था। इस भयानक अनुभव के बाद वित्तमंत्री से स्वास्थ्य क्षेत्र को बड़ी आशाएँ थीं जो पूरी नहीं हुईं।
स्वास्थ्य बजट की चर्चा से पहले बजट–पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार द्वारा किये गए इस दावे का परीक्षण आवश्यक है कि स्वास्थ्य पर व्यय विगत दो वर्षों में बढ़कर जीडीपी का 2.1 फीसदी हो चुका है और सरकार 2025 तक इसे जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुँचाने के लिए प्रतिबद्ध है।
पिछले वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं से अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित उन सभी हिस्सों का समावेश स्वास्थ्य व्यय में कर दिया था जो स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन नहीं आते थे। स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में अलग से कोई इजाफा नहीं किया गया बल्कि पोषण, जल एवं स्वच्छता के व्यय को स्वास्थ्य व्यय में जोड़ देने के कारण ऐसा प्रतीत होने लगा कि स्वास्थ्य पर सरकार जमकर खर्च कर रही है। विगत वर्ष आयुष मिनिस्ट्री, डिपार्टमेंट ऑफ ड्रिंकिंग वॉटर एंड सैनिटेशन और कोरोना वैक्सीन पर होनेवाले खर्च को भी स्वास्थ्यके खर्चे में जोड़ा गया था। इस वर्ष भी सरकार के स्वास्थ्य बजट में 135 फीसद इजाफे के दावों को इन तथ्यों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए।
अनेक विशेषज्ञों का स्वास्थ्य सेवाओं के लिए वर्ष 2021-22 का वास्तविक स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 0.34 प्रतिशत था जो 2022-23 में 0.06 प्रतिशत की मामूली वृद्धि के बाद 0.40 प्रतिशत हो गया है। विगत वर्ष बजट में स्वास्थ्य की हिस्सेदारी 2.35 प्रतिशत थी जो अब घटकर 2.26 प्रतिशत रह गयी है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमान में स्वास्थ्य हेतु 85915 करोड़ रुपए का आबंटन था। वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट अनुमान में मामूली सी वृद्धि के साथ स्वास्थ्य के लिए 86,606 करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं। मुद्रास्फीति और जीडीपी के प्रभाव को समायोजित करने पर स्वास्थ्य बजट कम ही हुआ है।
स्वास्थ्य को बजट में प्राथमिकता देने के मामले में हम 189 देशों में 179वें स्थान पर हैं। स्वयं स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने सितंबर 2019 में लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के लिखित उत्तर में विश्व के कुछ प्रमुख देशोंके स्वास्थ्य व्यय संबंधी आँकड़े भी सदन के समक्ष रखे थे। इनके अनुसार वर्ष 2015-16 में अमेरिका ने स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का 17.43 फीसद, जापान ने 10.90 फीसद, फ्रांस ने 11.67 प्रतिशत एवं चीन ने 5.88 प्रतिशत व्यय किया।
सरकार ने वर्तमान बजट में कोविड संबंधी आबंटन में भारी कटौती की है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में कोविड विषयक व्यय 11940 करोड़ रुपए था। जबकि वित्तीय वर्ष 2021-22 हेतु संशोधित अनुमान 16545 करोड़रुपए था। वर्ष 2022-23 में कोविड विषयक गतिविधियों हेतु केवल 226 करोड़ रुपए का आबंटन है। कोविड की तीसरी लहर अभी खत्म नहीं हुई है। पहली और दूसरी लहर की विनाशकता और सरकारी प्रयासों की अपर्याप्तता को हम सबने देखा है। इन परिस्थितियों में सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि कोविड विषयक आबंटन में भारी कमी के पीछे उसका तर्क क्या है।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के विशेषज्ञ के.श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार ऐसा लगता है कि सरकार अपने बजट के जरिये यह संकेत दे रही है कि अब कोविड खतरनाक नहीं रहा। जन स्वास्थ्य अभियान के अमूल्य निधि, रवि दुग्गल तथा अमिताभ गुहा ने कोविड टीकाकरण के लिए आबंटन में भारी कटौती पर चिंता व्यक्त करते हुएयह आशंका व्यक्त की है कि इसके कारण शत–प्रतिशत आबादी के टीकाकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने मेंकठिनाई हो सकती है।
उल्लेखनीय है कि इस वर्ष कोविड टीकाकरण के लिए राज्यों को सहायता देने हेतु 5000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है जबकि वित्तीय वर्ष 2021-22 का संशोधित आकलन 39000 करोड़ रुपए का है। यहभारी कटौती आशंका उत्पन्न करती है कि क्या टीकाकरण में निजी क्षेत्र का प्रवेश होने वाला है?
वित्तीय वर्ष 2022-23 में चिकित्सा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सरकार का प्रस्तावित व्यय 2021-22 के संशोधित अनुमान की तुलना में 45 प्रतिशत कम है। वर्ष 2021-22 में चिकित्सा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य परव्यय 74820 करोड़ रुपए था जबकि वित्तीय वर्ष 2022-23 में चिकित्सा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य पर 41,011 करोड़ रुपए का व्यय प्रस्तावित है। एक बजट दस्तावेज के अनुसार यह कटौती कोविड टीकाकरण की घटती आवश्यकता के कारण की गयी है।
स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के बजट में केवल 3.9 प्रतिशत की वृद्धि की गयी है। यदि स्वास्थ्य बजट में स्वास्थ्य अनुसंधान की हिस्सेदारी की बात करें तो इसमें पिछले वर्षों की तुलना में मामूली गिरावट ही दिखाई देती है। वर्ष 2021-22 के बजट में संशोधित आकलन में स्वास्थ्य अनुसंधान के लिए 3080 करोड़ रुपए का प्रावधान थाजो वर्ष 2022-23 में 3300 करोड़ रुपए किया गया है। सम्पूर्ण कोविड महामारी के दौरान आईसीएमआर ने शोध और अन्वेषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी किंतु इसका आबंटन घटा दिया गया है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में आईसीएमआर के लिए आबंटन 2538 करोड़ रुपए था जिसे इस वित्तीय वर्ष में 17 प्रतिशत की कटौती के साथ 2198 करोड़ कर दिया गया है।
के. सुजाता राव के अनुसार भारत की कोविड–19 से निपटने में नाकामी का एक बड़ा कारण उपयुक्त अनुसंधान केंद्रों का अभाव था जिसके कारण सही समय पर डाटा और प्रमाण उपलब्ध नहीं कराए जा सके और निर्णय लेने में देरी हुई। अगर हमें बीएसएल थ्री लैबों की श्रृंखला तैयार करनी है तो इसके लिए बहुत धन आवश्यक होगा।
ऐसा लगता है कि सरकार कोविड–19 को समाप्त मान रही है तभी उसे नए वैरिएंट्स के लिए नए टीकों और नयी औषधियों की खोज के लिए खर्च करना अनावश्यक लग रहा है। हम कोविड–19 से मुकाबले के लिए विश्व के अन्य सभी देशों की भाँति एलोपैथिक चिकित्सा का आश्रय ले रहे हैं। स्वास्थ्य मामलों के जानकार इस बात पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं कि कोविड–19 के इस दौर में पारंपरिक और प्राकृतिक तथा वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के लिए आयुष के बजट में 14.5 प्रतिशत का इजाफा किया गया है।
नेशनल हेल्थ मिशन के बजट में 1.8 प्रतिशत की मामूली वृद्धि की गयी है और वर्ष 2021-22 के 37130 करोड़की तुलना में यह 2022-23 में 37800 करोड़ रुपए है। यदि मुद्रास्फीति और जीडीपी को ध्यान में रखा जाए तोयह बजट असल में घटा है, न कि इसमें वृद्धि हुई है। पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया के विशेषज्ञों के अनुसार नेशनल हेल्थ मिशन के बजट में कमी का सीधा प्रभाव राज्यों के स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए फण्ड की कमी केरूप में देखने में आता है।
विकसित राज्यों के पास तो स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए अपने संसाधन होते हैं किंतु केंद्र की सहायता पर आश्रित पिछड़े राज्यों के लिए एनएचएम के आबंटन में कटौती परेशानी का सबब बनती है। एनएचएम 2005 से भारतसरकार का प्रमुख और सफलतम स्वास्थ्य कार्यक्रम रहा है तथा स्वास्थ्य मानकों पर भारत के प्रदर्शन में सुधारहेतु इसे श्रेय दिया जाता है, आश्चर्यजनक है कि यह कार्यक्रम सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है।
कोविड–19 के दौरान संसाधनों को कोविड से मुकाबला करने के लिए पूरी तरह झोंक दिया गया था जिसके कारण शिशु टीकाकरण, प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं, टीबी, एचआईवी तथा अन्य रोग नियंत्रण कार्यक्रम बहुत बुरीतरह बाधित हुए थे। इनके लिए अलग से बढ़े हुए बजट प्रावधानों की आवश्यकता थी।
जन स्वास्थ्य अभियान के विशेषज्ञों के अनुसार एनएचएम का घटता बजट प्रजनन और बाल स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर विपरीत प्रभाव डालेगा।
जन स्वास्थ्य अभियान का मानना है कि सरकार ने बजट में पारदर्शिता नहीं बरती है। वित्तीय वर्ष 2015-16 सेपूर्व एनएचएम की वित्तीय प्रबंधन रिपोर्ट सार्वजनिक की जाती थी जिसमें विभिन्न शीर्षों और उप शीर्षों काविस्तृत ब्योरा दिया जाता था। किंतु अब ऐसा नहीं होता। इसी प्रकार पीएम केअर फण्ड की गैर–पारदर्शिता कोलेकर सवाल उठते रहे हैं जो अनुत्तरित ही हैं।
सरकार पोषण और मातृत्व संबंधी योजनाओं को लेकर गंभीर नहीं दिखती। सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0के लिए वित्तीय वर्ष 2022-23 में 20263 करोड़ रुपए का बजट अनुमान है जो 2021-22 के 20105 करोड़ रुपएसे जरा ही अधिक है। सरकार के अनुसार सक्षम आँगनबाड़ी केंद्र उन्नत संसाधनों और तकनीकी से लैस होंगे किंतु सरकार की इनके डिजिटलीकरण संबंधी योजनाओं के विपरीत पिछड़े ग्रामीण इलाकों की स्याह हकीकतयह है कि आँगनबाड़ी केंद्रों में पानी, शौचालय और अन्य मूलभूत अधोसंरचना का भी अभाव है। अनेक विशेषज्ञों के अनुसार यदि बजट यथावत रखा गया है तब वेतन और पेंशन में बढ़ोतरी का परिणाम पोषण योजनाओं के लिए घटते आबंटन के रूप में दिखेगा।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण–5 (2019-21) के आँकड़े दर्शाते हैं कि 15 से 49 वर्ष आयुवर्ग की 57 प्रतिशत महिलाएँ एनीमिया की शिकार हैं जबकि खून की कमी से जूझ रहे बच्चों का प्रतिशत 67.1 है। एनएफएचएस–4 में एनीमियाग्रस्त महिलाओं का प्रतिशत 53.1 और बच्चों का 58.6 था। किंतु बजट में इस भयावह स्थिति सेनिपटने की कोई कार्य–योजना नहीं दिखती।
मध्याह्न भोजन कार्यक्रम अर्थात प्रधानमंत्री पोषणशक्ति निर्माण के बजट में 11 प्रतिशत की कटौती की गयी हैऔर अब यह 2021-22 के 11500 करोड़ रुपए से घटकर 10233.75 करोड़ रुपए रह गया है। कोविड–19 केकारण मध्याह्न भोजन कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो गया है। चर्चा तो यह हो रही थी कि इसमें सुबह का नाश्ता भीशामिल किया जाए। 5000 करोड़ का अतिरिक्त बजट अपेक्षित था। किंतु सरकार ने उलटे कटौती कर दी।क्या सरकार यह जान रही है कि इस वर्ष भी स्कूल कोविड–19 के कारण बंद रहेंगे? यदि सरकार कोविड–19 की उपस्थिति को स्वीकार रही है तब कोविड प्रबंधन और टीकाकरण का बजट क्यों घटाया गया है?
अनेक विशेषज्ञों ने यह रेखांकित किया है कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना कोविड काल में निर्धनों और वंचित समुदायों को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराने में नाकाम रही। वर्ष 2021-22 में इसके लिए आबंटन 6400 करोड़ रुपए था किंतु केवल 3199 करोड़ रुपए ही उपयोग में लाए गए। इसके बावजूद वित्तीय वर्ष 2022-23 में इसकेलिए 6412 करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि फरवरी 2020 तक प्रधानमंत्री जनआरोग्य योजना के 75 प्रतिशत भुगतान निजी क्षेत्र को हुए थे।
वर्ष 2022 के बजट में चिकित्सकीय उपकरण निर्माण क्षेत्र के स्थानीय निर्माताओं को बढ़ावा देने के लिए रणनीति का पूर्ण अभाव है, परिणामतः इनमें भारी असंतोष है। कोविड–19 के दौर में जब आयात बंद था तब इन्हीं स्थानीय चिकित्सा उपकरण निर्माताओं पर कोविड संबंधी उपकरणों और सामग्री के लिए सरकार पूरीतरह निर्भर थी।
कोविड–19 के प्रारंभिक दौर में सरकार इन निर्माताओं पर आत्मनिर्भर बनने के लिए जोर लगा रही थी किंतु भारतीय चिकित्सा उपकरण निर्माण उद्योग की प्रमुख माँगों पर इस बजट में कोई ध्यान नहीं दिया गयाहै। इन निर्माताओं की टैरिफ पालिसी, कस्टम ड्यूटी और जीएसटी में परिवर्तन तथा रिसर्च एवं डेवलपमेंट केलिए करों में छूट की माँग को सरकार ने नजरअंदाज कर दिया है।
सरकार डिजिटल हेल्थ मिशन के माध्यम से प्रत्येक नागरिक को एक यूनिक हेल्थ आईडी प्रदान करने के लिएआतुर है और इसीलिए इसके बजट में भारी वृद्धि कर इसे 2021-22 के 75 करोड़ से बढ़ाकर 2022-23 में 200 करोड़ कर दिया गया है। किंतु डाटा सुरक्षा को लेकर चिंताएँ जाहिर की गयी हैं तथा इस डाटा का दुरुपयोग निजी कंपनियों द्वारा किए जाने की आशंकाएँ भी व्यक्त की गयी हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि कोविड-19 के भयंकर दौर से सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है बल्कि वह तो अपनी पीठ खुद थपथपाने में लगी हुई है।
– राजू पाण्डेय