जब जेपी की हुंकार से सिंहासन हिल उठा

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— जयराम शुक्ल —

कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ का नारा ‘इंदिरा इज इंडिया’ गली-कूचों तक गूँजने लगा। इसी बीच मध्यप्रदेश में पीसी सेठी को हटाकर श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाया गया। अखबारों की हालत यह कि पहले पन्ने से लेकर आखिरी तक इंदिरा गांधी, संजय गांधी और उनके चमचों की खबरों से पटे। हर हफ्ते कहीं न कहीं रैलियाँ, सभाएं। भीड़ जोड़ने का काम स्कूल के प्राचार्यों, हेडमास्टरों को दे दिया गया। शहर में कोई बड़ा नेता आता तो स्कूलों के सामने बसें लगवा दी जातीं और रैली-सभाओं में हम बच्चे भीड़ बढ़ाने, नारे लगाने के लिए भेजे जाते।

जब नौवीं पढ़ रहा था तभी श्यामाचरण शुक्ल का हमारे शहर दौरा बना। वे यहाँ हवाई जहाज से आनेवाले थे। उनकी सभा के लिए यहाँ के सबसे बड़े खेल के मैदान में पंडाल लगाया गया। मेरी याद में इतना बड़ा पंडाल आज तक नहीं देखा। जिस दिन मुख्यमंत्री को आना था चार बसें स्कूल के दरवाजे पर लगवा दी गईं। कक्षाएं स्थगित कर बच्चों को बस में हवाई पट्टी भेज दिया गया। वहां पता चला कि श्यामाचरण शुक्ल आनेवाले हैं, हम लोगों को उनका स्वागत करना है।

पहले तो अच्छा लगा कि जिंदगी में पहली बार नजदीक से हवाई जहाज और मुख्यमंत्री देखने को मिलेंगे। लेकिन घंटे भर इंतजार करते-करते मुट्ठियों में रखे गेंदे के फूल सूखने लगे जो हम बच्चों को मुख्यमंत्री के ऊपर बरसाना था। हम प्यास से बिलबिलाने लगे। भूख भी लग आई, ऊपर से क्वार-कार्तिक की तेज धूप। कुल मिलाकर पहली बार इमरजेंसी इतनी जालिम लगी।

नेता पर बरसाने के लिए दिए गए फूल ही चबाकर कर भूख शांत करने की जैसी ही चेष्टा की वैसे ही नारा गूँज उठा ..श्यामा भैय्या आए हैं नई रोशनी लाए हैं। वस्तुस्थिति यह थी कि हम बच्चों की आँखों के सामने दिन-दोपहर ही भूख-प्यास के मारे अँधेरा छाने लगा था। सामने से खुली जीप पर बंद गले की नीली कोट पहने श्यामाचरण जी मुस्कराते निकल गए। हम लोग कैसे भी वापस शहर पहुंचे.. और शेष समय इमरजेंसी और उसके नेताओं को गरियाते हुए बिताया जिनकी वजह से भूखे-प्यासे मरना पड़ा।

शाम को कौतूहल देखने सभास्थल गए तो पता चला कि यहां भीड़ जोड़ने का जिम्मा दूसरे स्कूलों पर है। सभा में स्कूली बच्चों के झुंड थे उधर नेताओं के भाषण चल रहे थे। शाम की आकाशवाणी की न्यूज बुलेटिन में मुख्यमंत्री की रैली और सभा में उमड़ी भारी भीड़ का जिक्र था और स्थानीय अखबारों का पहला पन्ना उनकी तस्वीरों व भाषणों से भरा था। समूचे देश में यही चल रहा था। जमीन उत्तरोत्तर खिसक रही थी पर प्रायोजित भीड़ ऊपर के नेताओं को ऐसे ही चकमा देती रहती। 1977 में भीड़ और रैलियों के ऐसे ही खुफिया फीडबैक की वजह से इंदिरा जी आम चुनाव के लिए राजी हुईं।

 इमरजेन्सी हटी और नेता लोग जेल से छूटने लगे। फिर चुनाव हुआ जिसमें जेपी के संरक्षण में बनी जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को हटा दिया। इस साल मैं दसवीं पढ़ रहा था। तब तक मैं यमुनाप्रसाद शास्त्री के परिवार में एक सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका था। उनकी आभा की छाया में रहते हुए मोरारजीभाई देसाई, चंद्रशेखर, बाबू जगजीवन राम, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, राजनारायण आदि दिग्गजों को नजदीक से देखा।

किसी नेता के यहां बड़े-बड़े हाकिम अफसर कैसे ड्यूटी बजाते हैं यह भी देखा। उन पुलिसवालों को भी देखा जिन्होंने इमरजेंसी में जिन नेताओं को हथकड़ियां पहनाई थीं अब वे उनकी चिरौरी कर रहे थे। किशोरवय स्कूली छात्र के लिए यह कौतुक भी जबरदस्त था जो मेरी जिंदगी के हिस्से लिखा था। 

हम लोगों ने राजनीति का दुरुपयोग भी किया। स्कूल में हमारी क्लास में बड़े अफसरों के कई बिगड़ैल बेटे जो हम देहाती छात्रों का मजाक उड़ाते थे, उनके अफसर पिताओं के नाम की सूची बना ली। शास्त्रीजी के यहां जो भी मंत्री आते थे उन्हें वही सूची थमाकर कहते कि इनको रीवा से भगा दीजिए। वैसे भी जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में शास्त्रीजी के कई पट्ठे थे जो पहली बार में ही कैबिनेट मंत्री बन गए। बहरहाल ग्यारहवीं में जब उन छात्रों को क्लास में नहीं देखा तो अंदाज लगा लिया कि निश्चित ही इनके पिताओं को सरगुजा-बस्तर भेज दिया गया होगा।

इमरजेन्सी में उन मुख्यमंत्री जी के स्वागत में जितने कष्ट झेले थे जनता राज के मजे ने उसे भुला दिया। स्कूली छात्र जीवन में इमरजेन्सी लगने और फिर उतरने की इतनी ही रामकहानी से अपन का वास्ता पड़ा। अब आगे वह सब जो इंदिरा गांधी के आपातकाल के बारे में पढ़ने व सुनने को मिला..।

जनता सरकार कैसे गिरी.. ऐसे विषयों की समझ तब बननी शुरू हुई जब 1983-84 में पत्रकारिता का छात्र था। खबरों की दुनिया के मुहाने पर बैठकर जल्द ही उन सभी जिज्ञासाओं का समाधान तलाशता था, जो बेचैन किया करती थीं। अखबारों में व्यंग्य स्तंभों का चलन उन दिनों काफी लोकप्रिय था। इसी तरह के किसी स्तंभ में एक किस्सा पढ़ा जो कुछ यूँ था- दैवयोग से एक बार किन्नरों के घर एक बच्चा पैदा हुआ। दूसरों के बच्चों के जनमने पर नाचने-गाने वाले किन्नरों के ही घर जब यह सुअवसर आया तो फिर कैसा जश्न हुआ होगा समझ सकते हैं।

नाचने-गाने की खुशी के बाद इस बात पर बहस चल पड़ी कि बच्चे को नाम किसका दिया जाए। बहस गंभीर होती गई। एक बूढ़े किन्नर ने सुझाया कि वरिष्ठता के क्रम में सभी एक-एक करके उसका बाप होने का सुख लें। समझाइश काम कर गई। सब बारी-बारी से उसे लाड़-प्यार करने लगे। जब आखिरी किन्नर की बारी आई तो उसने देखा बच्चे की सांस थम गई है, नाड़ी भी नहीं चल रही। यानी कि लाड़-प्यार के चक्कर में इतना भी खयाल नहीं रहा कि इसे दूध और घुट्टी वगैरह भी चाहिए। बच्चे की अकाल मौत हो गई। 1977 की जनता पार्टी की सरकार 1980 आते-आते इसी तरह गिर गई।

इमरजेंसी क्यों लगी? इसपर दर्जनों पुस्तकें आ चुकी हैं। हजारों विश्लेषण और आलेख छप चुके। अब भी हर साल इसकी बरसी पर लेख आते हैं। इमरजेंसी को दूसरी गुलामी कहा जाता है। गिरफ्तार होनेवाले अब लोकतंत्र के सेनानी हैं। कई सरकारों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भाँति पेंशन बाँध दी, और भी कई सुविधाएं दीं।

 इमरजेन्सी को नागरिक अधिकारों पर सबसे बड़ा हमला माना गया। आज भी इसकी डरावनी तस्वीर पेश की जाती है। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा ‘बियांड द लाइन्स’ में इमरजेन्सी के कारणों का तथ्यपरक ब्योरा दिया है। लेकिन इस ब्योरे के पूर्व की कथा संक्षेप में जाननी चाहिए।

 सन 1971 में बांग्लादेश विजय ने इंदिरा जी के कद को ‘लार्जर दैन लाइफ’ बना दिया। कांग्रेस के ओल्ड गार्ड्स (नेहरूकालीन नेता) जल्द ही ठिकाने लगा दिए गए। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने लोकसभा में इंदिरा जी को दुर्गा कहकर महिमामंडित किया। इंदिराजी के कद के सामने सब बौने थे। बैंकों और खदानों के राष्ट्रीयकरण तथा राजाओं के प्रिवीपर्स को बंद करने के फैसले की वजह से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां भी इंदिरा जी की भक्त हो गईं। जनसंघ का दायरा सिमटा हुआ था। सोशलिस्ट पार्टियों का सबसे प्रभावी धड़ा कांग्रेस में शामिल हो चुका था। शेष सोशलिस्टी आपस में लड़-झगड़ रहे थे। विपक्ष में ऐसा कोई नहीं था जो इंदिरा जी की स्वेच्छाचरिता के खिलाफ कुछ कह सके।

 इंदिरा जी अपने मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रही थीं। इसी फेंटाफेंटी के बीच बिहार के समस्तीपुर में ललित नारायण मिश्र की हत्या हो गई। गुजरात में चिमनभाई पटेल सरकार के खिलाफ छात्रों-युवाओं ने मोर्चा खोल दिया। ‘गली-गली में शोर है चिमनभाई चोर है’ का नारा इसी आंदोलन में गूंजा था जिसने बाद में अन्य नेताओं से जुड़कर विस्तार पाया। बिहार में अब्दुल गफूर के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। यहां भी छात्र इस सरकार के खिलाफ आंदोलित थे।

इस बीच राजनीति से दूर सर्वोदय आंदोलन से जुड़े जयप्रकाश नारायण से सत्ता की स्वेच्छाचरिता देखी नहीं गई। उन्होंने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा कि वे अपने मुख्यमंत्रियों के भ्रष्टाचार और सत्ता की स्वेच्छाचरिता पर लगाम लगाएं। एकछत्र सम्राज्ञी बन चुकीं इंदिरा जी को जेपी की यह समझाइश नागवार लगी।

जबकि जेपी ने यह पत्र साधिकार लिखा था क्योंकि वे इंदिरा जी को अपनी भतीजी मानते थे। यह इतिहास जानता है कि कमला नेहरू और जेपी के बीच सीता और लक्ष्मण जैसे रिश्ते रहे। जेपी नेहरू द्वारा प्रस्तावित उप-प्रधानमंत्री का पद भी अस्वीकार कर चुके थे।

जेपी के पत्र के जवाब में इंदिरा जी ने अखबारों में यह तंज कसा कि ‘उद्योगपतियों के पैसे से पलनेवाले कुछ लोग भ्रष्टाचार की बात करते हैं।’ यह बयान पढ़कर जेपी ने अपना आर्थिक ब्योरा, आमदनी और खर्च, सबकुछ लौटती डाक से इंदिरा जी को भेज दिया। इंदिरा जी के इस बयान को उन्होंने एक चुनौती के मानिंद लिया और उसी दिन तय कर लिया कि इस स्वेच्छाचारी सरकार को जड़ से उखाड़ फेकेंगे।

विपक्ष लस्त-पस्त था। जेपी ने छात्रों और युवाओं में उम्मीद देखी। उन्होंने गुजरात जाकर छात्रों के ‘नवनिर्माण आंदोलन’ को अपना समर्थन दिया। आंदोलन की चरम परिणति चिमनभाई सरकार के इस्तीफे से हुई। इस सफलता की आँच पूरे देश ने महसूस की। बिहार में अब्दुल गफूर सरकार के खिलाफ मोर्चा खुल गया। जेपी ने ‘युवा छात्रसंघ’ की स्थापना करके देशभर के विद्रोही छात्रों और युवाओं को जोड़ लिया।

 बिखरे समाजवादी, पुराने गांधीवादी उनसे जुड़ने लगे। आरएसएस भी अपना समर्थन देने आगे आया और इस अभियान में जनसंघ भी जुड़ गया। नानाजी देशमुख जेपी के सहयोगी व प्रमुख रणनीतिकार बनकर उभरे। देशभर में विपक्षी एकता की एक लहर सी चल पड़ी। सबके निशाने पर इंदिरा गांधी ही थीं। जन आक्रोश को समझने की जगह उसे सख्ती से कुचला जाने लगा।

इसी बीच यानी कि 1974 में मध्यप्रदेश में दो बड़ी राजनीतिक घटनाएं हुईं। सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हो गई। भोपाल दक्षिण विधानसभा सीट पर भी कुछ ऐसी ही स्थितियों के चलते उपचुनाव की नौबत आ गई। जबलपुर से छात्र नेता शरद यादव और भोपाल दक्षिण से बाबूलाल गौर संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी घोषित हुए। दोनों ही उपचुनावों में काँग्रेस की बुरी गत हुई। इन परिणामों ने विपक्षी एकता के लिए फेवीकोल का काम किया।

‘बियांड द लाइंस’ में कुलदीप नैयर लिखते हैं- “इंडियन एक्सप्रेस में नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही गोयनका जी से यह सुनकर हैरान हो गया कि  इंदिरा जी संविधान को भंग कर जेपी समेत तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंसना चाहती हैं, मैंने तो यह खबर नहीं बनाई लेकिन जनसंघ के मुखपत्र मदरलैंड ने इसे मुखपृष्ठ पर छापा।” इंदिराजी ने जेपी आंदोलन को निजी चुनौती की तरह लिया।

कभी-कभी संयोग या दुर्योग स्वयमेव जुड़ते जाते हैं। 12 जून 1975 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला कुछ इसी तरह का था। रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनावी प्रतिद्वंद्वी रहे सोशलिस्टी राजनारायण की याचिका पर फैसला देते हुए जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। इस फैसले की दो मामूली वजहें थीं। एक ओएसडी यशपाल कपूर ने पीएमओ से बिना इस्तीफा दिए चुनाव प्रचार में हाथ बँटाया। दूसरा, इंदिरा जी की सभाओं के लिए यूपी सरकार के अफसरों ने इंतजामात किए। ऐसे आरोप प्रायः हर दूसरी चुनावी याचिका में लगते हैं पर इस फैसले से एक इतिहास रचा जाना बदा था। हाईकोर्ट ने अपील के लिए 15 दिन मुकर्रर किए थे। इसी बीच 15 जून 1975 को जेपी ने पटना के गांधी मैदान में छात्रों-युवाओं की विशाल जनसभा में संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर दिया।

कुलदीप नैयर लिखते हैं- ‘चुनाव से जुड़ा कानून कितना ही सख्त क्यों न हो, मेरा अपना खयाल था कि यह फैसला एक चींटी को मारने के लिए हथौड़े के इस्तेमाल करने की तरह था।’ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने फैसले पर स्टे दे दिया और अपील के निपटारे तक के लिए व्यवस्था दी कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के फैसलों पर कालांतर में अंगुलियां उठीं।

कमाल की बात यह कि सुप्रीम कोर्ट में फैसले के खिलाफ अपील करनेवाले वीएन खेर बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पद तक पहुंचे। जबकि यह अपील उन्होंने इंदिरा जी के निर्देश पर नहीं, स्वतः उत्साहित होकर दायर की थी।

खैर, इंदिरा जी इस्तीफा देने का मन बना चुकी थीं। उपचुनाव से चुनकर आने तक के लिए कमलापति त्रिपाठी के प्रधानमंत्री बनने की बात भी हो चुकी थी। यदि ऐसा होता तो लोकतंत्र में आपातकाल का कलंक टल जाता। पर जिन दो लोगों ने इसे टलने नहीं दिया उनमें से एक थे संजय गांधी और दूसरे पं.बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे। दून स्कूल से फेल और इंग्लैण्ड में रोल्स रायस में मैकेनिकी कर नककटाई करवा चुके संजय गांधी की महत्त्वाकांक्षा परवान पर थी और यह अच्छा मौका था जब सत्ता के सूत्र वे अपने हाथों सँभाल लें।

परिणाम यह हुआ कि कैबिनेट की स्वीकृति लिये बगैर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलकर 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इसके बाद जो कुछ हुआ वह देश ने और समूची दुनिया ने देखा।

(कल तीसरी और अंतिम किस्त)

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