हर व्यक्ति-देश-समाज-संस्कृति का अपना एक स्मृति-संसार होता है जिसमें विशिष्ट व्यक्तियों, घटनाओं, तिथियों और अभियानों से प्रेरणा मिलती है। उन्हें स्मरणीय और अनुकरणीय माना जाता है। इस क्रम में आधुनिक भारत की नव-निर्माण यात्रा में तीन तारीखों का ऐतिहासिक महत्त्व है : पूर्ण स्वराज के संकल्प के लिए 26 जनवरी; लोकतांत्रिक राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध संविधान के लोकार्पण का दिन 26 नवम्बर; और ‘देश के नव-निर्माण के लिए सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान का दिन 5 जून।
26 जनवरी 1930 को ‘पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने की सार्वजनिक प्रतिज्ञा ली गयी और 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश राज की समाप्ति के रूप में पूर्ण स्वराज मिलने तक अगले सत्रह सालों के दौरान अनवरत आन्दोलन चलाये गये। इसी प्रकार 26 नवम्बर 1949 भारत का ‘संविधान दिवस’ है। यह साम्राज्यवादी-विरोधी संघर्ष से जुड़े भारतीय स्त्री-पुरुषों की राजनीतिक दूरदर्शिता और सृजन क्षमता की श्रेष्ठ तिथि है। इसी दिन स्वतंत्रता, न्याय, समता, बंधुत्व और एकता पर आधारित लोकतांत्रिक राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध विश्व-स्तरीय संविधान की रचना पूरी करके स्वयं को समर्पित किया।
हमारे ताजा इतिहास में 5 जून 1974 को हुए ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के रोमांचक आह्वान के कारण अपना असाधारण महत्त्व है। तब तक स्वराज और संसदीय जनतंत्र के 27 बरस बीत गए थे और स्वाधीनोत्तर विकास-दिशा के बारे में पूर्ण मोहभंग हो चुका था। बेरोजगारी, महंगाई और शैक्षिक अराजकता से चौतरफा बेचैनी थी। राजनीति में फैली अनैतिकता और सत्ता-प्रतिष्ठान में उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात से बिहार तक जनसाधारण में असंतोष की बाढ़ थी। परिवर्तन के लिए मार्क्सवाद-माओवाद के हिंसक वर्ग-संघर्ष के रास्ते की ओर मुड़ गए युवक-युवतियों का बंगाल समेत चौतरफा दमन हो रहा था। उत्तर प्रदेश में सशस्त्र पुलिस बल में ही बगावत हो गई। रेल मजदूरों ने लम्बी देशव्यापी हड़ताल की और राजसत्ता ने मजदूरों को जेलों में ठूंस दिया। ऐसे अभूतपूर्व संकट से देश को निकालने के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के आह्वान से एक नया दिशा-बोध मिला। इसने समूचे राष्ट्रनिर्माण-विमर्श में ऐतिहासिक बदलावों की शुरुआत की और आगे जाकर 1975-77, 1989-92, 2011-14 में राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तन की राजनीति की लहरें उठीं।
26 जनवरी – पूर्ण स्वराज का महास्वप्न
भारत के लोगों ने 26 जनवरी को 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विराट अधिवेशन में दो सौ बरस की ब्रिटिश गुलामी से पूर्ण स्वराज की सार्वजनिक प्रतिज्ञा ली थी। यह लोकमान्य तिलक द्वारा 1916 में दिए गए मंत्र की चरम परिणति थी – ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।’
इस महास्वप्न को पूरा करने में दो दशक का समय लगा। इसके लिए एक तरफ गांधी-पटेल-राजाजी की पीढ़ी को नेहरू-सुभाष-नरेन्द्रदेव की पीढ़ी के साथ समन्वय करना पड़ा। दूसरी तरफ, करोड़ों दलितों और आदिवासियों के साथ सदियों से हो रहे अन्यायों का प्रायश्चित जरुरी हुआ। इसमें गांधी–आम्बेडकर संवाद, पूना समझौता और गांधी के अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान की केन्द्रीय भूमिका रही। भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को राजनीतिक आधार प्रदान करने के लिए ब्रिटिश भारत और 550 देशी रियासतों के जनसाधारण में पूर्ण स्वराज के लक्ष्य के जरिये निकटता बनायी गयी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की ‘बांटो और राज करो’ की कूटनीति के कारण मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसे सांप्रदायिक दलों के माध्यम से सांप्रदायिक दंगे बढ़े और बंटवारे की मांग बढ़ती गयी।
इसके बावजूद पूरे देश ने क्रमश: एकजुट होकर ‘पूर्ण स्वराज’ के प्रेरक सपने को 1930 से 1947 के बीच अगले बीस बरस तक हर साल 26 जनवरी को सार्वजनिक समारोहों के जरिये ज़िंदा रखा।
1930 में ‘नमक सत्याग्रह’, 1940 में ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ और 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान गांधी समेत हजारों लोगों ने बार-बार सत्याग्रह किये। बंदी जीवन का वरण किया। भारत छोड़ो आन्दोलन में इस सपने को साकार करने के लिए ‘करो या मरो!’ का आह्वान किया गया और सचमुच आर-पार का संघर्ष हुआ। 9 अगस्त और 21 सितंबर के शुरुआती छह हफ्तों में ही 70 पुलिस स्टेशन, 85 सरकारी भवन, 250 रेल स्टेशन, और 550 डाकखाने जनविद्रोह में क्षतिग्रस्त कर दिए गए। ढाई हजार से अधिक टेलेफोन के खम्भे उखाड़ दिए गए। सतारा (महाराष्ट्र), तलचर (ओड़िशा), मिदनापुर (बंगाल) और बलिया (उत्तर प्रदेश) में जनता ने प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। ब्रिटिश राज ने सेना की 57 बटालियनों का इस्तेमाल किया। पचास हजार से जादा लोग गोलियों के शिकार हुए। देशभर में एक लाख से जादा आंदोलनकारी गिरफ्तार किये गए और अगले तीन बरस तक कैद में रखे गए। एक अनुमान के अनुसार देश की बीस प्रतिशत जनता की हिस्सेदारी हुई। 1944-45 में नेताजी सुभाष द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज की कुर्बानियों और बम्बई के नौसैनिक विद्रोह ने ब्रिटिश राज की बुनियाद हिला दी। 1947 में ब्रिटिश भारत के रक्तरंजित विभाजन की पीड़ा से गुजरना पड़ा।
अंतत: 15 अगस्त 1947 को देश पूर्ण स्वाधीनता का हकदार बना और दिल्ली में लालकिले पर, हर प्रदेश की राजधानी में और हर जिले के मुख्यालय पर ब्रिटिश झंडे की जगह राष्ट्रीय तिरंगा फहराने लगा। आज 26 जनवरी भारत के सालाना कैलेंडर में ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में सबसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय उत्सव का दिन हो चुका है।
26 नवम्बर – राष्ट्र-निर्माण के पथप्रदर्शक संविधान का लोकार्पण
26 नवम्बर को मनाया जानेवाला ‘संविधान दिवस’ भारतीय संविधान की रचना के समापन और लोकार्पण से जुड़ी तिथि है। शुरू में इसको कम महत्त्व दिया गया। एक तो भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के सदस्यों का चुनाव कुल जनसंख्या के मात्र 15 प्रतिशत मतदाताओं द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक संक्रमण के माहौल में हुआ था। दूसरे, वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव न कराने के कारण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका बहिष्कार किया था। तीसरे, इस संविधान पर ब्रिटिश राज के गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट (1935) का प्रबल प्रभाव था। इस दोष को दूर करने के लिए स्वयं कांग्रेस सरकार ने शुरू से ही संशोधनों का सहारा लिया। इंदिरा गांधी के प्रधानमन्त्री बनने पर, विशेषकर आपातकाल के दौरान कई दूरगामी प्रभाव वाले संशोधन कराये गए। लेकिन 1975-77 के आपातकाल के भयानक अनुभवों के बाद देश के सरोकारी नागरिकों और मीडिया की निगाहों में भारतीय संविधान का महत्त्व बढ़ने लगा।
1977-79 के बीच की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसके जनतांत्रिक आयाम को नयी दृढ़ता दी। बाद की सरकारों द्वारा भी पिछले तीन दशकों में इसमें कई प्रगतिशील सुधारों का समावेश किया गया है। इसमें मताधिकार की आयु अठारह बरस करने, शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने, सूचना अधिकार, वन सम्पदा अधिकार, पिछड़े वर्गों को आरक्षण और पंचायती राज सम्बन्धी संशोधन उल्लेखनीय हैं। महिला सशक्तीकरण, भूख और कुपोषण से रक्षा और स्वास्थ्य अधिकार के महत्त्वपूर्ण अभियानों ने भी संविधान के महत्त्व को बढ़ाने में योगदान किया है। इसके विपरीत कुछ संगठनों द्वारा संविधान से धर्म-निरपेक्षता, समाजवाद, निर्बल वर्गों को आरक्षण और अल्पसंख्यकों को दी गयी सुरक्षा को हटाने का भी अभियान चलाया जा रहा है।
इस प्रकार उत्साहहीन माहौल में 1949 में हुए लोकार्पण के सात दशकों के बाद 104 संशोधनों के बावजूद यह भारतीय राष्ट्र-निर्माण के विमर्श में एक मजबूत धुरी बन चुका है। 470 धाराओं और 12 अनुसूचियों वाले भारतीय संविधान को लोकतांत्रिक संगठनों, विशेषकर महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों और पर्यावरण के प्रति सरोकार रखनेवाले मंचों द्वारा विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। समाजवादियों और कम्युनिस्ट संगठनों ने इसके बारे में अपनी आपत्तियों को भुला दिया है। इसलिए हाल के वर्षों में 26 नवंबर को नागरिक समाज द्वारा ‘संविधान दिवस’ के रूप में विशेष सक्रियता के साथ मनाया जाने लगा है।
5 जून – सम्पूर्ण क्रांति का दिशाबोध
स्थान – पटना का गांधी मैदान। कार्यक्रम – बिहार सरकार द्वारा चलाये जा रहे दमन-चक्र के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन का समापन। अनुमानित हाजिरी – पांच लाख स्त्री-पुरुष। वक्ता – जयप्रकाश नारायण। वक्तव्य का सारांश – ‘यह एक क्रांति है, सम्पूर्ण क्रांति। यह मात्र विधानसभा भंग करने का आन्दोलन नहीं है। हम सबको दूर तक जाना है, बहुत दूर तक। इसके लिए विद्यार्थियों–युवाओं को धीरज से जुटना होगा। इसमें अहिंसक उपाय ही अपनाए जाने चाहिए।’ इसके लिए हर विद्यालय-महाविद्यालय में छात्र-संघर्ष समितियों का गठन करने का आवाहन किया गया। हर गाँव–नगर में पंचायत और जिला स्तर पर जन संघर्ष समितियों की जरूरत बतायी गयी। ‘इन दोनों प्रकार की समितियों के समन्वय से पंचायत से लेकर जिला तक जनता सरकार के रूप में लोकशक्ति के उपकरणों का निर्माण किया जाएगा। लोकतंत्र के नाम पर हो रहे तंत्र की वर्चस्वता और उच्च स्तरों पर फ़ैल चुके भ्रष्टाचार को चुनौती देनी होगी। स्थानीय प्रशासन प्रबंधन, कालाबाजारी निर्मूलन, राशन दुकानों की निगरानी, दहेज़ लेना बंद करना, दलितों के साथ अपमानजनक व्यवहार से लेकर भूमि-वितरण में धांधली खत्म करना जनता सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल रहेगा। ये समितियां विधानसभा और लोकसभा के निर्वाचन में भी योगदान करके लोकतंत्र की चौकीदारी करेंगी। धनबल और बाहुबल का प्रतिरोध करेंगे….’
आखिर जयप्रकाश नारायण के इस रोमांचक आह्वान की क्या पृष्ठभूमि थी? देश-प्रदेश की क्या दशा थी?
(इससे आगे की चर्चा कल, लेख की अगली किस्त में )