म्यांमार में लोकतंत्र बहाली आंदोलन को सक्रिय समर्थन देना हमारा फर्ज है – सुनीलम

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स वर्ष एक फरवरी को म्यांमार में फिर फौजी शासकों ने सत्ता कब्जा ली। चुनाव में जीती एनएलडी पार्टी को पिछली बार की तरह सत्ताच्युत कर दिया। आंग सान सू ची को पहले की तरह नजरबंद कर दिया गया है। निहत्थे नागरिकों को फौजी शासक गोलियों से भून रहे हैं। लोकतंत्र की बहाली के लिए सड़कों पर उतरे आंदोलनकारियों में सात सौ से अधिक मारे जा चुके हैं। चार हजार से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए हैं। केवल 27 मार्च को 125 लोग मारे गए जिनमें 11 बच्चे थे।

भारत समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय हाथ पर हाथ धरे बैठा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद मूक दर्शक बनी बैठी है।म्यांमार के फौजी शासकों को चीन के खुले समर्थन के कारण कोई दखल नहीं देना चाहता।

म्यांमार सामरिक दृष्टि से भी भारत के लिए अति महत्त्वपूर्ण राष्ट्र है जिसकी सीमा भारत के साथ-साथ बांग्लादेश, चीन, लाओस, थाईलैंड और अंडमान तथा बंगाल की खाड़ी से लगती है। चीन लगातार म्यांमार का उपयोग भारत के खिलाफ तरह-तरह से करता आ रहा है। म्यांमार की सरहदों से होनेवाली नशीली वस्तुओं की तस्करी में वहां की फौजी सरकारों की लगातार मिलीभगत रही है। यह भारत में अवैध हथियार पहुंचाने का भी रास्ता रहा है।

कुछ देशों ने खुलकर लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने का मन बनाया है। यूरोपीय यूनियन ने म्यांमार के दस फौजी नेताओं के खिलाफ प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके तहत उनके यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों में जाने पर रोक रहेगी तथा उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी। यूरोपीय यूनियन ने इन व्यक्तियों को म्यांमार में लोकतंत्र का खात्मा करने, वहां कानून का राज खत्म करने, दमनात्मक फैसले करने तथा मानव अधिकारों के‌ हनन का जिम्मेदार माना है।

उधर म्यांमार की राष्ट्रीय निर्वासित सरकार ने सत्ता कब्जाने वाले फौजी सत्ताधीशों को आसियान में न बुलाकर निर्वासित सरकार के प्रतिनिधि को बुलाने की मांग की है।संयुक्त राष्ट्र महासंघ के मुख्य महासचिव एंटोनियो गुटेरिस ने कहा है कि एशिया के देशों की जिम्मेदारी है कि वे एकसाथ आकर म्यांमार में चल रहे खून-खराबे पर रोक लगाएं।उन्होंने सुरक्षा परिषद से भी अपील की है कि परिषद शांति के लिए हस्तक्षेप करे।

म्यांमार के आला फौजी अफसर दस वर्ष बाद फिर से सत्ता पर कब्जा करने के लिए यह तर्क दे रहे हैं कि नवंबर 2020 के चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी ने धांधली की थी। फौजी नेताओं ने चुनाव को फ्रॉड बताया था। लेकिन चुनाव आयोग और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने चुनाव को निष्पक्ष ठहराया था।

1 फरवरी को सत्ता हथिया लेने के बाद से ही फौजी हुक्मरान 75 वर्षीय नोबेल पुरस्कार विजेता सू ची पर तमाम किस्म के भ्रष्टाचार के आरोप लगातार लगा रहे हैं। भ्रष्टाचार विरोधी कानून के तहत सू ची पर मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। फौजी प्रवक्ताओं ने आरोप लगाया है कि उनके पास आंग सान सू ची द्वारा लाखों डालर और कई किलो सोना लेने के तथ्य मौजूद हैं। उन्होंने इस सिलसिले में कई वीडियो भी जारी किए हैं। जबकि नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की प्रमुख सू ची अपनी पाक-साफ छवि के लिए जानी जाती हैं।

दस सदस्य राष्ट्रों वाले आसियान में म्यांमार 1997 में शामिल हुआ था तथा अब फौजी तख्तापलट की स्थिति पर चर्चा करने के लिए 24 अप्रैल को उसकी बैठक बुलाई गई है जिसमें फौजी शासकों के प्रतिनिधि को बुलाया गया है।

सवाल यह है कि आसियान फौजी तख्तापलट को अंदरूनी मामला मानकर छोड़ देगा या स्थिति की गंभीरता को देखते हुए हस्तक्षेप करेगा। आसियान में मानवाधिकारों पर काम करनेवाले सांसदों की कमेटी तथा मलेशिया के सांसदों ने कहा है कि आसियान की बैठक में राष्ट्रीय एकता की निर्वासित सरकार के प्रतिनिधि को बुलाया जाना चाहिए।

अब तक फौजी बगावत के विरोध में म्यांमार के आम नागरिकों के द्वारा अहिंसक आंदोलन किया जा रहा है।लेकिन सवाल है कि क्या आनेवाले समय में आंदोलनकारी हिंसा का रास्ता अपनाने को मजबूर नहीं होंगे? इस बीच यह भी खबर मिल रही है कि म्यांमार के विभिन्न भाषाई समूह एकसाथ मिलकर फौजी शासन से लड़ने का मन बना रहे हैं। ये वे समूह हैं जो कई दशकों से आत्मनिर्णय के अधिकार (राइट टु सेल्फ डिटरमिनेशन) तथा अपनी सामुदायिक स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

यह भी खबर है कि लोकतंत्र बहाली के लिए आंदोलन चलानेवाले नागरिकों पर गोली चलाने के फौजी शासकों के आदेश को तमाम पुलिस अधिकारियों ने मानने से इनकार कर दिया है तथा वे सीमा पार कर मिजोरम के कैडिंग शहर में पहुंच गए हैं। मिजोरम के ग्रामीण म्यांमार से आनेवाले शरणार्थियों को अपने घरों में शरण दे रहे हैं। दुनिया भर में उन विद्रोही पुलिसवालों के तीन उंगली उठाकर सैल्यूट करने के चित्र वायरल हो रहे हैं। फौजियों द्वारा सत्ता हथियाने के खिलाफ म्यांमार के युवाओं ने तीन उंगलियों से सैल्यूट करने के तरीके को लोकप्रिय बना दिया है।

उल्लेखनीय है कि भारत और म्यांमार के बीच 1,645 किलोमीटर की सीमा है। इस सीमा से हजारों शरणार्थी भारत आ रहे हैं। पहले भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने मिजोरम, मणिपुर, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश की राज्य सरकारों को शरणार्थियों को सीमा पार नहीं करने देने के निर्देश जारी किए थे। भारत सरकार ने उन निर्देशों में कहा था कि भारत ने 1951 या 1967 के संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थियों से संबंधित कन्वेंशन को स्वीकार नहीं किया है इसलिए कोई भी राज्य इन्हें शरणार्थी के तौर पर मान्यता नहीं दे सकता।

म्यांमार के फौजी शासन ने भारत सरकार से आग्रह किया है कि उसके जो भी पुलिस अधिकारी भारत में गए हैं उन्हें वह म्यांमार को सौंप दे ताकि उनपर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया जा सके। फौजी शासकों द्वारा देश के तमाम इलाकों में शपथ ग्रहण विरोध के बाद इंटरनेट और फोन बंद कर दिए गए हैं ताकि विरोध की तस्वीर पूरी दुनिया में न पहुंच सके। तमाम अखबारों को बंद कर दिया गया है तथा पचास से अधिक पत्रकार गिरफ्तार किए गए हैं।

म्यांमार में हो रहे दमन और हिंसा के प्रति भारत आंख बंद नहीं कर सकता। अगर भारत आंख मूंदे रहेगा तो यह उसका एक आपराधिक कृत्य माना जाएगा। पहले जब-जब म्यांमार में फौजी हुकूमत रही, तब-तब वहां लोकतंत्र की बहाली के लिए आंदोलन चलानेवालों को भारत में अपनी गतिविधियां चलाने की छूट थी।

भारत के समाजवादियों ने सदा ही लोकतंत्र की बहाली के आंदोलनों का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय समर्थन किया है। मुझे याद है कि केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद जॉर्ज फर्नांडिस अपने घर में बर्मा के युवाओं और कलाकारों को आश्रय दिया करते थे तथा खुद भी आंदोलनों में शामिल हुआ करते थे। मैंने स्वयं युवा जनता दल का महामंत्री रहते हुए तथा बाद में समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय सचिव रहते हुए लोकतंत्र बहाली के तमाम आंदोलनों में शिरकत की तथा लोकतंत्र की बहाली के सवाल को सतत रूप से सोशलिस्ट इंटरनेशनल तथा इंटरनेशनल यूनियन ऑफ सोशलिस्ट यूथ जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में उठाया और लोकतंत्र की बहाली संबंधी प्रस्ताव पारित कराए। दिल्ली स्थित समूहों के सैकड़ों विरोध प्रदर्शनों में शिरकत की। मुझे लगता है कि अब फिर से वह समय आ गया है जब म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की खातिर लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्ध भारतीय विशेष तौर पर समाजवादी आगे आएं तथा आंदोलनकारियों का साथ दें।

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