— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती। वे किसी भी सरकार के गलत कदम का फौरन विरोध करती हैं – डॉ राममनोहर लोहिया के इस प्रसिद्ध राजनीतिक कथन को उनके एक अन्य प्रसिद्ध कथन – सड़कें जब सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है, के साथ मिलाकर समझने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि ये कथन जनतंत्र को राज्यसत्ता के नियंत्रण से निकालकर जनशक्ति के नियंत्रण में लाने का राजनीतिक संदेश देता है।
जनतंत्र में निश्चित समयावधि के बाद निर्वाचन के द्वारा जन प्रतिनिधियों का चुनाव होता है और यदि निर्वाचन के पश्चात जन प्रतिनिधि अपने कार्यकाल में जनता से वादाखिलाफी करता है तो जनता के पास एक विकल्प है कि वह अगले पांच साल तक चुनाव का इंतजार करे और चुनाव में फिर उन प्रतिनिधियों की जगह नये प्रतिनिधियों का चुनाव करे और फिर अगले पांच साल तक इंतजार करे कि ये नये प्रतिनिधि अपने वायदे पूरा करते हैं या नहीं, और संतुष्ट नहीं होने पर चुनाव के द्वारा फिर उन प्रतिनिधियों को हराकर नये प्रतिनिधियों का चुनाव करे…. इस प्रकार यह इंतजार और चुनाव का सिलसिला चलता रहे और जनतंत्र महज चुनावी तंत्र बनकर रह जाए।
दूसरा विकल्प है चुनाव के बाद जनता सतत जागरूक रहकर एक सक्रिय नागरिक की भूमिका निभाए और आवश्यक होने पर अपना विरोध-प्रतिरोध करके जन प्रतिनिधियों को वायदे पूरा करने के लिए बाध्य करे! जनता का शांतिपूर्ण संगठित विरोध और उसकी अभिव्यक्ति आंदोलनों के माध्यम से जनतंत्र में तंत्र पर जन अंकुश का कार्य करते हैं। जन अंकुश के बिना तंत्र के निरंकुश होने की संभावना प्रबल हो जाती है। परिणामतः जन प्रतिनिधि का आचरण जन-इच्छा से निर्देशित होने के बजाय स्वेच्छाचारी हो जाता है।
जनतंत्र महज चुनाव का नियमित होना और सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर चुने गए प्रतिनिधियों का शासन मात्र नहीं है।
यद्यपि नियमित निष्पक्ष निर्वाचन, वयस्क जनता के द्वारा निडरता से मतदान में भागीदारी जरूरी है किंतु निर्वाचन के पश्चात जनता के द्वारा प्रतिनिधियों के कार्यों की सतत जानकारी और उनके सार्वजनिक विचार तथा आचरण की निगरानी भी जरूरी है। इतना ही नही, आवश्यक होने पर असहमति प्रगट करके उनके विरोध की सार्वजनिक अभिव्यक्ति विभिन्न माध्यमों और तरीकों से जरूरी है। लोहिया का कथन इसी संदर्भ को उजागर करता है।
लोहिया जनतंत्र को मात्र संस्थागत ढांचा नहीं मानते थे और न यह मानते थे कि चुनाव के बाद जनता की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है।
भले जनतंत्र हो किंतु राज्यसत्ता में अत्यधिक शक्ति और उसपर जन अंकुश के अभाव में शक्ति के दुरूपयोग की संभावना बढ़ जाती है। लॉर्ड एक्टन ने शक्ति के आंतरिक चरित्र को स्पष्ट करते हुए लिखा था कि शक्ति में भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति होती है और निरंकुश शक्ति पूर्णरूप से भ्रष्ट करती है। राज्य शक्ति के निरंकुश चरित्र को रोकने के लिए राजनीति विज्ञान में सैद्धांतिक तरीका है…शासन की शक्तियों का शासन के कार्य-अंगों में पृथक्करण और सीमित शासन की स्थापना। ब्रिटिश राजनीतिक चिंतक जान लॉक तथा फ्रेंच राजनीति शास्त्री मोंटेस्क्यु ने इन सिद्धांतों के द्वारा राज्य शक्ति के दुरूपयोग को रोकने की वकालत की थी। राज्य-शक्ति के दुरूपयोग को रोकने के लिए गांधी, जयप्रकाश नारायण तथा लोहिया आदि ने शासन की शक्तियों के संस्थागत विकेंद्रीकरण का पक्ष लेते हुए एक विकेंद्रीकृत राज्य व्यवस्था को जरूरी माना।
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इसके बावजूद अगर संगठित राजनीतिक दल शासन के विभिन्न अंगों पर चुनावों के माध्यम से प्राप्त भारी बहुमत के बल पर स्वेच्छाचारी बन जाएं और विकेंद्रित राज्य व्यवस्था के निर्वाचित पदों पर भी अपना राजनैतिक नियंत्रण स्थापित कर लें तो शक्तियों का संस्थागत पृथक्करण और विकेंद्रीकरण भी शक्तियों के दुरूपयोग को रोकने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकता ।
तब आखिर जनतंत्र में चुने गए प्रतिनिधियों पर जन अंकुश कैसे स्थापित हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में एक अवधारणा यह है कि यदि प्रतिनिधियों को पाँच वर्ष तक मनमानी करने से रोकना है तो मतदाताओं को समय पूर्व अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का संवैधानिक अधिकार मिले जिसे वापस बुलाने का अधिकार कहते हैं। जयप्रकाश नारायण ने मतदाताओं के लिए इस अधिकार की पुरजोर वकालत की है।
इस संदर्भ में फ्रेंच विचारक रूसो, जो लोक संप्रभुता का उद्घोषक था, मानता था कि अप्रत्यक्ष जनतंत्र में जनता मतदान के दिन तो स्वतंत्र होती है किंतु शेष काल में गुलाम होती है अर्थात रूसो प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र के खिलाफ था लेकिन आज दुनिया में जितने भी जनतंत्र हैं वे प्रतिनिधिमूलक जनतंत्र हैं और प्रतिनिधिमूलक जनतंत्र में यदि राज्यसत्ता और प्रतिनिधियों के स्वेच्छाचारी कार्य, विधान तथा जनविरोधी नीतियों को रोकना है तो जनता में नागरिक अधिकारों तथा राजनीतिक स्वतंत्रताओं के विषय में चेतना और उन्हें राज्यसत्ता तथा प्रतिनिधियों के प्रति भक्ति तथा प्रतिनिधियों को स्वामी के बजाय जनसेवक मानने की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी।
डॉ भीमराव आंबेडकर ने भक्ति को राजनीति में अधिनायकवादी व्यवस्था को सहायता प्रदान करनेवाला मानकर इसके विरुद्ध संविधान सभा में स्पष्ट चेतावनी दी थी। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि किसी भी स्थिति में नागरिकों को अपने नेता के चरणों में अपनी स्वतंत्रता का त्याग नहीं करना चाहिए। दुनिया में राजनीति में नायक पूजा का परिणाम दो विश्वयुद्धों के बीच इटली में मुसोलिनी तथा जर्मनी में हिटलर जैसे तानाशाहों के उदय का कारण बना और ये देश ही नहीं दुनिया ने इसके भयानक दुष्परिणामों को भुगता।
जनतंत्र में जनता के अधिकार और उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता संविधान के द्वारा प्रदत्त तो होती है और उसकी सुरक्षा के लिए संवैधानिक संस्थाएं भी होती हैं किंतु क्या जनता अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए संवैधानिक संस्थाओं के भरोसे निश्चिन्त बैठ सकती है या जनता को अपने अधिकारों के प्रति सदैव सचेत रहने की आवश्यकता है और इसकी अभिव्यक्ति जनता के संगठित शांतिपूर्ण आंदोलन में ही हो सकती है। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रव्यापी अहिंसात्मक जन आंदोलन इसी जन चेतना का प्रतिफल था।
गांधी ने भारत की जनता को विरोध और प्रतिरोध का ऐसा अहिंसात्मक राजनीतिक हथियार दिया जो संसार के लिए स्वतंत्रता और अधिकार के संघर्ष का अनूठा उपकरण था। गांधी का असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन स्वतंत्र भारत के जनतंत्र में जनता को अपने अधिकार की रक्षा के लिए विरासत में मिले वो राजनैतिक हथियार थे जो राज्यसत्ता की स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध जनता प्रयोग कर सकती थी। सच तो ये है कि अगर आजादी के तुरंत बाद हिंदू कट्टरपंथी सांप्रदायिक शक्तियों की हिंसा के शिकार गांधी नहीं होते तो गांधी देश की स्वतंत्र कांग्रेसी सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सड़कों पर अहिंसात्मक विरोध कर चुके थे।
लोहिया ने स्वयं गांधी की राजनीतिक परंपरा का निर्वाह करते हुए देश की सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ न सिर्फ सत्याग्रह किया बल्कि जेल भी गए। इतना ही नहीं, राजनीति में नैतिक व लोकतांत्रिक मूल्यों का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया जब आजादी के बाद 1954 में त्रावणकोर (केरल) में पहली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की सरकार के शासन में पुलिस गोलीकांड में चार लोगों की मृत्यु के विरुद्ध अपनी ही सरकार के खिलाफ सत्याग्रह पर बैठ गए और सरकार के इस्तीफे की मांग कर दी। यह जनतंत्र में राज्यसत्ता के विरुद्ध कौम को जिंदा बनाये रखने के प्रमाण था। यहाँ तक कि लोहिया की पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी टूट गयी किंतु लोहिया ने राज्यसत्ता के हिंसात्मक दमन को स्वीकार नहीं किया। यह राजनीति में उस नैतिक सिद्धांत में अटूट विश्वास का प्रतीक था जो मानता था कि यदि चुनी हुई सरकार भी अनैतिक और जनविरोधी हो जाए तो उसका विरोध जनता का आपद् धर्म हो जाता है।
सरकार जनतंत्र में जनता के द्वारा चुनी होती है किंतु वह जनविरोधी कानून और नीतियां नहीं बनाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं होती, वह समाज के सामाजिक, आर्थिक यहाँ तक कि धार्मिक वर्चस्व वाले समूहों के हितों के लिए समाज के निर्धन, कमजोर, वंचित, अल्पसंख्यक या लैंगिक समूहों के हितों के विरुद्ध कानून और नीतियों का निर्माण करती है।
पूँजीवादी व्यवस्था में यह बात आम हो जाती है। समता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व की संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद सरकार अपने संसदीय बहुमत के बल पर नागरिक समानता विरोधी कानून या किसानों के हितों के विरुद्ध कानूनों का निर्माण कर सकती है। ऐसी स्थिति में जनता के विरोध और आंदोलन के सिवा क्या विकल्प बच जाता है?
तब सड़कों पर जनता का संगठित विरोध जनतंत्र में प्राण फूंकने का काम करता है। 1973 का गुजरात में सरकार के खिलाफ नव निर्माण आंदोलन और 1974-75 का जेपी का संपूर्ण क्रांति आंदोलन, जिनमें एक ने चुनी हुई , भ्रष्ट चिमन भाई पटेल की सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया तो दूसरे ने देश की अधिनायकवाद की राह पर चलती इंदिरा गांधी की सरकार को हराकर भारत में जनतंत्र को बचाया।