— शर्मिला जालान —
कविता हो या लेख या कोई संस्मरण, गगन गिल उसमें संदर्भ, परिवेश और पड़ोस सामने रखती हैं और उसी में बुनती जाती हैं अपना निजी और व्यक्तिक लगनेवाला निर्वैयक्तिक-सा संसार, जिसके प्रति हम लगाव महसूस करने लगते हैं और उसमें जो उन्मेष और ‘करुणा’ तत्त्व है उससे जुड़ जाते हैं।
उनकी अपनी विशिष्ट भाषा है, गद्य में कविता लाने की साध, विशिष्ट चिताएं, प्रश्नाकुलाताएं, जिज्ञासाएं, समृद्ध यथार्थ चेतना और स्मृति का अनुभव संसार।
‘दिल्ली में उनींदे’ और ‘अवाक्’ के बाद गगन गिल की दो गद्य की पुस्तकें –‘देह की मुंडेर पर’ और ‘इत्यादि’ (वाणी प्रकाशन) से लगभग एक दशक बाद आई हैं।
अपने अनुपम यात्रा-वृत्तांत ‘अवाक्’ में उन्होंने जैसे एक नया गद्य रचा था वैसा ही स्वाद इन दो नयी पुस्तकों में भी हमें मिलता है। यहाँ छोटे-छोटे वाक्यों के पैराग्राफ हैं और पारदर्शी ताजगी-भरी भाषा, जो आर पार देखने में मदद करती है।
“आपको मालूम है, आपके पास सबसे सुन्दर चीज क्या है? आपका मन। जानती हैं, यह एक दुधारी तलवार है? यह जीने के काम भी आ सकती है, मरने के भी। अभी आप इसे जीने के काम में लायें। मरा तो कभी भी जा सकता है। नहीं?” (एक छोटी सी दिलासा)
‘इत्यादि’ एक ऐसी किताब है जिसमें समय-समय पर लिखे संस्मरणात्मक लेखों को श्रृंखलागत रूप दिया गया है। ये स्मृति-आख्यान एक रेखीय नहीं हैं। कभी हम सुदूर अतीत में चले जाते हैं तो कभी वर्षों आगे के समय में।
वे भूमिका में लिखती हैं –
“ये मेरे जीवन के ठहरे हुए समय हैं, ठहरी हुई मैं हूँ।”
“बहुत सारे समयों का, स्मृतियों का घाल-मेल। कभी मैं ये सब हूँ, कभी इनमें से एक भी नहीं। यह तारों की छाँव में चलने जैसा है। बीत गए जीवन का पुण्य स्मरण। एक लेखक के आतंरिक जीवन का एडवेंचर।”
यहाँ कथ्य और आत्मकथ्य आपस में गुँथा हुआ है। आत्मकथ्यात्मक और कथ्यात्मक दोनों के बीच के ये लेख संस्मरण की तरह नहीं लिखे गए हैं। घटे ये अतीत में ही हैं और गगन गिल उन्हें अतीत में जाकर ही देखती हैं लेकिन पारम्परिक विधा को तोड़ते हुए। कभी बीच में निबंध शुरू हो जाता है तो कभी कहानी आ जाती है। कई बार उनके छोटे-छोटे वाक्यों और वर्णनों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि लेख का यह टुकड़ा किसी कथाकार द्वारा लिखा गया है जिसमें अनेक व्यक्ति आते-जाते हैं, उनकी छवियाँ, उक्तियाँ संवाद, भंगिमाएं और क्रियाएँ, प्रतिक्रियाएं, बेहद संवेदनशीलता रचित है अपनी पूरी चित्रमयता में।
इन परिपक्व लेखों में अपने वक्त के असाधारण मनीषियों – दलाई लामा, दयाकृष्ण,रिनपोछे, कृष्णनाथ, शंख घोष, लोठार लुत्से, पॉल एंगल के रेखाचित्र इस तरह हमारे सामने आते हैं कि वे पाठक कोसहज, सरल आत्मीय जान पड़ते हैं।उनकी असाधारण बातों का ही जिक्र नहीं करतीं उन्हें हमारे लिए सहजसरल आत्मीय बना देती हैं।इन असाधारण लोगोंके साथ-संग ने किस तरह उनकी मनीषा का निर्माण किया यह भी हम जान पाते हैं।
हम जानते हैं कि तिब्बती धर्म-संस्कृति, दर्शन और बौद्ध धर्म के चिंतक सामदोंग रिनपोछे का मिलारेपा की परम्परा में आत्मज्ञान, त्याग, और सम्यक दृष्टि से भरा-पूरा गरिमामय व्यक्तित्व है। उनमें दर्शन और काव्य का अपूर्व संगम है। उन्होंने ‘धम्मपद’ की देशना को जीया है, ‘हिन्द स्वराज’ का मंथन किया है। उनके दिए व्याख्यान और लेखन में शास्त्रीय दुरूहता और दार्शनिक शुष्कता के स्थान पर सहज स्फूर्त वेग है जो मनुष्य को निरंतर उसके अंतर्लोक में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करता है। धर्म की प्राणोद्बोधक व्याख्याओं के माध्यम से उन्होंने अखिल विश्व में अपनी अनूठी पहचान बनाई है|
गगन गिल के लेख के माध्यम से रिनपोछे के आत्मीय स्वरूप और व्यक्तित्व का पता चलता है|
उनका गद्य अपने कहन के ढंग में, अपनी प्रवृत्ति में अलग है। धीर, शांत, चिंतनपरक। जहाँ पीड़ा और करुणा का भाव है वहां सांत्वना और आश्वस्ति भी। वहां आंतरिकता से संवाद है जो एकालाप में बदल जाता है। साथ ही उनका वह विनोदी भाव भी, जो आह्लादित करता है। विनोदी स्वभाव का आनंद हम रिनपोछे से हुए लेखक के संवाद से जान पाते हैं कि लेखक के घर में कुमुद खिला है कमल नहीं।
“रात एक बजे। कम्पुटर पर काम कर रही थी। खिड़की से देखा, चाँदनी में कमल खिला पड़ा है। मैं तुरंत बाहर गयी।
बोले, कुमुद है।
क्या?
आपका फूल कमल नहीं कुमुद है। कमल दिन में खिलता है, कुमुद रात को। आपको नहीं पता था? अमरकोश में देख लीजिए।
अगले दिन मैने अमरकोश मँगवाया अर्जेंट। फूल कुमुद ही था।
इतने दिन मैं देवी को रिझाने के लिए बैठी रही, आखिर फूल खिला और कमबख्त कमल नहीं, कुमुद निकला!” (रिनपोछे)
इन सघन लेखों में एकसूत्रता भी है और गहरा चिंतन-मनन भी। हर लेख में डुबकी लगाने से ही उसकी गहराई का अंदाज लग सकता है। वे अपने लेखों में पौराणिक मिथकों का जिक्र करती हैं जो विरल है। ‘दीक्षा पर्व’ में मिथकों से संवाद के साथ गहरी निजी जिज्ञासाएं और प्रश्नाकुलाताएं हैं, बौद्ध धर्म पर चिंतन-मनन है तो अपने धर्मान्तरण पर शंकाएं और द्वन्द्व भी।
“जिज्ञासा अच्छी चीज है। किसी धर्म के बारे में जानना चाहते हैं, जरूर जानें। लेकिन धर्मान्तरण? यह एक नाजुक विषय है। इससे जीवन में घनघोर उथल–पुथल हो सकती है।”
“..मैं भीष्म पितामह के पास बैठी रहती हूँ। शरशैया पर वह लेटे हैं।”
“श्रीकृष्ण के विश्व–रूप की, द्रौपदी का चीर-वस्त्र सँभालने की चर्चा होती है, लेकिन उनके हाथ के विराट रूप पर कर्ण की चिता की कभी नहीं। जाने क्यों?”
“और राजकुमार सिद्धार्थ।
आधी रात को महल में से निकलते हुए नहीं, भिक्षा–पात्र के पास बैठे हुए दिखते हैं।
बुद्ध–कथा इस प्रसंग पर ठिठकती भी नहीं, मैं रात-दिन वहां खड़ी रहती हूँ, सिद्धार्थ की कठौती के पास। उस अप्रिय अन्न के पास।
वह इसे कहां लेंगे?” (दीक्षा पर्व)
‘चिनिले न आमारे कि?’ में वे कहती हैं कि बुद्ध से ज्यादा लगाव रवीन्द्रनाथ से है। रवीन्द्रनाथ जहाँ उत्कट चाहना की बात करते हैं वहीं एकाकीपन की भी।
“अपना फड़फड़ाता हुआ दिल सीने में लेकर अकेले चले जाते गुरुदेव।” – वे इस निबंध में कहती हैं कि
“मैत्रेयी देवी के संस्मरण ‘टैगोर बाय ड फ़ायरसाइड’ में थोड़ी-सी झलक रवीन्द्रनाथ के इस अकेलेपन की मिलती है|”
वे शंख दा से पूछती हैं – “क्या गुरुदेव प्लैनचेट करते थे?”
1984 के दंगों से बच निकली एक युवा लड़की के अनुभव पर लिखा गया मार्मिक लेख –‘स्मृति और दंश’ पढ़कर मन व्याकुल हो जाता है। एक जगह लिखती हैं –
“हम तीसरी मंजिल की स्टडी में छिपे बैठे रहे। पांच ऐन फ्रैंक और एक माँ”
“चेख़व के किसी संतप्त ,पीड़ित चरित्र की तरह”
“माँ सन 1984 के दंगों में घिरीं तो उन्हें सन 1947 याद आया। मैं सन 2002 का गुजरात देख रही हूँ तो सन 84 नहीं भूलता।”
“क्या स्मृति का दंश से इतना गहरा सम्बन्ध होता है?” (स्मृति और दंश)
इस तरह इस पुस्तक में संकलित नौ लेखों वे नौ खिड़कियाँ हैं जो एक ठोस वस्तुगत संसार के भीतर और बाहर को, अन्तर्यात्राओं को दिखाती हैं।
सिखों के दंगों, यात्राओं का अनुभव हो, या दीक्षा लेने का अनुभव, सब को लेकर गगन गिल के अंदर जिज्ञासाएं हैं और प्रश्नाकुलताएं भी।
कभी 1984 के सिख विरोधी दंगों के भीतर के तनावों, दबावों और दंश से हम विचलित होते हैं तो कभी गर्दन से नीचे विकलांग महिला से हो रहे संवाद से व्यथित और व्याकुल।
हम इन लेखों में कृष्णनाथ, शंख घोष को देख पाते हैं तो कभी लोठार लुत्से और पॉल एंगल को।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में आवाजाही करते इन लेखों में कथा का प्रवाह और कविता की सघन आत्मीयता है। इन लेखों में अनेक व्यक्ति साधारण और आसाधारण आते जाते रहते हैं। उनकी छवियाँ, क्रियाएं-प्रतिक्रियाएँ, भंगिमाएं, उक्तियां, संवाद, गहरे अनुभव व संवेदनशीलता, राग-विराग और लालसा के साथ लिखे गए हैं। इन लेखों की घटनाएँ और दृश्य हमें भावनाओं और अनुभव के ऐसे संसार में ले जाते हैं जहाँ मनुष्य होने के रहस्य और विस्मय का आलोक फैला हुआ है|
इत्यादि (स्मृति आख्यान)
लेखक- गगन गिल
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली।
मूल्य- 295 रु.