ग़ज़ल
सुनता ही नहीं कोई मिट्टी की कहानी भी
घाटे का मियाँ सौदा है खेती किसानी भी
दरिया तू हुआ कैसे ये मुझको बता जालिम
प्यासे को अगर तुझसे मिलता नहीं पानी भी
गुज़रा है कोई जत्था मांगों को लिए अपनी
नारों से महकती है सड़कों की वीरानी भी
कर ज़ोर जुलम कितना हक़ मांगने वालों को
इन्आम ही लगती है ज़ख़्मों की निशानी भी
सुनते वो हमें कैसे क्या ज़ख़्म दिखाते हम
सरकार तो बहरी है इक आंख से कानी भी
तौबा ये बुढ़ापे में अब हमको सिखाता है
जब फ़स्लें उगाने में खो बैठे जवानी भी
कालिख से निकलता है कानून भी काला ही
गाली ही बके देखो अब बैठ के नानी भी
जिस दिन ये समझ लोगे हक़ सबके बराबर हैं
आएंगे समझ में फिर हर बात के मानी भी
मिल जाए मुहब्बत जो हर दिल को यहाँ प्यारे
लगती है बहुत अच्छी फिर दुनिया ए फ़ानी भी
दोहे
बढ़ जाएगी याद रख, दिल्ली तेरी शान,
दिल दरवाज़ा खोलिए, बाहर खड़ा किसान।
सड़कें खोदे देखिए, मूरख का अभिमान,
रखे बड़े पत्थर मगर, उनसे बड़ा किसान।
उस ठंडी बौछार ने, ली इक-दो की जान,
डंडे मारे पुलिस ने, चीखा नहीं किसान।
किसके रोके से रुका, यारों कब तूफ़ान,
काँप गई सरकार भी, जब-जब चला किसान।
नीयत है खोटी बहुत, मोटा भाईजान,
छोटा तू साबित हुआ, सबसे बड़ा किसान।
दालें भी चुप न रहीं, ख़ूब दहाड़े धान,
खेती गुस्से में बहुत, बेबस नहीं किसान।
बिलकिस दादी को पकड़, या ले हमरी जान,
जालिम तेरे जुल्म से, कब तक डरे किसान।
काशी में ठुमकत फिरा, ये कैसा परधान,
अपनी मांगों को लिए, चीखत रहा किसान।
मूरख छोड़ गुरूर को, कर विरोध का मान,
हर काले कानून को, कर दे राख किसान।
देख रहा है गौर से, सारा हिन्दुस्तान,
बौराई सरकार से, कैसे लड़ा किसान।