— संजय गौतम —
एंटीगोनी!
जब से तुमसे परिचय हुआ है, मेरी स्मृति में अटक गई हो। उथल-पुथल मचा रही हो। किसी चित्र की तरह खिंच गई हो। संकल्प के चित्र की तरह। संकल्प का चित्र, जिसमें सौंदर्य की अनगिन रेखाएं हों, पीड़ा की अनगिन रेखाएं हों, दुख की अनगिन रेखाएं हों, साहस की अनगिन रेखाएं हों, अपने अदम्य मन को व्यक्त करने का सौंदर्य हो। कैसा कोमल था तुम्हारा मन, कैसा न्यायप्रिय था तुम्हारा मन। उस समय तुम अपने युवा प्रेम को जी रही थी। सपनों के आकाश में तैर रही थी। कंधे पर बाहें डालकर लरज रही थी। सीने पर सिर रख दिल से दिल का तार मिला रही थी, बाँह में झूलते हुए प्रेमी की आँख में अपने रूप को निरख रही थी। तुम चाहती तो युवा सपनों की इस दुनिया में संतरण करती रह सकती थी, लेकिन तुमने दूसरा रास्ता चुना। तुमने अपने भाई की लाश का अंतिम संस्कार करने का रास्ता चुना। अपने प्रिय भाई पालिनीसस की लाश का, जो राजाज्ञा से गिद्धों और कौवों के खाने के लिए खुले में फेंक दिया गया था। पूरे राज्य में किसी की हिम्मत नहीं थी कि उसके ऊपर एक मुट्ठी मिट्टी डाल दे। फूल चढ़ाने की तो बात ही अलग है।
तुमने अपनी बहन इस्मेने से अपने मन का संकल्प व्यक्त किया। बहन को तुमसे मोह था। उसने तो यही समझाया कि अब मरे हुए की चिंता छोड़ो और जीवन की राह पकड़ो। राजाज्ञा का उल्लंघन स्वयं की भी मृत्यु को पुकारना है। जीवन में सबसे बड़ी परीक्षा की घड़ी यही है। जीवन और मृत्यु में से एक को चुनना। ज्यादातर लोग तो जीवन को ही चुनेंगे। मृत्यु को कितने लोग चुनेंगे? वह भी मरे हुए के लिए। तर्कशास्त्र के हिसाब से मर जाने के बाद बचता ही क्या है, जिसके लिए आदमी अपनी जान दे। लेकिन भाव के हिसाब से तो मरने के बाद भी पूरा जीवन बचता है, इसलिए उसका अंतिम संस्कार तो गरिमा के साथ होना ही चाहिए। इतना भी नहीं किया तो क्या जवाब दोगी। तुमने इस गरिमापूर्ण प्रेम और दायित्व को समझा और चली गई, भाई के शव पर मिट्टी चढ़ाने।
सारे पहरेदारों, सैनिकों से छिपकर तुमने भाई की लाश को अच्छी तरह मिट्टी से ढककर, कब्र की तरह बनाकर फूल-माला चढ़ाया और फिर झाड़ी में छिपकर देखने लगी कि कहीं दोबारा उसे कोई खोले नहीं, कब्र को बिगाड़े नहीं। सैनिकों की नजर जब उसपर पड़ी तो उनके हाड़ काँप गए। शरीर के अंदर अकूत बल होते हुए भी वे भय से पीले पड़ने लगे। उन्हें अपनी खाल उधड़ने की चिंता सताने लगी। उनमें से एक भागा राजा को सूचित करने के लिए, ताकि अपनी वफादारी साबित कर सके। इधर सैनिकों ने व्याकुल हो शव के ऊपर पड़ी मिट्टी को, फूल को हटा दिया। शव फिर से धरती माता की गोद में आकाश के सामने नंगा हो गया। गिद्ध-चील कौवे से नुचने के लिए। यह सब कर सैनिक छिप गए। तुम आशंकावश झाड़ी से निकल कर आई। तुमने फिर से भाई के शव को इस हालत में देखा तो चीख पड़ी, उस पक्षी की तरह जो घोंसले में अपने बच्चे को न पा चीखती रहती है। तुम्हें सैनिकों ने पकड़ लिया। उनकी बहादुरी लौट आई। उनकी चमड़ी उधड़ने से बच गई। वे तुम्हें लेकर राजदरबार में गए।
उसी राजदरबार में जहाँ तुम्हारे मामा क्रीयों नए-नए राजा बने थे। उन्होंने तुम्हारे दोनों सगे भाइयों के शव के साथ विभेद किया था। अपने पक्ष से लड़नेवाले भाई को राजकीय सम्मान के साथ विदा किया था, जबकि विरोध में लड़नेवाले भाई के शव को खुले में छोड़ दिया था। गिद्ध-चील-कौवों से नुचने के लिए। सत्ता के खेल की कैसी तिकड़म है कि दोनों भाई परस्पर लड़ मरे थे। दोनो ही तुम्हें प्रिय थे। तुम्हारा मन होता तो तुम राजकीय सम्मान से विदा लेनेवाले भाई का पक्ष चुनकर राजकीय संरक्षण प्राप्त कर लेती, लेकिन तुमने दूसरे भाई को चुना, क्योंकि तुम्हारा विश्वास इस बुनियादी बात में था कि मृत्यु के बाद सम्मान पाना, सम्मानपूर्वक धरती माँ की गोद में सोना प्राकृतिक न्याय है। तुमने राजाज्ञा का उल्लंघन कर न्याय का पक्ष लिया, इसलिए पकड़ कर दरबार में लाई गई। राजा बने अपने मामा के पास।
उन्होंने जब तुम्हें राजाज्ञा की याद दिलाई तो तुमने साफ-साफ कह दिया कि ईश्वर की आज्ञा के आगे, प्रकृति की आज्ञा के आगे राजाज्ञा क्या है? यह तो आती जाती रहती है। सत्ता आती है, फिर चली जाती है। सच, ईश्वर- खुदा ऐसे ही क्षणों में सबसे सुंदर रूप में हमारे पास आता है। आता है और आत्मा को विश्वास से भर देता है। सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति भी तुच्छ नजर आता है। जिसके साथ ईश्वर है, उसका अब कोई क्या बिगाड़ लेगा। अधिक से अधिक मौत देगा। और भी अच्छा। ईश्वर के पास पहुँच जाएगा। सभ्यता के शुरू से लेकर अब तक न जाने कितने मनुष्यों ने- साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, बौद्धिकों ने- मनुष्य की गरिमा के लिए, इंसानियत को जिंदा रखने के लिए, सच्चाई को सामने लाने के लिए, सत्य के संधान के लिए, आत्मसत्य को बचाने के लिए ईश्वर की शक्ति के विश्वास से, ईश्वर की गुलामी करते हुए राजसत्ता के मद को क्षार-क्षार कर दिया है, राख कर दिया है, धूल कर दिया है। तुमने राजसत्ता को इस शक्ति का एहसास कराकर सभ्यता की बुनियाद में मनुष्य की गरिमा को, इंसानियत को, न्याय को स्थापित किया।
तुम्हें अपनी न्याय-बुद्धि पर भरोसा था, इसलिए तुमने हँसते-हँसते दंड स्वीकार किया। तुम्हारा समर्पण देख तुम्हारी बहन भी दरबार में आ गई। तुम्हारी सजा में हिस्सेदार बनने के लिए। प्रेम ऐसा ही होता है, प्रेम यही होता है। सुख में हिस्सेदारी करना प्रेम नहीं प्रेम का ढोंग है। दुख में हिस्सेदारी करना ही प्रेम है। बहन ने कहा, भाई के शव के सम्मान के निर्णय में वह भी शामिल है। भले ही वह शामिल नहीं थी, लेकिन उसने शामिल होना स्वीकार किया, क्योंकि तुमने एक सही निर्णय लिया था। देर से ही सही, वह एक सही निर्णय में शामिल होना चाहती थी। तुम्हारे बराबर की सजा भुगतना चाहती थी। लेकिन तुमने भाई के शव के साक्षी होने का हवाला देकर उसे इस घटनाक्रम से पूरी तरह अलग कर दिया और अकेले सजा भुगतने को तैयार हुई। तुम्हें विश्वास था कि पूरा राजदरबार तुम्हारे प्राकृतिक न्याय कर्म के साथ है, लेकिन तुम यह भी जानती थी कि राजदंड के डर से कोई बोलेगा नहीं। तुमने अपने मामा राजा क्रीयों से पाए दंड को अपनी आत्मा की शक्ति से स्वीकार किया।
तुम तैयार हो गई, खुदी हुई खाई में दीवारों से चिने जाने के लिए। राजा ने कहा, वह तुम्हें मारेंगे नहीं, मारने का दोष अपने ऊपर नहीं लेंगे, वह तुम्हें सिर्फ दीवारों से चिनवा कर लोंगों से तुम्हारा मिलना-जुलना बंद कर देंगे। मिलना-जुलना बंद हो जाएगा तो तुम्हारी सोच लोगों तक नहीं पहुँचेगी, तुम्हारे विचार लोगों तक नहीं पहुँचेगे और राजसत्ता सुरक्षित हो जाएगी। सभी लोग राजा की बात मानेंगे, कभी कोई विद्रोह नहीं करेगा। हर राजसत्ता यही मूर्खता करती है। वह विचारों को जितना दबाना चाहती है, विचारों की फसल उतनी ही लहलहाती है, उतनी ही हरियाती है, उतनी ही फैलती है, उतनी ही लोगों की आत्मा को जगाती है, आत्मा को जगाकर देह को, मन को फौलाद बना देती है। उन्हें नहीं पता था कि सिर्फ एक शव का मानवीय गरिमा के साथ अंतिम संस्कार करने के तुम्हारे प्रयास से ही विचार की सुरभि लोगों तक पहुँच गई है। लोगों की न्याय बुद्धि जगने लगी है, लोगों के भीतर राजाज्ञा के प्रति गुस्सा सुलगने लगा है, लेकिन राजदंड के भय से एक चुप्पी छाई हुई है।
हालांकि इस चुप्पी की सूचना तुम्हारे प्रेमी और राजपुत्र ने स्वयं दरबार में उपस्थित हो राजा को दी। उसने राज्य में हो रही सुगबुगाहट का पता दिया, लेकिन मद में चूर सत्ता किसी की बात सुनती कहाँ है। उसने तो मान लिया कि पुत्र तुम्हारे प्रेम में है, इसलिए ऐसी बातें कर रहा है। राजसत्ता ने प्रेम की परवाह नहीं की। उसने तो प्रेम को सिर्फ एक लड़की के साथ संबंध होना माना। माना कि उनके पुत्र के लिए तमाम लड़कियां मिल जाएंगी। लोग ऐसा ही सोचते हैं, प्रेम माने सिर्फ एक लड़की। यह नहीं जानते कि प्रेम किसी के साथ आत्मिक संबंध का नाम है, जुड़ गया तो जुड़ गया। पुत्र तुम्हारे प्रेम में पिता से अलग हो गया। वह तुम्हारी खोज में चल पड़ा। वहाँ जहाँ तुम्हें दीवारों में चिनवाया जा रहा था।
सत्ता को अपने ऊपर आनेवाली विपत्ति से बड़ा डर लगता है, अपनी सत्ता खोने से बड़ा डर लगता है। जो सत्ता सभी को मौत की सजा बाँटती रहती है, वह अपने ऊपर कौवे मँडराने से भी डर जाती है। ऐसी ही भविष्यवाणी की एक ज्योतिषी ने, जिसकी कही बात खाली नहीं जाती थी। पहले तो राजा ने यही कहा कि सब के सब पैसे पर बिक गए हैं और झूठ बोल रहे हैं, लेकिन जब ज्योतिषी चेतावनी देकर चला गया तो दरबारियों के डराने पर राजा सचमुच डर गया। शव का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार करने के लिए राजकर्मियों के साथ दौड़ा। वहीं से उसे अपने पुत्र की भी आवाज सुनाई पड़ी। वह पुत्र की ओर बढ़ा। देखता क्या है कि तुम्हारा शव पेड़ से लटका है और पुत्र तुम्हारे शव को पकड़े हुए है। अपने कंधे से लगाए हुए है। राजा को आता हुआ देख पुत्र ने खंजर निकाल अपने सीने में उतार दिया। खून के फव्वारे से तुम दोनों की आत्मा ने नहा लिया। उसके हलक से निकले हुए खून ने तुम्हारे गालों को प्रेम के गाढ़े रंग से रंग दिया। प्रेम के लिए, न्याय के लिए, मनुष्य की गरिमा के लिए, शव को अंतिम सम्मान देने के लिए, इंसानियत के लिए दो युवा कुर्बान हो गए।
सत्ता हाथ मलती रह गई। सत्ता के हाथ क्षार ही लगता है। राख ही लगती है। श्मशान की राख हो या फिर घर जलने की। क्रीयों पुत्र के खून से रँग कर घर लौटा तो घर भी जला मिला। पुत्र की मौत की खबर पाकर रानी ने भी सीने में कटार उतार ली। तीन-तीन हत्याओं का बोझ लेकर क्रीयों महल में बेचैन घूमने लगा। आज तक क्रीयों बेचैन घूम रहा है, लेकिन मजे की बात देखो कि सभ्यता ने अभी तक उसकी बेचैनी नहीं देखी।
करीब चार-साढ़े चार सौ ईसापूर्व तुम्हारा जन्म मान लिया जाए तो बीते ढाई हजार सालों में दुनिया की सभ्यता ने सत्ता के लिए जाने कितने युद्ध देखे, सत्ताओं ने जाने कितने अत्याचार किए। तलवार की नोक पर उछालने से लेकर गेस्टापो और कंसेंट्रेशन कैंपों में डालने तक मनुष्य की गरिमा, इंसानियत क्षत-विक्षत होती रही। इसके विरोध में कितने चिंतकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, साहित्यकारों, संतों, आंदोलनकर्मियों ने बलिदान दिए। कभी हालत थोड़ी सुधरी भी, लेकिन बार-बार सभ्यता उसी दौर में लौट आती है।
दो-दो विश्वयुद्धों के बाद लगा था कि दुनिया अब शांति और समानता की ओर बढ़ेगी, लेकिन यहाँ तो परमाणु बमों और रासायनिक हथियारों के जखीरे लगाए जा रहे हैं। औद्योगिक सभ्यता ने शुरुआती दौर में जो नरकवास बनाए, उससे मुक्ति के आंदोलन ने समानता को बढ़ावा दिया और तमाम नियम-कानूनों के जरिये मनुष्य की गरिमा को प्रतिष्ठित किया, मानवाधिकारों को प्रतिष्ठित किया। थोरो, मार्क्स, रस्किन, टालस्टाय, गांधी जैसे कितनों ने मानव की प्रतिष्ठा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
लेकिन सत्ता हमेशा नए-नए दांव खेलती रहती है। सौ सालों में ही हम फिर एक दूसरी धुरी पर आ गए हैं। विश्वग्राम का मुखौटा पहनकर पूँजी दुनिया में ऐसी व्यवस्था बना रही है, जिसमें एक ओर स्वर्णपुरी की रोशनी रहेगी और दूसरी ओर नरकवास का अंधेरा। सारी रोशनी एक तरफ, सारा अंधेरा दूसरी तरफ। फिर एक बार अंधेरे में रह रहे लोगों को मानवीय गरिमा की रोशनी पाने के लिए लड़ना पड़ेगा, न्योछावर होना पड़ेगा।
बार-बार ऐसा क्यों होता है एंटीगोनी? क्यों होता है ऐसा कि बार-बार शहीद होना पड़ता है मनुष्य को, मनुष्य की गरिमा की वापसी के लिए। इतिहास के सारे सच तो यही कहते हैं कि जैसे सत्ता का अहंकार एक सतत प्रक्रिया है, वैसे ही शहादत भी एक सतत प्रक्रिया है। यदि सतत न रहता तो तुम्हारा बलिदान भी अभी तक जीवित न रहता एंटीगोनी। तुम मनुष्य की स्मृति में अभी तक सुरक्षित नहीं रहती, न ही यूनान की छोटी सी दुनिया से निकलकर संसार भर की यात्रा कर रही होती, न ही तुम्हें रचने वाले सोफोक्लीज करीब ढाई हजार साल के बाद भी बार-बार मनुष्य की चेतना में जीवित सत्ता की तरह उपस्थित होकर उसे झकझोरते रहते, न ही तुम्हारे अनेक सगोत्री साहित्य के रूप में, मिथक के रूप में, पौराणिक कथाओं के रूप में, काव्य के रूप में मानव समाज की अंतश्चेतना के अंग बने रहते और वक्त जरूरत पर सजीव देह के रूप में सत्ता को परेशान करते।
तुम्हें यह जानकर अच्छा लगेगा कि तुम और तुम्हारे सगोत्री संघर्षशील मनुष्य की चेतना में बैठे रहते हैं, उससे बातचीत करते रहते हैं। कभी-कभी एकदम से बाहर आ जाते हैं। लोक के साथ बोलने-बतियाने वाले कवि भवानी प्रसाद मिश्र के साथ ऐसा ही हुआ। उन्होंने जब अंग्रेजी भाषा में तुमसे परिचय किया तो उन्हें लगा कि तुम्हारा परिचय हिंदी जनता से भी हो। वह लगातार तुमसे बातें करते रहे, तुम्हारे मन तक पहुँचने की कोशिश करते रहे। लगभग आठ साल गुजर गए ऐसा करते हुए, लेकिन जब देश में आपातकाल लगा तो तुम जैसे उनकी आँखों के आगे प्रत्यक्ष हो गई। तुम भाव रूप में उनके सामने आ गई। तुम्हारी भाषा और उनकी भाषा एक हो गई। दोनों एक लय में चलने लगे। तुम्हारी लय के साथ उनकी लय मिल गई और प्रवाह बन गया। उन्होंने तुम्हें हिंदी जनता के सामने खड़ा कर दिया। साकार कर दिया। और देखो इतने दिनों बाद तुम्हें देखते हुए मैं भी तुमसे बात-चीत को मचलने लगा। थोड़ी- बहुत ही बातें हुईं। पूरी बात करने लायक बुद्धि, साहस और भाषा कहाँ अर्जित कर पाया मैं। बस बार-बार मन में यही आता है कि सत्ता को जब अंत में क्षार ही मिलता है, श्मशान और घर की राख ही मिलती है तो फिर बार-बार वह शक्ति का ऐसा ऐश्वर्यशाली सुवर्णमहल क्यों बनाती है, जहाँ लोगों की आवाजें सुनाई नहीं पड़तीं, लोगों का दम घुटने लगता है। बार-बार मनुष्य की गरिमा को दीवारों से क्यों चिनवाती है? बार-बार मनुष्य की लाशों को गिद्ध-कौवों के लिए क्यों छोड़ देती है? बार-बार मनुष्य की शहादत क्यों लेती है? मानवीय करूणा, मानवीय गरिमा को सुरक्षित रखते हुए सभ्यता की सीढ़ियाँ क्यों नहीं चढ़ती? बताओ एंटीगोनी। क्या तुम इसका उत्तर दोगी?