योगेन्द्र यादव
लोहिया ने अपने-आपको ‘कुजात गांधीवादी’ कहा था। इस बहाने ‘सरकारी’ और ‘मठी’ गांधीवादियों की तीखी आलोचना की थी। साथ-ही-साथ गांधीजी से अपने अनूठे रिश्ते को परिभाषित किया था। न अंधश्रद्धा, न तिरस्कार। उनके प्रति एक गुरु जैसा सम्मान-भाव, लेकिन उनके चेलों की बिरादरी में शामिल होने से साफ इनकार। एक दूसरे खेमे में होते हुए भी गांधीजी के जीवन और दर्शन से जुड़कर अपने-आपको गांधीवादी कहने का साहस, लेकिन क्या ग्रहण करना है और क्या नहीं, इसमें स्व-विवेक की जिद। अपने-आपको लोहियावादी कहनेवाले लोग अकसर उपर्युक्त जुमले का प्रयोग करते हैं। लेकिन वे शायद ही लोहिया के इस विचार का भावार्थ समझने की कोशिश करते हैं। वैचारिक तौर पर कुजात लोगों की बिरादरी में शामिल होने की जिम्मेवारियों का अहसास लोहिया के बहुत कम अनुयायियों में दिखाई पड़ता है।
आमतौर पर लोहियावादी जमात में लोहिया का गुणगान ठीक उसी स्तुति-भजन की परंपरा में होता है जिससे स्वयं लोहिया ने परहेज किया। लोहिया के प्रति अंधभक्ति, ‘डॉक्टर साहब’ की किसी भी आलोचना के प्रति असहिष्णुता, उनके विचारों के भावार्थ की बजाय शब्दों और जुमलों से लगाव आदि लोहियावादियों के दिन-ब-दिन सिकुड़ते संप्रदाय की निशानियाँ हैं। यह केवल लोहियावादियों का चारित्रिक दोष नहीं है। चाहे गांधीवादी हों या मार्क्सवादी, सभी स्थापित ‘वादों’ के अनुयायी कमोबेश इसी परंपरा का पालन करते हैं। समाजवादियों में यह दोष लोहिया के अनुयायियों में अधिक रहा है, जयप्रकाश या नरेंद्रदेव को माननेवालों में अपेक्षाकृत कम। जो भी हो, लोहिया का संप्रदाय या ‘कल्ट’ बनने का सबसे अधिक नुकसान स्वयं लोहिया-विचार को हुआ है।
आज लोहिया को या तो भुला दिया गया है या फिर उन बातों के लिए याद किया जाता है जो लोहिया की राजनीति और विचार का मर्म नहीं हैं। अकसर लोहिया को महज नेहरू खानदान के आलोचक और कांग्रेस-विरोधी राजनेता के रूप में पेश किया जाता है। लोहिया की यह छवि समाजवादी आंदोलन के उन भग्नावशेषों को बहुत सुहाती है जो आज भाजपा की गोदी में बैठकर सत्ता का खेल खेल रहे हैं। ‘गैर-कांग्रेसवाद’ की अल्पकालिक रणनीति को राजनैतिक दर्शन का स्वरूप देकर ये ‘समाजवादी’ अपने पाप पर परदा डालने की कोशिश करते हैं। मुख्यधारा की राजनीति के बाहर खड़े लोहियावादी इस पाप के भागीदार तो नहीं हैं, लेकिन वे भी लोहिया की छवि के साथ न्याय नहीं करते। लोहिया के जीवन की घटनाओं और विचारों की आड़ लेकर अकसर सांगठनिक मर्यादा के उल्लंघन, कोरी लफ्फाजी और व्यक्तिगत सनक को वैचारिक जामा पहनाने की कोशिश होती है। जाहिर है, लोहिया के विचारों और उनकी राजनीति की सीधी जानकारी न रखनेवाला व्यक्ति उनके बारे में अच्छी छवि नहीं बना पाता।
एक ओर लोहियावादियों के संप्रदाय को लोहिया के बाहर कुछ नजर नहीं आता, तो दूसरी ओर बाकी समाज को लोहिया में कुछ नजर नहीं आता। पिछले एक दशक में दलित चेतना और दलित राजनीति के उभार के चलते डॉ. आंबेडकर के राजनैतिक दर्शन में दिलचस्पी बढ़ी है। आज से दस साल पहले अंग्रेजीदाँ बुद्धिजीवी आंबेडकर के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते थे। आज अपने-आपको प्रगतिशील दिखाने के लिए हर कोई आंबेडकर का हवाला देने को उतावला दिखाई देता है। लेकिन डॉ. लोहिया के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। मंडल आयोग विवाद के बाद कुछ समय के लिए लोहिया में दिलचस्पी बढ़ी थी। लेकिन यह बहुत दिन नहीं टिकी। मजे की बात यह है कि पिछले दस-बीस सालों में बुद्धिजीवी जगत उन अनेक मुद्दों पर सजग हुआ है जिनकी ओर पहली बार लोहिया ने ही ध्यान खींचा था। राजनीति में महिलाओं और पिछड़ों की भूमिका का सवाल एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। समाज परिवर्तन में केवल आर्थिक कारकों की माला जपने के बाद अब सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की बात भी की जाने लगी है। विश्व इतिहास लेखन और समाज विज्ञान ने सारी दुनिया को सिर्फ यूरोप की निगाह से देखा है, यह बात भी स्वीकार की जाने लगी है। सोवियत संघ के विघटन के बाद उसके अवशेषों का पश्चिमी सभ्यता में शामिल होना सीधे-सीधे लोहिया के सिद्धांत की पुष्टि करता है। लेकिन इस सब के बावजूद आज बौद्धिक जगत में लोहिया की कोई जगह नहीं है। एक औसत बुद्धिजीवी अगर लोहिया का नाम जानता है तो लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह के जनक के रूप में। पिछले ही साल एक प्रतिष्ठित और प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका में लोहिया के विरुद्ध निराधार और निहायत ऊलजलूल आरोपों से भरा एक लेख छपा था। लेखक का दुराग्रह तो था ही, यह पूरे बौद्धिक जगत के अज्ञान का भी नमूना था। राजनीति में भी लोहिया के नामलेवा अब इक्के-दुक्के ही बचे हैं।
इस विस्मृति के लिए हमारा बौद्धिक-राजनैतिक जगत तो जिम्मेवार है ही, लेकिन उसके साथ कहीं-न-कहीं लोहियावादी भी जिम्मेवार हैं। आज भी लोहियावादी खुद लोहिया की तर्ज पर ‘कुजात गांधीवादी’ होने की बात तो दोहराते हैं लेकिन उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जो कुजात लोहियावादी होने का साहस रखता हो। लोहिया का मानना था कि ‘सरकारी’ और ‘मठी’ गांधीवादी मिलकर गांधी-विचार का सत्यानाश कर देंगे, उसकी तमाम क्रांतिकारी संभावनाओं को खत्म कर देंगे। इसलिए अगर आनेवाली पीढ़ियों के लिए गांधी-विचार और उसकी राजनीति को बचाना है, तो यह काम सिर्फ ‘कुजात गांधीवादी’ ही कर सकते हैं। आज लोहिया के बारे में भी वैसा ही कुछ कहा जा सकता है। भले ही लोहिया के नाम पर बहुत मठ नहीं बने हैं और सरकारी लोहियावादियों की संख्या गिनी-चुनी ही है, फिर भी भविष्य में लोहिया-विचार को लोहियावादियों से कुछ उसी तरह का खतरा है जैसा कि गांधी-विचार को स्थापित गांधीवादियों से रहा है। कुजात लोहियावादी ही इक्कीसवीं सदी में लोहिया-विचार को जिंदा रख सकते हैं।
इक्कीसवीं सदी के कुजात लोहियावादियों को लोहिया के साथ वही करना है जो लोहिया ने अपने वैचारिक पूर्वजों के साथ किया था। लोहिया ने मार्क्स से भी सीखा और गांधीजी से भी, लेकिन अपनी आलोचना में न मार्क्स को बख्शा न गांधीजी को। सीखने और अंधभक्ति में यही फर्क है। अंधभक्त स्वयं सोचना बंद कर देता है, अपना विवेक किसी दूसरे को समर्पित कर देता है। सीखते वक्त अपना विवेक अपने पास रखना जरूरी है। लोहिया ने इसे कभी नहीं त्यागा। गांधीजी और मार्क्स से किन सवालों के जवाब माँगने हैं, इसका फैसला खुद लोहिया ने किया। जो लोग इक्कीसवीं सदी में लोहिया-विचार से सीखना चाहते हैं, उन्हें भी अपने सवाल स्वयं पूछने होंगे। इक्कीसवीं सदी में देश और दुनिया के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए लोहिया के विचारों की समीक्षा करनी होगी। यह पूछना होगा कि लोहिया के विचार में ऐसा क्या था जो केवल सतही या वक्ती था, और ऐसा क्या था जो गहरा और शाश्वत साबित हुआ। इसके लिए यह जरूरी है कि लोहिया के विचार जगत को किसी टुकड़े, किसी सूत्र या नारे में ढाल कर नहीं, बल्कि उसकी समग्रता में देखा जाए। यों तो किसी भी विचारक के सभी विचार एक संपूर्ण या सुव्यवस्थित रूप नहीं ले पाते हैं। लेकिन यह बात लोहिया पर कहीं ज्यादा लागू होती है। लोहिया अपने पूरे राजनैतिक दर्शन को एक सुव्यवस्थित रूप से नहीं लिख पाए। उनके प्रसिद्ध लेख ‘इकोऩॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ या कुछ हद तक उनके लेख संग्रह ‘मार्क्स, गांधी ऐंड सोशलिज्म’ को छोड़ दें तो लोहिया ने अमूमन अपनी बात टुकड़ों में ही रखी। इन अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर एक समग्र दृष्टि रखने का काम लोहिया नहीं कर पाए। इसलिए ध्यान से खोजबीन करने पर उनकी दृष्टि में अंतर्विरोध और विसंगतियां भी नजर आती हैं। इक्कीसवीं सदी के कुजात लोहियावादियों को इन तमाम दिक्कतों से दो-चार होते हुए एक नई दृष्टि विकसित करनी होगी।
लोहिया से क्या न सीखें
कुजात लोहियावादियों को यह सोचने और कहने का साहस करना सीखना होगा कि लोहिया से क्या न सीखें। शायद इस सूची में सबसे पहले लोहिया की सांगठनिक शैली का जिक्र होना चाहिए। आमतौर पर लोहिया के मौलिक चिंतन, उनकी उग्र राजनीति और लगभग अराजकतावादी सांगठनिक शैली को एक साथ जोड़कर देखा जाता है। लेकिन यह जरूरी नहीं है। संगठन-निर्माण लोहिया की रुचि और प्राथमिकता का विषय नहीं रहा। तीस और चालीस के दशक में लोहिया ने सोचा भी नहीं होगा कि संगठन का नेतृत्व करने का बोझ उनके कंधों पर लाद दिया जाएगा। इसलिए सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद जब यह जिम्मेवारी उनके कंधों पर आ पड़ी तो वह इसके लिए तैयार नहीं थे। यहाँ लोहिया की मुख्य दिलचस्पी संगठन में आंतरिक लोकतंत्र का सिद्धांत स्थापित करने में रही। लेकिन नीचे से व्यवस्थित रूप से संगठन-निर्माण के अभाव में लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी आंतरिक लोकतंत्र के संस्थागत स्वरूप को विकसित नहीं कर पाई। नतीजा सांगठनिक अराजकता, जो कि समाजवादी आंदोलन के लिए घातक सिद्ध हुई। लोहिया और लोहियावादियों के नाम से जुड़ी सांगठनिक शैली कायदे से संगठन की इकाइयाँ गठित न करने, अनुशासनहीनता, वाकपटुता पर आधारित नेतृत्व, सिद्धांतों के नाम पर बार-बार विभाजन आदि का पर्याय बन गई। लोहिया खुद इससे बेखबर नहीं रहे होंगे। बीच-बीच में उन्होंने इन बीमारियों का उपचार करने के अपनी तरह के तरीके अपनाए। लेकिन उससे उनका चरित्र नहीं बदला। लोहियावाद की यह विरासत समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दुखद अध्याय है। भविष्य में इससे सबक लिये जा सकते हैं, लेकिन यह विरासत प्रेरणा का स्रोत नहीं हो सकती।
(लेख का बाकी हिस्सा कल)
Informative knowledge thank you sir