डॉ. राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910 – 12 अक्टूबर 1967) की 57 बरस की जीवन-यात्रा देश और दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय, लोकतंत्र, समता और संपन्नता की एकजुटता के लिए संपूर्ण समर्पण की रोमांचक महागाथा है। उनका जीवन निराशा के कर्तव्य के दर्शन, इतिहास-चक्र के सिद्धांत और सप्त-क्रांति के कार्यक्रमों से प्रेरित था। लेकिन 1967 में देहांत, सोशलिस्ट पार्टी के 1977 में विसर्जन के कई दशकों बाद लोहिया की प्रासंगिकता के क्या कारण हैं? आइए इसपर चर्चा करें।
लोहिया की दृष्टि और समाजविज्ञान
लोहिया विचार का दार्शनिक आधार उन्हें ईशावास्योपनिषद, अस्तित्ववाद और गांधी के कर्तव्य-केन्द्रित (न कि फल और अधिकार-उन्मुख) जीवन दर्शन से अनेक स्तरों पर जोड़ता है। लोहिया की जातिव्यवस्था की व्याख्या और भारत के सामाजिक परिवर्तन की कुछ गूँज साठोत्तरी भारतीय समाज-वैज्ञानिकों के अध्ययनों में सुनाई पड़ती है। नई दुनिया बनाने में घटती प्रतिबद्धता, राष्ट्रीय एकता की जरूरतों की उपेक्षा, खेती की बजाय उद्योगीकरण को प्राथामिकता का रहस्य, नियोजन के बावजूद दरिद्रता की व्यापकता, शिक्षा में समानता के अभाव का कारण, समान नागरिक अधिकारों के बावजूद सभी महिलाओं का दोयम स्तर का जीवन, भाषा की राजनीति, अंग्रेजी के ज़रिये एक विशिष्ट वर्ग के वर्चस्व की निरंतरता, ग्रामीण समाज में प्रभु जातियों का बढ़ता महत्त्व, लोकतंत्र के बावजूद सांप्रदायिकता का राजनीतिकरण, सतही आधुनिकीकरण और उत्तर-औपनिवेशिक राज्यसत्ता के प्रति अत्यधिक लगाव जैसे प्रसंगों में लोहिया ने ध्यान आकर्षित किया है।
यह भी दिलचस्प रहा कि सत्तर के दशक में नव-वामपंथी रुझान वाले आंद्रे गुन्नर फ्रैंक की लैटिन अमरीका पर केन्द्रित किताबें (अंडर-डेवलपमेंट ऑफ डेवलपमेंट (1974), समीर अमीन द्वारा विश्व-पूंजी संचय का अध्ययन (एक्यूम्लेशन ऑन वर्ल्ड स्केल (1970) और जिओवानी आरिघी की साम्राज्यवाद की समीक्षा ( ज्योमेट्री ऑफ इम्पीरियलिज्म, 1978) ने लोहिया द्वारा मार्क्स की मुख्य स्थापनाओं पर उठाई शंकाओं की अनजाने में ही पुष्टि कर दी थी।
इसी तरह मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हाब्सबाम की 19वीं शताब्दी पर लिखी तीनों किताबों– एज ऑफ़ रिवोलूशन (1962), एज ऑफ़ कैपिटल (1978) और एज ऑफ़ एम्पायर (1987) का भी उल्लेख जरूरी है। क्योंकि इस धारा के कुछ इतिहासकारों द्वारा भी लोहिया के विश्लेषण में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में प्रस्तुत निष्कर्षों की दिशा में कदम उठाने का संकेत मिलता है।
‘विश्व-व्यवस्था विमर्श’ (‘वर्ल्ड-सिस्टम अप्रोच’) के सिद्धांतकार इमानुएल वालर्स्ताइन द्वारा 1974 और 1989 के बीच चार खंडों में प्रस्तुत समकालीन पूंजीवादी खेती के जरिये एक नयी विश्व-व्यवस्था के निर्माण और परिवर्तन की महाकथा सामने लाई गई। इसके मूल में एक वैश्विक श्रम-विभाजन के जरिये 16वीं शताब्दी से बन रहे साम्राज्यवाद आधारित शोषण-तंत्र और समूची दुनिया में यूरोप के ‘विस्तार’ का सच था।
जब यह सब पूरे विस्तार से सामने आया तो लोहिया द्वारा ‘इतिहास-चक्र’ पुस्तक में प्रस्तुत सभ्यताओं के उत्थान-पतन के विश्लेषण को नई प्रासंगिकता मिली है। ‘यूरोप-केन्द्रित’ समाज-विज्ञान बेपरदा हो गया। ‘प्रगति’ का यूरोप आधारित विमर्श अर्ध-सत्य सिद्ध हुआ है। सभी यूरोप-केन्द्रित विचारधाराओं का मोह घटना शुरू हो गया है। ‘केंद्र’ और ‘परिधि’ के रूप में संगठित विषमतापूर्ण विश्वव्यवस्था और यूरोपीय केंद्र (पहले पुर्तगाल-स्पेन फिर ब्रिटेन-फ़्रांस) और अमरीकी (संयुक्त राज्य अमरीका)-एशियाई (चीन) परिधि के बीच स्थानों के अदल-बदल के रहस्यमय संसार का भेद खुला।
लोहिया की भाषानीति और उत्तर-औपनिवेशिक अस्मिता विमर्श
इसी के समांतर भाषा अध्ययन और साहित्य-संसार में ‘उत्तर-उपनिवेशवाद’ पुष्पित-पल्लवित होने लगा। इसमें फ्रान्ज़ फैनन (अल्जीरिया) और सी.एल.आर. जेम्स (केरीबियन द्वीप समूह) से लेकर चिनुआ अचेबे (नाइजीरिया) और नूगी वा थिओंगो (केन्या) ने अलग अलग प्रकार का योगदान किया। अंतोनियो ग्राम्शी (इटली), मिशेल फूको (फ़्रांस) और एडवर्ड सईद (फिलीस्तीन) द्वारा क्रमश: ‘वर्चस्व और प्रभुत्व’ के सांस्कृतिक आधारों, ज्ञान-विमर्श में निहित शक्ति, और ‘प्राच्यवाद’ (‘ओरिएन्टलिज्म’) के यूरोपकेंद्रित निहितार्थ को पहले ही दो-टूक शैली में सामने रखा जा चुका था। भारत में भी भाषा-स्वराज के अधूरेपन के भयानक सच को गणेश देवी जैसे विशेषज्ञों ने रेखांकित किया।
1960 के दशक में डॉ लोहिया द्वारा प्रवर्तित भाषा-विमर्श देशी साहित्यकारों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधी द्वारा प्रवाहित स्वराज-धारा की नई लहर के रूप में पहचाना जा चुका था। अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ ही साहित्यकार भी उतरे। लेकिन अब अफ्रीका से ‘नव-उपनिवेशवाद’ और ‘मानसिक गुलामी’ के खिलाफ आ रही आवाज का तकाजा है कि लोहिया को स्वतंत्र भारत के ‘विऔपनिवेशीकरण’ के प्रथम नायक के रूप में भी पहचाना जाए। यह काम लोहिया की किताब ‘भाषा’ (1963) के नए संस्करण और विश्लेषण से शुरू होना ही चाहिए।
दूसरे शब्दों में, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोहिया द्वारा प्रस्तुत ‘इतिहास चक्र’, ‘मार्क्स, गांधी एंड सोशलिज्म’, ’भारत, चीन और उत्तरी सीमाएं’, ‘जाति-प्रथा’, भाषा आदि से जुड़े दृष्टिकोण को इक्कीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नई महत्ता मिली है। लोहिया के पुनर्पाठ का सिलसिला बनाने का समय आ गया है।
लोहिया के चिंतन में निहित क्रांतिकारिता
लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा 1975-77 के जन-आंदोलन में यह समझाना कि ‘मेरी संपूर्ण क्रांति और लोहिया की सप्त-क्रांति एक ही हैं’ लोहिया के सपनों की प्रासंगिकता का एक प्रबल प्रमाण माना जाता है। दरिद्रता, अभाव व विषमता की एकजुटता और मानवता के बीच के परस्पर-विरोधी रिश्तों को ही लोहिया ने पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के जुड़वांपन का महादोष माना था। अब यही बात प्रकारांतर से अमर्त्य सेन, ज्यां द्रेज और जोसेफ स्तिग्लित्ज़ से लेकर अभिजीत बनर्जी और इश्तर दुफ्लो ने अपने आर्थिक शोधकार्य से समझाया है।
इस प्रकार लोहिया की विचार-यात्रा के ये तीनों पहलू समय की कसौटी पर अभी भी नि:संदेह खरे हैं। इस संदर्भ में भारत समेत संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य-राष्ट्रों द्वारा 2015-30 की अवधि के लिए अपनाए गए 17 सूत्री ‘टिकाऊ प्रगति’ (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) के लक्ष्यों और लोहिया के सपनों की तुलना भी अप्रासंगिक नहीं होगी।
उन्होंने अपनी समूची जिंदगी अन्याय के निरंतर प्रतिकार के लिए लगाई। उनकी दृष्टि में दुनिया को स्थायी तौर पर बेहतर बनाने के लिए फावड़ा (रचनात्मक कार्यक्रम), जेल (अहिंसक आंदोलन) और वोट (लोकतांत्रिक सत्ता-व्यवस्था) का देश-काल-पात्र अनुकूल समन्वय सही पद्धति होनी चाहिए। देश से दरिद्रता उन्मूलन, वंचनाओं की समाप्ति, और भेदभाव पर लगाम उनका सपना था। इसके लिए उन्होंने लोकतंत्रीकरण, विकास और विऔपनिवेशीकरण की त्रिवेणी को प्रवहमान करने के लिए जन-राजनीति का मार्ग चुना। उनका मानना था कि ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं’। वह भारत के अतीत के प्रति आदर और आलोचना, दोनों भाव रखते थे। दुनिया और देश के भविष्य को स्वतंत्रता, न्याय और प्रगति के जरिये बेहतर बनाने के लिए तो प्रतिबद्ध ही थे।
लोहिया का विश्व-बंधुत्व
लोहिया को देश और दुनिया के हर हिस्से में हो रहे अन्यायों से पीड़ा होती थी। उनके जीवन का अधिकांश भाग पहले भारत को स्वराज दिलाने फिर भारत के नवनिर्माण के लिए सही नीतियों को अपनाने से जुड़े आंदोलनों और संघर्षों में लगा। इसके बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट चीन से तिब्बत की आजादी और राणाशाही से नेपाल की मुक्ति से लेकर रंगभेद से अमरीका की मुक्ति और जर्मनी, कोरिया, विएतनाम और हिंदुस्तान के बंटवारे के खात्मे के लिए ठोस योगदान किए।
एक भारतीय के रूप में उनकी यह प्रार्थना थी कि ‘हे भारतमाता! हमें राम की मर्यादा, कृष्ण का उन्मुक्त हृदय और शिव का मस्तिष्क प्रदान करो।’ इसी क्रम में उन्होंने भारत के स्त्री-पुरुषों से सावित्री की बजाय द्रौपदी को आदर्श मानने की भी आशा की। उन्होंने ‘मार्क्स, गांधी और समाजवाद’ के त्रिकोण को बुनियादी महत्त्व का बताया था और 21वीं सदी में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित 17 सूत्री ‘स्थायी विकास कार्यक्रम’ में मार्क्स और गांधी के सूत्रों की प्रतिध्वनियाँ हैं। वैसे भी ‘भोगवादी भूमंडलीकरण’ और ‘लंगोटिया पूंजीवाद’ (‘क्रोनी कैपिटलिज्म’) की चौतरफा विफलता के बाद मार्क्स, गांधी और समाजवाद के संबंधों की नई समझ की जरूरत हो गई है। इसीलिए लोहिया के कई तात्कालिक कार्यक्रमों और सुझावों को किनारे रखते हुए उनके दीर्घकालीन सूत्रों और सुझावों को जानने–जीने की जरूरत है।
भारत के बारे में लोहिया की समझ
डॉ लोहिया की भारत के अतीत और वर्तमान की अलग समझ थी। वह भारत को दुनिया के सबसे अन्यायग्रस्त और उदास लोगों का देश बताते थे और इस दशा को बदलने के लिए सबमें बेचैनी का फैलाव चाहते थे। उनका मानना था कि मानव सभ्यता की अबतक की कथा में भारत कम से कम दो बार विश्व में सर्वश्रेष्ठता का सम्मान प्राप्त कर चुका है। लेकिन उन्होंने भारत के इतिहास में पिछले आठ सौ बरसों में हुए विदेशी हमलों के आगे कई बार पराजित होने के शर्मनाक सच को भी बराबर अपने सामने रखा और इसके लिए वह शासक वर्ग की फूट की बजाय जातिप्रथा के कारण देश में फैली व्यापक उदासीनता को समाज का मूल दोष मानते थे।
स्त्री पर लगाई गई बंदिशों और जातिगत विषमता के दो कटघरों में कैद समाज-व्यवस्था को नर-नारी समता और जाति-तोड़ो के दुहरे आंदोलनों से दुरुस्त करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने राष्ट्र-निर्माण की बुनियादी जरूरत के रूप में ‘जाति-तोड़ो’ का अभियान चलाया। इसके लिए ‘पिछड़ों को विशेष अवसर’ के सिद्धांत का प्रचार किया। इसका एक अंश दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा, सरकारी नौकरी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण के रूप में प्रचलित भी हुआ है। लोहिया ने राजनीतिक स्वराज के बाद देश में नवजीवन के उल्लास के लिए दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के पसमांदा समुदायों के साथ पूरे भारत की सभी महिलाओं को विशेष अवसर का अधिकारी बताया। इस मायने में लोहिया का सामाजिक नव-निर्माण का सपना अभीतक अधूरा है। इसे पूरा करना नई पीढ़ी के युवक-युवतियों की जिम्मेदारी है।
लोहिया को हमारे सामाजिक मनोविज्ञान के बारे में इस बात का अफ़सोस था कि भारतीय समाज में जिनको अन्यायों से मुक्ति के लिए लड़ना चाहिए उन स्त्री-पुरुषों में चौतरफा निराशा के कारण इसकी क्षमता नहीं बची है। दूसरी ओर, जिनमें प्रतिरोध और परिवर्तन की शक्ति है उन वर्गों में बदलाव के आंदोलनों के प्रति दिलचस्पी नहीं है। लेकिन वह इस सच को भी फैलाते रहे कि बीसवीं सदी में क्रूरता और बेरहमी के बावजूद पहली बार एकसाथ सात क्रांतियों का फैलाव हो रहा है। इसलिए मानव समाज में न्याय और समता के सूरज के उदय को रोकना परिवर्तन-विरोधी ताकतों के बूते की बात नहीं होगी।
यह याद रखना जरूरी है कि डॉ राममनोहर लोहिया की स्वाधीनोत्तर राजनीति राष्ट्रनिर्माण की नीतियों से बने एक चतुर्भुज पर आधारित थी– जाति नीति (जाति तोड़ो और नर-नारी समता हो), भाषा नीति (अंग्रेजी हटाओ, देशी भाषा चलाओ), दाम नीति (दाम बांधो, खर्च पर सीमा हो) और रक्षा नीति (हिमालय बचाओ व हिंद-पाक महासंघ बनाओ)। मानसिक स्वराज के लिए लार्ड मैकाले के समय से कायम अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती देते हुए भारत की सभी देशी भाषाओँ को विधायिका, प्रशासन, न्यायपालिका, शिक्षा और संचार-तंत्र में प्रमुखता के लिए सत्याग्रह और आंदोलन चलाया। लोकसभा में स्वयं कभी अंग्रेजी का उपयोग नहीं किया। हिंदी में बोले। एकबार बांग्ला का इस्तेमाल किया। अपने सहयोगी जे. एच. पटेल के जरिये कन्नड़ में पहला भाषण कराकर संसद में देशी भाषाओं के उपयोग की व्यवस्था शुरू कराई।
हिंदू-मुसलमान सद्भाव को भारतीयता की मुख्य कसौटी मानते हुए मुसलमानों में देशी-विदेशी के अंतर की पहचान के आग्रही थे। वह रज़िया, शेरशाह, जायसी और रसखान को अपना पुरखा मानते थे और बाबर, गजनी और गोरी को विदेशी लुटेरे के रूप में पहचानने पर जोर देते थे। लोहिया को भारत के साम्राज्यवादी विभाजन का गहरा अफसोस था और वह हिंदू-मुसलमान संबंधों में बेहतरी के जरिये भारत-पाक महासंघ का सपना देखते थे।
वह साम्यवादी चीन के विस्तारवाद के प्रबल आलोचक और हिमालय बचाओ आंदोलन के प्रवर्तक तथा तिब्बत की आजादी के समर्थक थे। एक समाजवादी के रूप में उन्होंने सोवियत संघ में स्टालिन और जर्मनी में हिटलर के लोकतंत्र-विरोधी सत्ता-संचालन और अत्याचारों की निंदा की। अमरीकी पूंजीवाद और रूसी साम्यवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया और दोनों को समूची स्वाधीनोत्तर दुनिया के लिए गलत बताया।
विदेशी शासन और स्वदेशी शासकों के दोषों के खिलाफ लगातार जूझते हुए उन्होंने स्वाधीन भारत के लोक-मानस के स्मृति-संसार में अनूठा स्थान बनाया है। फिर भी उनके बारे में देश-विदेश में आधी-अधूरी जानकारियों का बोलबाला रहा है। इसलिए लोहिया-कथा की परत-दर-परत स्पष्टता की जरूरत है।
(लेख का बाकी हिस्सा कल )