असम में असंतोष क्या गुल खिलायेगा 

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– अपूर्व कुमार बरुआ –

सम में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के चलते राज्य के विभिन्न समुदायों के बीच दरारें उभर कर सतह पर आ गई हैं। ये दरारें पहले के मुकाबले और भी साफ नजर आती हैं। सभी प्रमुख समुदायों के प्रभावशाली शिक्षित मध्यवर्ग के एक हिस्से में भाषाई पहचान की जो तीव्र आकांक्षा रहती है वह कभी-कभी सामुदायिक टकराव की शक्ल अख्तियार कर लेती है, जो कि धार्मिक विविधता से उपजे टकरावों से कहीं ज्यादा गंभीर हो जा सकती है। असम में मुसलिम आबादी 33 फीसद है और शंकर देव प्रवर्तित महापुरुषिया वैष्णव परंपरा को मानने वाले हिंदुओं की एक बड़ी संख्या है जो मूर्ति पूजा में नहीं मानती और इस तरह अपने को ब्राह्मणवादी वैष्णव परंपरा से अलग करके देखती है। इन दोनों कारकों के चलते यह होना नहीं चाहिए था कि हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति, जो हिंदू-हिंदी के उग्र राष्ट्रवाद में यकीन करती है, आसानी से राज्य पर काबिज हो जाए। इसलिए सवाल उठता है कि फिर बीजेपी के बार-बार चुनाव जीत जाने की क्या वजह है?
कांग्रेस का भ्रष्ट और निकम्मा राज इसकी वजह बना, जिसे मुख्यमंत्री की कुर्सी की हसरत पाले हिमंता विस्व शर्मा ने कांग्रेस में टूट पैदा करके उसे सत्ता से बाहर कर दिया। हिमंता लुइस बर्गर और शारदा घपले जैसे भ्रष्टाचार के कई मामलों में आरोपी हैं। हिमंता के जरिये कांग्रेस में हुई टूट और शेष भारत में मोदी के उभार ने राज्य की सत्ता में बीजेपी के आने का रास्ता साफ किया, जिसके बाद बीजेपी, कांग्रेस के नेताओं को अपने पाले में लाने की हर तरह की तिकड़म करती रही है। हाल में कांग्रेस के कई पूर्व मंत्री बीजेपी में शामिल हुए हैं और उन्हें टिकट भी दिया गया है। लेकिन बीजेपी के इस कदम ने पार्टी के भीतर अंसतोष को जन्म दिया है। कुछ सीटों पर बीजेपी के बागी उम्मीदवार निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं जो खुद को पार्टी के टिकट का दावेदर मानते थे।
इससे कांग्रेस की उम्मीद जगी है जिसने एआईयूडीएफ से गठबंधन कर रखा है। एआईयूडीएफ का राज्य के आप्रवासी मुसलिम बहुल क्षेत्रों में खासा जनाधार है। पत्रकार से राजनेता बने अजित कुमार भुइयां सीएए विरोधी आंदोलन से बनी जमीन पर काफी पकड़ रखते हैं। वह भाजपा-विरोधी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर राज्यसभा में जाने में सफल हो गए। वह कुछ क्षेत्रवादी निर्दलीय लोगों को लेकर महाजोट बनाने में सफल हो गए जिसने जनजातीय आधार वाले कई दलों को आकृष्ट किया। भाजपा-विरोधी मुहिम ने जोर पकड़ा है, इससे चिंतित होकर भाजपा ने कई निर्वाचन क्षेत्रों में अंधाधुंध प्रचार अभियान चला रखा है और मोदी, अमित शाह तथा स्मृति ईरानी जैसे स्टार प्रचारकों को मैदान में उतार दिया है।
लगभग एक दशक से भारतीय जनता पार्टी एकांगी ‘हिंदू भारत’ बनाने के लिए आक्रामक तरीके से प्रयासरत रही है। असमिया आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करनेवाली राजनीतिक शक्तियों और असम के अन्य छोटे समूहों को हजम कर जाने की उसकी कोशिशों की प्रतिक्रिया में क्षेत्रीय राजनीति को नए सिरे से उभार मिला है। असमिया पहचान वाली असम गण परिषद (एजीपी) और बोडो पहचान वाली बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) का अहमियत घटाने में बीजेपी सफल हो गई और अनेक दागदार आदिवासी नेताओं को उसने पाले में कर लिया। हालांकि असमिया लोगों में मजबूत पैठ रखनेवाली दो नई पार्टियों का चुनाव से पहले उदय हुआ है। ये दोनों पार्टियां सिविल सोसायटी के आंदोलनों की उपज हैं।
असम जातीय परिषद (एजेपी) गैर-दलीय छात्र आंदोलन आसू (एएएसयू) की देन है जिसने सीएए के खिलाफ जोरदार और लंबी लड़ाई लड़ी है, और रैजोर दल (आरडी), कृषक मुक्ति संग्राम समिति की उपज है जिसके नेता अखिल गोगोई हैं, यह संगठन भी असम में सीएए विरोधी संघर्ष में आगे-आगे रहा है। अखिल गोगोई सीएए विरोधी आंदोलन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नेताओं में एक हैं और भूमिहीन किसानों के हक में तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्होंने जोरदार अभियान चलाया है। वह माओवादी होने और सीएए विरोधी आंदोलन में हिंसा भड़काने के आरोपों में पिछले पंद्रह महीनों से जेल में बंद हैं। बावजूद इसके कि उनपर लगाए गए आरोपों के सिलसिले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी एक भी पुख्ता सबूत पेश नहीं कर पाई, उन्हें जमानत नहीं मिल पाई है। राज्य में उनके प्रति लोगों में काफी सहानुभूति है। अलबत्ता वह जेल में होने के कारण अपने युवा समर्थकों और राजनीतिक रूप से कच्चे अनुयायियों को यह समझा पाने में ज्यादा सफल नहीं हो पाए हैं कि सांप्रदायिक और फासिस्ट बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस तथा महाजोट क्यों कम खतरनाक हैं।
प्रभावशाली बुद्धिजीवी हीरेन गोहेन रैजोर दल के सलाहकार थे, पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। रैजोर दल ने एजेपी के साथ गठबंधन का फैसला किया है। स्वतंत्र रूप से सोचने वाले बहुत से लोगों को शक है कि एजेपी, बीजेपी की बी टीम है और बीजेपी-विरोधी वोटों को बांटने के इरादे से काम कर रही है। दोनों नए दलों ने सीमित संख्या में उम्मीदवार उतारे हैं, सो उन्हें मुख्य खिलाड़ियों के रूप में नहीं देखा जा रहा। लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में इस बात की काफी संभावना रहेगी कि ये दोनों पार्टियां किंग मेकर की भूमिका में आ जाएं।
अखिल गोगोई ने पिछले दिनों विपक्ष से एक होने की अपील की है। वह अपनी पार्टी को इस बात के लिए मनाने की भी कोशिश कर रहे हैं कि ऐसी सीटों पर उम्मीदवार न उतारा जाए जहां अपना उम्मीदवार केवल भाजपा विरोधी वोटों को बांटने के अलावा कुछ न कर सके और इससे भाजपा तथा असम गण परिषद जैसे उसके मित्रों को ही लाभ हो। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि ऐसी अपील जारी करने में उन्होंने बहुत देर कर दी। पहले ही नुकसान हो चुका है। कांग्रेस और आर.डी. बहुत-सी सीटों पर लड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि एजेपी, बीजेपी को जिताने में मदद कर रही है। लेकिन सत्ता विरोधी रुझान के कारण बीजेपी बहुमत के आंकड़े से दूर रह जा सकती है। वैसी सूरत में एजेपी हो सकता है बीजेपी का उद्धार न कर पाए, क्योंकि राज्य में बीजेपी विरोधी भावना जोर पकड़ रही है।
भाजपा को लोग अब भ्रष्ट, प्रतिशोधी, सांप्रदायिक और जनजातीय विरोधी पार्टी के रूप में देखते हैं। सीएए विरोधी भावना अब भी कायम है। अधिकतर जनजातीय लोग यह मानने लगे हैं कि उनकी अस्मिता को वास्तव में खतरा है। इसके अलावा महंगाई, अर्थव्यवस्था की बदहाली जैसे कारक भी हैं। लिहाजा, मुससमानों का भय दिखाने और अंधाधुंध प्रचार अभियान भी भाजपा की बहुत मदद नहीं कर सकते। राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस क्षेत्रीय तथा जनजातीय भावनाएं भुनाने की कोशिश कर रही है। यह चुनाव संघीय ढांचे को बचाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने की खातिर क्षेत्रीय दलों को तैयार करने में मददगार साबित हो सकता है। छोटे जनजातीय समुदाय हिंदुत्व की सांप्रदायिक जकड़न से मुक्ति और पुनर्जीवन चाहते हैं।

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