— सुनील कुमार —
भारत सरकार की ‘मुफ़्त टीकाकरण’ नीति की सराहना और प्रचार के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों का इस्तेमाल चर्चा का विषय बनता जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा ‘धन्यवाद अभियान’ चलाना तथा देशभर के विश्वद्यालयो को फरमान जारी कर इसमें सम्मलित होने का दवाब बनाना शिक्षण संस्थानों के प्रति केंद्र सरकार की नीति और नीयत को उजागर करता है। मुख्यतः शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता और अनुदान के लिए कार्य करनेवाली संस्था का केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक हित-पूर्ति और आवभगत के लिए इस्तेमाल एक विचारणीय विषय है। इस दौरान छात्र और जागरूक नागरिक के नाते हमें यूजीसी की कार्यप्रणाली पर चर्चा करनी होगी, हमें देखना होगा कि यूजीसी आज के दौर में किस कार्यपणाली के तहत काम कर रहा है? आज के दौर में यूजीसी विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थानो में किस प्रकार प्रभावी योगदान दे सकता है?
यूजीसी की कार्यप्रणाली
यूजीसी का फरमान जारी कर संस्थानों पर दवाब डालना एक विशेष प्रकार की प्रवृत्ति के तहत लिया गया निर्णय है, जिसमें शिक्षण संस्थानों में केंद्र सरकार की नीतियों को प्रचारित करना मुख्य उद्देश्य होता है। स्वछता अभियान, योग दिवस, पोषण पखवाड़ा इनमे मुख्य अभियान हैं। हैरानी करनेवाली बात है कि इनको पाठ्यक्रम या कक्षाओं में सम्मिलित नहीं किया जाता है, इनमें अधिकतर फरमानों और अभियानों की माँग कार्यक्रम करके प्रचार करना मात्र होता है। इस प्रकार के अभियान उच्च शिक्षण संस्थनो में छात्रों के साथ-साथ अध्यापकों के लिए भी समस्या खड़ी करते हैं, जहाँ छात्रों का बहुमूल्य समय राजनीति से प्रेरित कार्यक्रमों में खर्च होता है वहीं अध्यापकों को अध्यापन के अतिरिक्त, कार्यक्रम का प्रबंधन करने और रिपोर्ट बनाने जैसे कार्यों में अपनी ऊर्जा लगानी होती है। इस प्रकार के फरमानों और कार्यक्रमों का सीधा प्रभाव विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और अन्य शिक्षण संस्थानों में अध्यापन पर होता है जो शिक्षण संस्थानों का मूल कार्य है।
केंद्र सरकार और नेता विशेष के लिए कार्यक्रम आयोजित करने के अलावा उच्च शिक्षण संस्थानों को सुनियोजित ढंग से राजनीतिक हितों के लिए सत्तासीनो द्वारा प्रयोग किया जा रहा है। बेशक पूर्ववर्ती सरकारों और अन्य दलों द्वारा भी विश्वविद्यालयों को राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया गया है, पर वर्तमान सरकार कई कदम आगे बढ़ चुकी है। इसके तहत विश्वविद्यालयों में हिंदूवादी और तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रसार किया जा रहा है तथा इस प्रयास में होनेवाली हिंसा या अन्याय (जेएनयू और जामिया इस्लामिया में हुई हिंसा) पर यूजीसी या विश्वविद्यालय प्रशासन कोई ठोस कार्रवाई नहीं करता है। विश्वविद्यालय प्रशासन का एक विचारधारा के प्रति झुकाव और लगाव सवांद और चर्चा के अवसर को समाप्त करता है जिसका प्रभाव अकादमिक माहौल और गुणवत्ता पर पड़ता है, पर यूजीसी इसके बावजूद कोई संज्ञान नहीं लेता है।
विश्वविद्यालय प्रशासन और यूजीसी की कार्यप्रणाली का प्रभाव विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर पड़ता है, विश्वविद्यालयों से जुड़े निर्णय राजनीतिक रूप से प्रायोजित होते है। छात्रों, शोधार्थियों या शिक्षकों से किसी भी स्तर पर विचार-विमर्श के बिना, राजनीतिक आकाओं की हितपूर्ति पर ध्यान दिया जाता है। स्वायत्तता पर आघात विश्वविद्यालय के मूलभूत आधार को तबाह करता है तथा शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। पाठ्यक्रम तथा नियुक्ति जैसे विषयों में राजनीतिक दखलंदाजी अकादमिक माहौल को बौद्धिक रूप से बीमार बना देती है। इस प्रकार की अलोकतांत्रिक शिक्षण प्रणाली समाज को अधिनायकवाद की तरफ धकेल सकती है।
प्राथमिकता क्या हो
विश्वविद्यालयों की कार्यप्रणाली के लिए सबसे अहम बात शिक्षकों की नियुक्ति होती है। शिक्षकों की नियमित नियुक्तियां ना होने से शोध तथा शिक्षण की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखिरयाल ‘निशंक’ द्वारा 8 फ़रवरी 2021 को लोकसभा में दी गयी जानकारी के अनुसार 42 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6210 प्राध्यापकों के पद रिक्त हैं। यही स्थिति राज्य विश्वविद्यालयो में भी है। शिक्षकों की इतनी भारी कमी होने का प्रभाव सबसे अधिक शोधार्थी पर पड़ता है, शिक्षको के अभाव में शोधकर्ता को शिक्षण गतिविधियों में शामिल होना पड़ता है जो शोध की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। सरकारी विश्वविद्यालयो में संसाधनों और शिक्षकों के अभाव में छात्रों को निजी विश्वविद्यालयों की तरफ रुख करना पड़ता है, परन्तु वहाँ महंगी शिक्षा प्राप्त करना सबके लिए संभव नहीं है।
विश्वविद्यालय आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। विश्वविद्यालयों को इससे उबारने के लिए शिक्षा के लिए आवंटन बढ़ाने की बजाय सरकार विद्यार्थियों पर ही वित्तीय बोझ डालना चाहती है। इनमें से प्रमुख कदम है, लगातार फीस बढ़ाते जाना। इसी प्रकार शोध के लिए इस्तेमाल होनेवाले संसाधनों में भी कटौती की जाती है। इससे शोध की गुणवत्ता प्रभावित होती है। जबकि यूजीसी केंद्र और राज्य के शिक्षा बजटों में बढ़ोतरी का प्रबंध करके विश्वविद्यालयों को आर्थिक संकट से निजात दिला सकता है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की उभरती हुई कार्यप्रणाली बेशक केन्द्र सरकार और उच्च शिक्षा के अधिकारियों के निजी हितों के लिए लाभकारी हो, परन्तु विश्वविद्यालयों और उनसे जुड़े विद्यार्थियों, शोधार्थियों, शिक्षकों या कर्मचारी वर्ग के लिए नुकसानदेह है। यूजीसी का ‘धन्यवाद अभियान’ के लिए जारी हास्यास्पद फरमान हमें यह अवसर प्रदान करता है कि इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा करें और शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता के सवाल को चर्चा का विषय बनाएं।