सामान्यतया संविधान किसी भी राज्य की शासनप्रणाली की एक रूपरेखा और उसके सुचारु संचालन के लिए कुछ कायदे-कानूनों की संहिता होती है जिससे हमें यह पता लग सकता है कि संबंधित राज्य की शासनप्रणाली संसदीय है या अध्यक्षात्मक, संघात्मक है या एकात्मक और केन्द्र तथा राज्यों के बीच संबंधों का निर्धारण किस प्रकार होना है; कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति-विभाजन और संबंधों का स्वरूप क्या होगा आदि, और कभी-कभी यह भी कि नागरिकों और राज्य के बीच रिश्तों का स्वरूप क्या होगा तथा राज्य द्वारा नागरिक अधिकारों के अतिक्रमण आदि के मामलों में नागरिक अपने हकों की रक्षा किस प्रकार कर सकता है।
लेकिन भारतीय संविधान की एक उल्लेखनीय और एक तरह से देखा जाय तो राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण चारित्रिकता यह है कि उसमें एक पूरा विस्तृत अध्याय राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों से संबंधित है। कानूनी दृष्टि से इस अध्याय को बहुत कमजोर माना जाता है- जो कि यह है भी- क्योंकि इस अध्याय में दिए गए निर्देशों को लागू करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। इन्हें लागू करवाने के लिए कोई नागरिक न्यायालय की शरण में नहीं जा सकता है जैसा कि वह अपने मूल अधिकारों के सिलसिले में कर सकता है। लेकिन, इसके बावजूद, नीति-निर्देशक तत्त्वों में संविधान की नैतिक और आर्थिक–राजनीतिक दृष्टि पूरी तरह प्रतिबिम्बित होती है और संविधान का सम्मान करने का दावा करनेवाली कोई भी सरकार यदि उस दृष्टि का सम्मान नहीं करती है तो यही मानना होगा कि वह संविधान को केवल एक कानूनी औपचारिकता मानती है और उसकी आत्मा का सम्मान नहीं करती। साथ ही, यदि राज्य की नीतियाँ इन नीति-निर्देशक तत्त्वों के विरुद्ध जाती हुई दिखाई दें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य प्रकारान्तर से संविधान की हत्या-जैसी ही कर रहा है।
संविधान को समझने और उसकी व्याखाया करने के लिए जब हम संविधान सभा में व्यक्त किए गए उद्गारों और संविधान-निर्माताओं की दृष्टि और भावना का जिक्र करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान कोई औपचारिक संहिता नहीं, बल्कि उस समाज-दर्शन की अभिव्यक्ति है, जिसे इस देश ने स्वीकार किया है। इस दृष्टि से देखें तो संविधान स्वयं एक विचारधारा हो जाता है, जिससे विचलित होने का अर्थ यही है कि राज्य चाहे तब भी कानूनी सत्ता बना रहे, पर नैतिक सत्ता होने की हैसियत से उसका विचलन हो जाता है। क्या भारतीय सन्दर्भ में विचारधारा के अंत की घोषणा करनेवाले इसे समझेंगे?
नीति-निर्देशक तत्त्व भारतीय संविधान में अन्तर्निहित विचारधारा और आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम की स्पष्ट अभिव्यक्ति हैं और किसी भी दल की सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि वह उनके अनुरूप कार्य करे। यदि वह ऐसा नहीं करती है तो वस्तुतः वह अपने नैतिक दायित्व से पलायन करनेवाली सरकार ही कही जा सकती है।
किसी भी राजनीतिक दल के गठन का औचित्य इसी बात में है कि वह एक विशेष राजनीतिक-आर्थिक दृष्टि को नागरिकों में मान्य करवाने और उनके समर्थन से सत्ता में आने पर उसे व्यवहार में लागू करने का प्रयत्न करता है। हर चुनाव में प्रत्येक दल इसी उद्देश्य से अपना चुनाव घोषणा-पत्र जारी करता है और सत्ता में आने के बाद यदि वह उसे भूल जाता है तो इसे उसका नैतिक पतन ही माना जाना चाहिए- यद्यपि इसके लिए उसपर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। भारतीय संविधान में शामिल राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व एक प्रकार से भारतीय सरकार– संघ एवं राज्य, दोनों ही की सरकारों– का वह कार्यक्रम घोषणा-पत्र है, जिसका प्रकाशन स्वयं भारतीय संविधान में ही कर दिया गया है। इसलिए सारे दलगत मतभेदों के बावजूद किसी भी चुनी गई सरकार का यह प्रथम दायित्व बनता है कि वह इस कार्यक्रम को लागू करने की दिशा में अग्रसर हो और यदि वह ऐसा नहीं करती है तो यह प्रकारान्तर से संविधान का नैतिक उल्लंघन तो है ही- कानूनी उल्लंघन चाहे न भी हो। लेकिन कानून एक व्यवस्था है और नैतिकता एक मूल्य-दृष्टि और किसी भी हालत में नैतिकता ही कानून की कसौटी होती है। कानून को नैतिकता की कसौटी नहीं माना जा सकता।
इस दृष्टि से देखा जाए तो निजीकरण, बाजारीकरण और आर्थिक वैश्वीकरण की नीतियाँ भारतीय संविधान की आत्मा पर आघात हैं क्योंकि यह आत्मा नीति-निर्देशक तत्त्वों में व्यंजित हुई है और उपर्युक्त नीतियाँ संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों की न केवल अनदेखी करती,बल्कि उनके बताये रास्ते से विपरीत दिशा में जाती हुई दिखायी देती हैं।
यहाँ यह स्मरण करना भी अस्थाने नहीं होगा कि हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों से संबंधित धाराओं और मानवाधिकार घोषणा-पत्र की आर्थिक अधिकारों से संबंधित धाराओं में लगभग साम्य है और नीति-निर्देशक तत्त्वों पर आघात मानवाधिकारों पर आघात भी समझा जाना चाहिए। यह भी एक विडंबना ही है कि जितना ध्यान राजनीतिक मानवाधिकारों पर दिया जाता है- जो दिया ही जाना चाहिए- उसका अल्पांश भी आर्थिक मानवाधिकारों पर नहीं दिया जाता।
भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों के आर्थिक नीति से संबंधित अनुच्छेदों में यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वहाँ एक समतावादी समाज की परिकल्पना की गयी है, जिसमें अर्थसत्ता पर बाजारू शक्तियों या प्रवृत्तियों का नहीं, बल्कि समाज का नियन्त्रण और हित साधन हो।
यह उल्लेखनीय है कि संविधान नीति-निर्देशक तत्त्वों को शासन के मूलभूत सिध्दांत बताते हुए राज्य को निर्देश देता है कि वह कानून बनाते समय इन तत्त्वों को लागू करना अपना कर्तव्य समझेगा। स्पष्ट है कि यदि राज्य ऐसा नहीं करता है तो संविधान की दृष्टि में वह कर्तव्य-च्युत समझा जाएगा। आर्थिक क्षेत्र में राज्य अपने इस कर्तव्य को न केवल पूरा नहीं कर पा रहा है, बल्कि उसकी दृष्टि और नीतियाँ अपने में ही उसकी दायित्वहीनता की घोषणा करती लगती हैं। संविधान की धारा अड़तीस में सामाजिक और राजनीतिक न्याय के साथ आर्थिक न्याय का भी उल्लेख किया गया है और इसी धारा के दूसरे भाग में आर्थिक न्याय की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि राज्य, विशेष तौर पर, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।
इसी अध्याय के अगले अनुच्छेद में सभी स्त्री-पुरुषों के लिए जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने के अधिकार को सुनिश्चित करने तथा समान कार्य के लिए समान वेतन की बात की गयी है। समुदाय के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को इस प्रकार बाँटने की बात की गयी है, जिससे समुदाय के हितों का संरक्षण हो सके। आर्थिक व्यवस्था में सर्वसाधारण के लिए धन और उत्पादन–साधनों के अहितकारी केन्द्रीकरण को रोकने का प्रस्ताव भी किया गया है। आगे के अनुच्छेदों में काम की उचित दशा और कर्मकारों के शिष्ट जीवन-स्तर आदि को सुनिश्चित करने के साथ-साथ उद्योगों के प्रबन्धन में कर्मकारों की सक्रिय सहभागिता निश्चित करने के लिए भी राज्य को निर्देश दिये गये हैं।
स्पष्ट है कि ये सभी निर्देश आर्थिक क्षेत्र में किसी भी प्रकार के निजीकरण और केन्द्रीकरण की नीतियों का किसी भी तरह से समर्थन नहीं करते और न उद्योगपतियों के दबाव में श्रमिक-कल्याण के लिए बनायी गयी नीतियों और कानूनों को वापस लेने की अनुमति देते हैं।
दरअस्ल, जो यत्किंचित् श्रमिक-कल्याण से सम्बन्धित कानून बनाये गये हैं, वे इन नीति-निर्देशक तत्त्वों के नैतिक दबाव की वजह से ही बनाये गये हैं और आज उनमें कोई भी कमी करना या उन्हें श्रमिकों के हितों के खिलाफ संशोधित करना स्पष्टतया संविधान के मूल प्रयोजन के खिलाफ काम करना होगा, जिसका नैतिक औचित्य स्पष्टतया सन्दिग्ध बना रहेगा।
आर्थिक उदारीकरण के नाम पर यदि राज्य निजीकरण को बढ़ावा देता अर्थात् अर्थसत्ता के कुछ हाथों में केन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करता तथा बाजार की स्वतन्त्रता के नाम पर आय, वेतन या काम की सुविधाओं में असमानता को स्वीकार करता है, तो इसे भी सरकार द्वारा संविधान का मखौल बनाना ही समझा जाना चाहिए। यह भी एक विडम्बना ही है कि आज तक किसी भी सरकार ने आय की असमानता को दूर करने का कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया है और न इसके लिए कोई कार्यक्रम या कानून बनाया है। आय का तात्पर्य केवल वेतन नहीं है, उद्योगों को होनेवाला मुनाफा भी आय ही है।
दरअस्ल, भारतीय संविधान की दृष्टि से देखा जाय तो अलग-अलग राजनीतिक दलों का प्रयोजन केवल इतना होना चाहिए कि सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष के रूप में वे यह सुनिश्चित करें कि संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों का किस सीमा तक प्रभावी क्रियान्वयन हो रहा है। नीति-निर्देशक तत्त्व और मूल अधिकार मिलकर स्वयं में एक पूरी राजनीतिक विचारधारा और कार्यक्रम हैं।
इन्हें लागू करने के तरीकों को लेकर भी कोई विवाद सम्भव नहीं है क्योंकि स्वयं संविधान राज्य को यह निर्देश देता है कि वह इस बारे में कानून और कार्यक्रम बनाये। इसलिए यदि राजनीतिक दलों में इसे लेकर कोई विवाद होता है तो उसे वितण्डा ही समझना चाहिए क्योंकि संविधान की मंशा इस बारे में पूरी तरह स्पष्ट है।
यदि हमारे राजनीतिक दल संविधान के प्रति निष्ठा रखते हैं- और कम-से-कम सांसद और विधायक तथा उनके समर्थन से बनी सरकारें तो इस निष्ठा के लिए घोषित रूप से प्रतिबध्द हैं ही- तो उन्हें संविधान में व्यक्त विचार-दृष्टि और कार्यक्रम के प्रति भी निष्ठावान होना होगा।
यह उल्लेखनीय है कि मंत्री-पद के लिए ली जानेवाली शपथ में संविधान के अनुसार न्याय करने का उल्लेख है और विधानमण्डलों के सदस्यों के लिए संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा एवं निष्ठा का। यह न्याय अथवा श्रद्धा और निष्ठा संविधान में व्यक्त नीति-निर्देशों की अवहेलना से सिद्ध होगी या उन्हें लागू करने से- ख़ासतौर पर तब, जब कि स्वयं नीति-निर्देशक तत्त्वों में ही न्याय- विशेषतया आर्थिक न्याय की स्पष्ट व्याख्या कर दी गयी हो? राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को ही नहीं, सामान्य मतदाता को भी सोचना होगा कि संविधान की मंशा के विपरीत नीतियां बनानेवाले दल सत्ता के लिए नैतिक योग्यता रखते हैं या नहीं?