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बीमार हेल्थ सिस्टम में विकराल होता कोरोना

by Rajendra Rajan
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— कश्मीर उप्पल —

कोरोना-संकट के समय व्यक्तियों की इम्युनिटी अर्थात शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की जांच की जा रही है। यह प्रतिरक्षा-प्रणाली शरीर में आनेवाले हर संक्रमण से लड़ती है। लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने से संक्रामक बीमारियों से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। इसीलिए लोगों को संतुलित भोजन लेने की सलाह दी जाती है। इस संतुलित भोजन में सभी विटामिन, खनिज और पोषक तत्त्व होते हैं।

पर क्या हमने कभी यह भी सोचा है कि हमारे देश की स्वास्थ्य-व्यवस्था स्वयं में कितनी स्वस्थ और संतुलित है? किसी भी परिवार की तरह सरकार को भी अपने विभागों की समुचित वित्त व्यवस्था करनी होती है। सरकारें भी अपने विविध खर्चों के लिए लोगों द्वारा टैक्स के रूप में दिए धन से बजट बनाती हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत-देश के परिवार के सदस्यों की संख्या एक सौ छत्तीस करोड़ है।

किसी देश का बजट किसी परिवार की तरह ही बनता है। इस समय हमारी केंद्रीय सरकार स्वास्थ्य पर 0.8 प्रतिशत खर्च कर रही है अर्थात सरकार की कमाई 1 रुपया है तो स्वास्थ्य के मद में खर्च हो रहा है मात्र 8 पैसे। इस वर्ष 2020-21 का प्रोजेक्टेट बजट 1.8 फीसद रखा गया है। प्रोजेक्टेट का अर्थ है अभी करने का प्रस्ताव है। बहुत ही चालाकी से स्वच्छ पेयजल और सफाई के बजट को स्वास्थ्य-बजट में मिलाकर इसकी राशि बढ़ी हुई दिखा दी गई है।

बहुत-से गरीब या पिछड़े देशों में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मदों में सरकारी आवंटन काफी कम रहने की एक बड़ी वजह यह है कि वे डिफेंस पर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं। यानी भारी-भरकम डिफेंस-खर्च की खातिर जन-कल्याण के लिए जरूरी आवंटन की बलि चढ़ा दी जाती है। यह विश्वास किया जाता है कि विकासशील देशों में डिफेंस का बजट इसलिए अधिक रखा जाता है क्योंकि विदेशों से डिफेंस-सामान की खरीदारी में शासक वर्ग को बड़ी मात्रा में रिश्वत या कमीशन का धन मिलता है जो चुनावों में भी काम आता है।

इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का पंद्रह प्रतिशत डिफेंस पर खर्च करता है। ‘स्ट्रैटेजिक फोरसाइट ग्रुप’ के एक अध्ययन के अनुसार, करगिल जैसे छोटे युद्ध पर भारत सरकार को 40 बिलियन रुपए खर्च करने पड़े थे। इस युद्ध के लिए भारत सरकार को सीमाओं पर सात लाख सैनिकों को तैनात करना पड़ा था। इस खर्च को पूरा करने के लिए देश के करदाताओं को पांच प्रतिशत अतिरिक्त डिफेंस सरचार्ज देना पड़ा था।

इससे यह महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि यदि हमारे पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध हों तो डिफेंस पर खर्च की जानेवाली राशि को घटाकर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों का बजट बढ़ाया जा सकता है। इस तरह स्वास्थ्य का क्षेत्र विदेश नीति से जुड़ा हुआ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है। एक अध्ययन के अनुसार, जिन देशों में सीमाओं पर शांति रहती है उन देशों में जन-कल्याण के बजट अधिक राशि के पाये जाते हैं।  

आसियान देशों के स्वास्थ्य-बजट का औसत 7.6 फीसद है। अमरीका और ब्रिटेन में हेल्थ बजट 12 से 14 फीसद है। इन देशों में स्वास्थ्य के मद में पूरा खर्च सरकारों द्वारा उठाया जाता है। अमरीका और ब्रिटेन ही क्यों, विश्व के कई देशों में नागरिकों की चिकित्सा पर होनेवाला पूरा खर्च सरकारें उठाती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में अपना इलाज कराने के लिए आम लोगों को इलाज-खर्ज का 62 फीसद अपनी जेब से देना पड़ता है। जबकि पूरे विश्व के अन्य देशों में आम लोगों को इलाज का 18 फीसद ही खुद वहन करना होता है। स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में दुनिया में नागरिकों पर सबसे ज्यादा बोझ भारत में है।

भारत की चिकित्सा व्यवस्था निहायत अपर्याप्त आवंटन का ही नहीं, कई तरह के गहरे असंतुलन का भी शिकार है। भारत में 58 फीसद अस्पताल और 80 फीसद डॉक्टर शहरों में हैं। जबकि देश की 136 करोड़ जनसंख्या का 65 फीसद हिस्सा गांवों में रहता हैभारत के गांवों में कोरोना के समय क्या हो रहा है? यह इससे भी स्पष्ट होता है कि भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी क्षेत्र का विनियोग 85 फीसद और सरकारी विनियोग 15 फीसद है अर्थात प्राइवेट क्षेत्र के अस्पताल बड़े शहरों में हैं, अब गांव में न सरकारी और न ही प्राइवेट अस्पताल हैं। मेडिकल शिक्षा में 1960 में 93 प्रतिशत सरकारी संस्थान थे जो अब घटकर 18 प्रतिशत बचे हैं। इंग्लैंड और अमरीका में पब्लिक हेल्थ केयर में सरकार का हिस्सा 80 से 85 फीसद तक है।

भारत में 562 मेडिकल कॉलेज हैं जो दुनिया में किसी एक देश में सबसे अधिक हैं। इसके साथ ही बने-बनाए डॉक्टर निर्यात करनेवाला देश भी भारत ही है। सरकारी अनुदान से चल रहे मेडिकल कॉलेजों से निकले डॉक्टर विदेशों में या बड़े शहरों में रहते हैं। गांवों में अच्छे अस्पताल क्यों नहीं हैं? डॉक्टर क्यों गांव में रहना नहीं चाहते हैं?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार हर देश में प्रति एक हजार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन भारत में 1445 लोगों पर एक डॉक्टर है। भारत में मरीजों के हिसाब से नर्सें भी बहुत कम हैं। माइक्रोबायोलॉजिस्ट नहीं हैं जो खून, पेशाब और अन्य जांच कर सकें। मरीजों के लिए केयर-टेकर नहीं हैं। भारत में खून के सैंपल इसलिए खराब हो जाते हैं कि दूर भेजे जाते हैं जांच के लिए। इसलिए मरीजों की मृत्यु दर अधिक होती है। पूरे देश के अस्पतालों में बेड (बिस्तरों) की संख्या बढ़ाने पर बहुत जोर दिया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि अस्पतालों में बेड खाली पड़े हैं यह कोरोना का प्रकोप घटने का विषय नहीं समझना चाहिए। याद रखना होगा कि इलाज बिस्तर पर डॉक्टर करते हैं। डॉक्टर को इलाज के लिए संपूर्ण हेल्थ मशीनरी चाहिए जिसका हमारे देश में बेहद अभाव है। इस कोरोना संकट ने हमें यह सिखाया है कि सांप्रदायिक राजनीति से समाज तथा देश की व्यवस्था कितनी खोखली और अंधेरी हो जाती है। हमारे देश में सरकार की अनिच्छा को हरि-इच्छा कहा जा रहा है।

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