आजादी की अप्रतिम योद्धा – माता तपस्विनी

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— योगेन्द्र नारायण —

प्रथम स्वातंत्र्य समर को अंग्रेजों ने सन 1858 तक लगभग कुचल दिया, पर आजादी की जिस चेतना और नारी शक्ति का अभ्युदय हुआ था, उसे कुचलना संभव नहीं था। इस चेतना और शक्ति की अनूठी प्रतिमूर्ति थीं तपस्विनी माता। उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये और युद्ध के मैदान में उनके तिरोधान के बाद वह नाना साहेब के साथ नेपाल चली गयीं।
तपस्विनी माता का जन्म सन 1835 में हुआ लेकिन कहां हुआ, इसका ठीक-ठीक पता नहीं। कुछ लोगों के अनुसार उनका जन्म तमिलनाडु के वेल्लोर में हुआ तो कुछ लोगों के अनुसार वह उत्तर-प्रदेश के रायबरेली में पैदा हुईं तो कुछ का मानना है कि उनका जन्म वाराणसी में हुआ था। पिता श्री नारायण राव उन्हें गंगा मां का प्रसाद मानते थे, इसलिए बचपन में उनका नाम गंगा बाई था तथा युवावस्था में वह सुनन्दा नाम से मशहूर हुईं। सात वर्ष की आयु में वह विधवा हो गई थीं। एक बाल विधवा के रूप में उनका समय संस्कृत और अध्यात्म के अध्ययन में बीतता था। इसके साथ ही उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों के संचालन तथा घुड़सवारी में विशेष रुचि दिखाई। कुछ समय बाद पिता नारायण राव का भी निधन हो गया।

अब सुनंदा पर सामने पिता की छोटी-सी जमींदारी की देखरेख की भी जिम्मेदारी आ पड़ी। उनका ध्यान अंग्रेजों की कूट बुद्धि पर भी था, इसलिए उन्होंने अपनी और अपने जागीर की सुरक्षा की ओर भी ध्यान दिया। इसपर अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर नैमिशारण्य में रखा। यहां पर उन्होंने संत गौरीशंकर से दीक्षा लेकर संन्यास ग्रहण कर लिया, पर स्वतंत्रता संग्राम की उनकी गुपचुप की जा रही तैयारियों में कोई व्यवधान नहीं आया। वहां से मुक्त होने के बाद उन्होंने नानाजी पेशवा से संपर्क स्थापित किया और अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ फेंकने के लिए साधु-संतों की टोलियां बना-बना कर विभिन्न छावनियों में भेजने लगीं। इसी समय से इनका नाम माता तपस्विनी मशहूर हुआ और बाद में यही इनकी पहचान बन गयी।
रिश्ते में रानी लक्ष्मीबाई इनकी बुआ थीं। झांसी की लड़ाई में इन्होंने भी उनके साथ घोड़े पर बैठ़़ हिस्सा लिया, पर दुर्भाग्य से रानी लक्ष्मीबाई रणभूमि में खेत रहीं। यहां से वह नाना साहेब के साथ जुड़ गईं और बाद में उन्हीं के साथ नेपाल चली गईं। नेपाल में भी वह निष्क्रिय नहीं रहीं। वहां पर वह अपनी आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ गंगा मंदिरों का निर्माण कराने लगीं। इसी के साथ नेपालियों में स्वतंत्रता का प्रचार और नेपाल के राज दरबार से संपर्क बढ़ाना भी शुरू कर दिया। नेपाल राज दरबार से इनका संबंध बहुत प्रगाढ़ हो गया।
उनके अब भारत लौटने का समय आ गया था। अंत में सन 1890 में वह दरभंगा होते हुए कोलकाता (कलकत्ता) आ गईं और इसको अपने सभी प्रयासों का केन्द्र बनाया। अब उनके सामने देश की आजादी के साथ-साथ बालिका शिक्षा का भी लक्ष्य था। सन 1893 में उन्होंने कोलकाता में महाकाली पाठाशाला आरंभ की। पाठशाला का लक्ष्य लड़कियों को कागजी अंग्रेजी शिक्षा नहीं, बल्कि भारतीय ढंग की शिक्षा देना था। लड़कियों को भाषा और गणित की सामान्य शिक्षा के साथ-साथ गृहोपयोगी शिक्षा भी दी जाती थी। संस्कृत और अध्यात्म पर विशेष जोर था।

मई 1897 में स्वामी विवेकानंद को माता तपस्विनी ने महाकाली पाठशाला में बुलाया। पाठशाला के कार्यक्रम का आरंभ शिव के ध्यान मंत्र से हुआ। उसके बाद माताजी ने एक लड़की को बुलाया और कालिदास के रघुवंश महाकाव्य का एक श्लोक पढ़ा, जिसका अर्थ लड़की को बताना था। उसका उत्तर सुन स्वामीजी ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और पाठशाला की सतत उन्नति की कामना की। पाठशाला की सफलता इसी से समझी जा सकती है कि दस वर्षों में पाठशाला 23 जगहों पर चलने लगी तथा उनमें 450 लड़कियां शिक्षा प्राप्त करने लगीं।
सन 1901 में माताजी की मुलाकात कलकत्ता में तिलकजी से हुई। उन्होंने तिलकजी को नेपाल के महाराजा से संबंध कायम करने की सलाह दी। तिलकजी स्वयं नेपाल नहीं जा पाए। उन्होंने सन 1902 में अपने प्रतिनिधि के रूप में अपने विश्स्त सहयोगी के पी खाडिलकर को नेपाल भेजा। जाने से पूर्व खाडिलकर काफी समय कलकत्ता में माताजी के साथ रहे। नेपाल में खाडिलकर नेपाल के कमांडर-इन-चीफ चंद्र शमशेरजंग से मिले। दोनों की वार्ता में नेपाल में जर्मनी की हथियार निर्माण करने वाली प्रसिद्ध संस्था क्रूप्स के सहयोग से बंदूक निर्माण की फैक्ट्री स्थापित करने का निर्णय हुआ। नेपाल में खाडिलकर कृष्ण राव के नाम से एक साधारण आदमी के रूप में काफी समय तक रहे। यह योजना अभी मूर्त रूप भी नहीं ले पाई थी कि इसका भेद खुल गया।

हुआ यह कि खाडिलकर के एक विश्वस्त सहयोगी दामू जोशी ने सतारा के महाराजा शाहूजी भोसले को एक पत्र के माध्यम से इस योजना की जानकारी भेजीमगर पत्र मुंबई सीआईडी के हाथ लग गया। खाडिलकर गिरतार कर लिये गएपर पुलिस के तमाम अत्याचारों को सहते हुए न तिलक महाराज और न माता तपस्विनी का ही नाम लिया। सन 1905 में बंग भंग के विरोध में भी जन चेतना जागृत करने के लिए  उनकी साधु-संतों की टोलियां पुनः सक्रिय हुईं तथा देश में घूम-घूम कर अपने प्रचार अभियान में लगी रहीं। इस तरह प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम और बीसवीं सदी के प्रारंभ में नए सिरे से आरंभ हो रहे सशस्त्र विद्रोह के बीच माता तपस्विनी का योगदान हमेशा स्मरणीय रहेगा। अंत में सन 1907 में बिना किसी शोर-शराबे या प्रचार के कलकत्ता में ही माता तपस्विनी का तिरोधान हो गया।

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