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नीर-क्षीर विवेकी : न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना

by Rajendra Rajan
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— इकबाल ए अंसारी —

पातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी की सरकार ने व्यक्ति की बुनियादी आजादी के अधिकार को छीन लिया था तो न्याय-व्यवस्था के गलियारे में विरोध की सिर्फ एक ही आवाज सुनायी दी थी। यह आवाज जस्टिस हंसराज खन्ना की थी। 28 अप्रैल 1976 को बंदी प्रत्यक्षीकरण के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला सुनाया था कि आपातकाल की अवधि के दौरान नागरिक जीवन के अधिकार की मांग नहीं कर सकते। जस्टिस खन्ना ने इसपर कड़ा सैद्धांतिक रुख अपनाते हुए कहा था कि कोई भी सत्ता कानून के शासन की जगह नहीं ले सकती।

उन दिनों इंदिरा गांधी अपने राजनैतिक विरोधियों से निपटने के लिए उन्हें बिना किसी सुनवाई के जेलों में ठूंस रही थीं। हां, साहिबे आलम, हां के उस शोर में न्यायमूर्ति हसंराज खन्ना ने विरोध की अकेली आवाज बुलंद की थी। जस्टिस खन्ना की इस नैतिक दृढ़ता का सम्मान करते हुए 30 अप्रैल 1976 के न्यूयार्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा था कि भारत में व्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जस्टिस खन्ना का योगदान हमेशा अमिट रहेगा।

न्यायमूर्ति खन्ना मौलिक अधिकारों व न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सजग प्रहरी थे। केशवानंद भारती मामले (1973) में भी उन्होंने स्पष्ट मत रखा था कि संविधान की बुनियादी संरचना के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। खन्ना स्त्रियों के आर्थिक अधिकारों के भी प्रबल पक्षधर थे। मुझे याद है कि एक सेमिनार के दौरान मैंने यह प्रस्ताव रखा था कि तलाक की स्थिति में औरतों के लिए बीमे की व्यवस्था होनी चाहिए। सेमिनार में आए एक अन्य वक्ता ताहिर महमूद इस प्रस्ताव को लेकर नाखुश दिखायी दे रहे थे। उन्हें लगता था कि इससे विवाह की समूची संस्था खरीद-फरोख्त की चीज बनकर रह जाएगी। मैं सेमिनार में अकेला पड़ गया था। लेकिन मुझे यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि न्यायमूर्ति खन्ना ने न केवल मेरे प्रस्ताव का समर्थन किया बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि यह प्रस्ताव राष्ट्रीय महिला आयोग को भेजा जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति खन्ना अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों को लेकर भी इतने ही प्रतिबद्ध थे। यह तथ्य बहुत कम लोग जानते हैं कि कि 1980 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के आग्रह पर श्री खन्ना ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा में मारे जानेवाले लोगों को मुआवजा दिए जाने की वकालत की थी। उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि दुनिया के कई देशों जैसे इंग्लैंड, अमरीका, न्यूजीलैंड, कनाडा व आस्ट्रेलिया आदि में इसके लिए बाकायदा व्यवस्था की गयी है। अफसोस की बात है कि जस्टिस मलिमथ समिति की अनुशंसाओं के बावजूद सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। अल्पसंख्यक समुदाय के तमाम मंच भी इस मामले में चुप्पी लगाये बैठे हैं।

न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना ने एक भरी-पूरी जिंदगी बिताकर 25 फरवरी 2008 को जब आखिरी सांस ली तो वह 95 वर्ष के हो चले थे। जाहिर है उन्होंने एक भरी-पूरी जिंदगी बितायी। लेकिन एक जनप्रतिबद्ध व्यक्तित्व का परिचय उम्र के हवाले से देना नाकाफी होगा। न्यायमूर्ति खन्ना के बारे में यह बात विशेष रूप से लागू होती है। जब वे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश थे, अगर आपातकाल का विरोध न करते तो उनका पद भी बना रहता और भविष्य के लिए पता नहीं कितने दरवाजे खुल जाते। पर उन्होंने नैतिक दृढ़ता का रास्ता और जनता का पक्ष चुना। संवैधानिक सत्ता उनके लिए सुख का साधन नहीं बल्कि आम नागरिक की गरिमा और मूलभूत अधिकारों की पहरेदारी थी।

न्यायमूर्ति खन्ना को याद करना एक ऐसे व्यक्ति को याद करना है जिसने सार्वजनिक हितों और नागरिक आजादी के लिए कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने हमेशा जनता और लोकतंत्र का पक्ष चुना। वे मनुष्यता के बुनियादी मूल्यों और मानवाधिकारों की ऐसी लौ थे जो झंझावातों में भी निष्कंप जलती रही।

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