अनिल अनलहातु की तीन कविताएं

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

इस कोरोना काल में 

 

इस कोरोना काल में

इस कोरोना काल में

इस संक्रमण काल में

जब दसों दिशाएं हैं बंद

धरती और आकाश भी है निस्पंद

वनस्पति, औषधियां जल और जीवन

एक सन्नाटे में हैं

आइए

भारतवर्ष के प्राचीन ऋषि-मुनियों

और तपस्वियों की आर्ष परंपरा में

“काव्यशास्त्रविनोदेन कालोगच्छति धीमताम।

व्यसनेन च मूर्खाणाम्  निद्रया कलहेन वा।।”

 

इस कोरोना काल में

इस संक्रमण काल में

अपने घरों के सुरक्षित माहौल में

सोशल मीडिया द्वारा

तकनीक के नए माध्यमों से जुड़कर कोई क्रांतिकारी कविता का पाठ करें

उसकी सूक्ष्म ध्वनियों और वाग्विदग्धता  पर

अस-अस कर उठें।

उस कविता के कथ्य में

तलाशें क्रांति की संभावनाओं को और

उसके वाक्य विन्यास और बिंब मालाओं पर

मुग्ध हो चिल्ला उठें

साधु! साधु! साधु!

उसके काव्य-प्रतीकों पर लहालोट  हो

घोषित करें उस कवि को

काव्य-मर्म का अरस्तू

पुनश्च

और उस कविता को तो बिल्कुल ही भुला दें

जिसने कहा था कि

हे पाठक!  इन कवितओं में

आए ये प्रतीक  नहीं,

मेरे बच्चे हैं।

आइए

इस कोरोना  काल में

इस संक्रमण काल में

किसी प्रकाशन समूह के ऑनलाइन मीडिया पर

खीसें निपोरते हुए हों उपस्थित,

और वर्षों पुरानी अपनी किसी

खोयी हुई कहानी का वाचन करें जिसमें प्रेम हो

प्यार हो

और आपसी सौहार्द हो,

प्रेम करने वाले

प्रेमी युगल हों।

और हम सब सुनें उनके

निर्दोष शुभ प्रेम की दास्तान

जीने-मरने की कसमें

समाज के जड़, बुर्जुआ रीति-रिवाजों और परंपराओं के खिलाफ

देखें उनके विद्रोह को

और कह उठें,

धन्य! धन्य! वह  लेखक और धन्य हैं उसके पात्र

कि ऐसे ही पात्रों ने

जाति,धर्म, संप्रदाय और प्रांत के बंधनों में जकड़े समाज को

मुक्त किया है, आगे बढ़ाया है

और इस तरह एक शांत दुपहरी में  ब्यालू का आनंद लें।

और फिर

अगर कथा, कहानी और कविताओं से मन भर जाए

तो हे प्रभु!

आइए

इस कोरोना काल में

इस संक्रमण काल में

हम अपने धर्म-ग्रंथों और पुराण कथाओं के

मिथकीय चरित्रों का

पुनः पारायण करें।

और मिथकों  की ऐतिहासिकता तलाशें

उन मिथकीय चरित्रों को वर्तमान की नजरों से परीक्षण करें

उनकी विसंगतियां, अंतर्विरोध उजागर करें

ताकि आम जनमानस हो  लाभान्वित और जागरूक

हो विमर्श इस पर जबरदस्त

और इस तरह काटें हम

जेठ की तपती दुपहरिया को अपने शीत-ताप नियंत्रित शयनकक्षों में

टीवी पर रामायण देखते हुए।

हे सुमुखे!

यदि इस बीच

क्रांति के लिए मन

एक बार फिर मचल जाए क्राइसिस  ऑफ फेथ और  क्राइसिस ऑफ एक्जिस्टेंस गहराने लगे और

आत्मा में धिक्कार

की वेगवती हिलोरें

मारने लगे

तब उठो हे वत्स !

अपने कविता-गांडीव की प्रत्यंचा तानो

और खूबसूरत शब्दों में रेटोरिक कला को माँजते हुए

अपनी वाक्पटुता के अलंकार और बिंबधर्मिता से लिखो एक

हैबतनाक कविता

उन लाखों श्रमजीवियों  पर

जो निकल पड़े हैं पैदल ही

अपने घरों की ओर।

और सीधे सीधे पूछो सरकारों से कि हम युद्ध के

हताहत शरणार्थी थे

या स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का वादा करने वाली

संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकता। और बताओ इस जड़ समाज को कि मेज पर किताब रखकर

पढ़ने से

कम बड़ा काम नहीं है मेज बनाना।

और आह्वान करो

व्यापक, विशाल जनसमुदाय से कि वे मेज पर किताब पढ़ना छोड़कर

मेज बनाना सीखें

कि मेज बनाना

मेज पर पढ़ने से बड़ा काम है। और हे क्रांतिकारी कवियो!

आह्वान करो उन बिजली मिस्त्रियों   का

कि वे शहर की बिजली सप्लाई अपने प्लाट से काट दें

कि हमारे घरों में फैला अँधेरा व्याप्त हो जाए

और चहुँओर,  चहुंदिश।

और जो संभव नहीं है

जो खयाली गप्प है

उसे भी उनका सत्य बताओ कवियो!

कि वे मेहनतकश श्रमजीवी, अनपढ़ मजदूर

जो मेज पर किताब नहीं पढ़ कर मेज बनाना जानते थे

कि  वे  ‘हिंदी’ नहीं भोजपुरी या हरियाणवी में ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ देखना चाहते थे।

यह अलग बात है कि 3 अप्रैल को दिल्ली से बेगूसराय के लिए पैदल निकला रामजी महतो

16 अप्रैल को वरुणा और अस्सी नदियों के संगम पर अवस्थित प्राचीन नगरी काशी के

मुहाने  आकर

सड़क पर चलते-चलते

गिर कर मर जाता है

यह और भी अलग बात है कि

16 अप्रैल सुबह 6.00 बजे

शहर कोतवाल ने देखा कि

एक मजदूर बीच सड़क पर मुंह के बल भहरा कर गिरा पड़ा है, उसकी सांसें तेज चल रही हैं।  कोतवाल डरता है कहीं कोरोना तो नहीं

इस डर और कवि की क्रांतिकारी कविता के बीच

उस रामजी महतो की

सांसें थम जाती हैं

और अब इत्मीनान  है

शांति है (जो पता नहीं कब घर से भागी है, नहीं जानता, नहीं ही जानता)।

रामजी का कोरोना टेस्ट

निगेटिव निकला

शहर कोतवाल खुश है

कि उसके शहर में न घुस पाया करोना

कि रोक दिया उसने शहर की मुधि पर ही

और लोग अमन-चैन में हैं

निश्चिंत और बेपरवाह।

यह फिर अलग बात है कि

यह कतई उसके घरवालों की बदनसीबी कतई नहीं है

कि जिन घरवालों तक पहुंचने के लिए रामजी महतो पिछले 215 घंटों में 850 किलोमीटर की  छोटी सी दूरी

पैदल तय की थी

उनके पास दाह संस्कार और शव लेने बनारस आने तक के पैसे नहीं थे

गूगल मैप की मानें तो बेगूसराय दिल्ली से महज 1100 किलोमीटर दूर है।

क्या आपने कभी

या आज तक अपनी जिंदगी में इतनी दूरी तय की है?

खामोश! चीखता  है कवि

कि यह प्रश्न ही मूर्खतापूर्ण है।

प्रश्न उससे पूछो

जो उसका अधिकारी हो,

जिससे प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं

वहां ऐसे  धृष्टता करना

गुनाह होता है।

यह मत पूछो और न जानने की चेष्टा करो

कि जेठ की चिलचिलाती दुपहरी में बीच सड़क पर

प्रसव पीड़ा क्या होती है?

कि सद्य-प्रसूता उसी वक्त उठकर उसी काली डामर की कोलतारी सड़कों  पर

नंगे पांव कैसे चल देती है?

यह प्रश्न पूछने का वक्त नहीं है वत्स!

तमाशाई  समय है

तमाशाई बनो

तालियां पीटो

बगलें  बजाओ

और नारे लगाओ

भारत माता की जय!

भारत माता की जय!

सड़क-जननी

सद्य-प्रसूता

भारत माता की जय!

जय हो! जय हो! जय हो!

भारत भाग्य विधाता की जय हो!

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

यह लॉक डाउन है

 

डामर की कोलतारी सड़क निस्पंद है,

हवा भी चुप है

वृक्ष की शाखाएं

और पत्ते भी

एक खामोशी में हैं।

जेठ की इस चिलचिलाती दुपहरिया में,

गर्म उत्तप्त सांसें भी

चाहती हैं सुस्ताना

किसी पीपल, पकड़ी

की छाया में।

 

चारों ओर पसरा हुआ है

एक निस्तब्ध सन्नाटा

एक सर्पिल खामोशी

पसरी हुई है

गेहुँअन के केंचुल

की तरह।

आवाज सुने हुए

कई दिन हुए,

कोरोना का

कर्फ्यू जारी है।

 

लोग घरों में

दुबके पड़े हैं,

और शहर में मुनादी है।

 

सड़क के बीचो-बीच

चीथड़ों में लिपटा

कृशकाय, हड्डियों का ढांचा

न जाने किस मजबूरी में

हाथ फैलाता एक

ग्रामीण किसान है,

बेतरह  काँप रहे  हाथों को

बस याचना की मुद्रा में

फैलाता

लज्जा और दुख से

जमीन में गड़ा जा रहा।

 

मुझे ‘यशपाल’ याद आते हैं,

और याद आती है

‘दुख का अधिकार’ की वह बुढ़िया,

जो जवान बेटे के मरने के,

अगले ही दिन बाजार में

खरबूजे बेचने निकली है,

कि घर में जवान बहू

बुखार में तप रही है

और छोटे बच्चे भूख से

बिलबिला रहे हैं।

बचपन में पढ़ी वह कहानी

समझ में आ गई सहसा,

दुखी होने का अधिकार भी

क्या सबको है?

 

पन्द्रह दिनों तक

लॉक डाउन में बंद

वह रिक्शावाला

निकल पड़ा है,

पेट पर गमछा बांधे,

जिसे पता है कि

कर्फ्यू लगा है

कोई सवारी नहीं मिलेगी,

फिर भी निकला है

किसी हल्की उम्मीद में,

कोई क्या करे?

करे भी तो क्या?

तुलसी कानों में कहते हैं

“खेती न किसान को,

भिखारी को न भीख,

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी,

जीविका विहीन लोग,

सिदयमान सोच- बस,

कहैं एक एकन सौं,

कहाँ  जाईं, का करीं?”

 

शहर के चौमुहाने पर

खड़ी है एक आदिवासी महिला सिपाही

मुस्तैदी से मुंह पर कपड़ा बांधे।

मुझे ‘बेला एक्का’ याद आती हैं

मुझे  “लौटती हुई बेला एक्का”

दिखती हैं और उनको नोचते वे

गिद्ध भी दिख पड़ते हैं।

 

मुझे दिख पड़ती हैं

आसन्न मृत्यु की लोमहर्षक तस्वीरें,

एक हड़ियल काया मरणासन्न किसान,

एक रिक्शा चालक,

एक गर्भ के  भार से

दुहरी हुई जा रही स्त्री,

भूख से मर रही  सूडानी  बच्ची।

 

और दिखाई पड़ती हैं

गिद्धों की लंबी अंतहीन कतारें,

‘केविन कार्टर’ से ‘जिमी कार्टर’ तक,

सूडान से तेहरान तक

ट्रम्प से पूतिन तक

और अडानी से अम्बानी तक।

 

वे आ रहे हैं

(नाज़िम हिकमत की बेचैन आत्मा के लिए)

 

गुप्ता साहब! वे आ रहे हैं,

जाते-जाते राजधानियों

और बड़े शहरों से,

वे एकाएक लौट पड़े हैं।

 

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!

वे  आ रहे हैं

लाखों-लाख टिड्डियों के दल

की तरह

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!

उनकी भूख

अंतड़ियों से निकल

उनकी आंखों में समा गई है,

वह रास्ते की हर चीज को

कुतरते  हुए

आंधी-तूफान और अम्फान

की तरह,

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!

वे  आ रहे हैं।

 

उनकी भूख

सुरसा के मुंह की तरह

विकराल होती जा रही,

उनकी कभी न खत्म

होने वाली क्षुधा

सब कुछ निकलती जा रही।

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!

वे आ रहे हैं।

 

लाखों-लाख टिड्डियों के दल

की तरह

तुम्हारे कल-कारखानों,

तुम्हारे आलीशान बंगलों को

चट कर जाएंगे।

 

वे आ रहे हैं आ रहे हैं

क्योंकि उन्हें आना ही था,

कि तुमने उन्हें कहीं का नहीं रखा;

वे अब अजनबी और

पराए हैं

जहां जनमे थे।

और जिन दड़बों में रहकर

तुम्हारे महल बनाए,

वहां से निकाले जा चुके हैं।

 

इस कोरोना काल में ,

इस संक्रमण काल में

वे जाएं तो, जाएं कहां??

 

वे अपनी भूख से चले

और फिर उसी भूख तक

पहुंच गए,

वह भूख जो उनकी अंतड़ियों से

निकलकर जुबान तक आ गई है।

 

वे  आ रहे हैं गुप्ता साहब!

वे आ रहे हैं

लाखों-लाख कंठ स्वरों से

चिंघाड़ते

टिड्डियों के दल की तरह

वे आ रहे हैं

राजधानी की तरफ,

उसी राजधानी, जिसे छोड़कर

चले गए थे एक दिन।

उसी राजधानी,

जिसके मोहपाश में

छोड़े थे अपने घर।

 

वे फिर आ रहे हैं गुप्ता साहब!

लाखों-लाख, करोड़ों हाथों में

लिए  पाना और हथौड़ा।

 

गुप्ता साहब! वे आ रहे हैं

वे आ रहे हैं!

अपने छोटे-छोटे बच्चों

और  गर्भवती पत्नियों के साथ,

रास्तों, सड़कों और मोड़ों पर

मरे अपने साथियों की

पीड़ा के साथ,

उनके दर्द,

उनकी भूख,

और उनकी चीखों के साथ,

वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!

वे आ रहे हैं

 

जिस कोरोना ने उन्हें भगाया

वही करोना उन्हें बुला रहा है,

वे फिर आ रहे हैं गुप्ता साहब!

लेकिन क्या उनका आना

इस बार भी वैसा ही होगा

जैसा वे पहली बार आए थे?

यह एक प्रश्न है,

जो तैर रहा है हवाओं में।

 

कि वे लाठी पीटते

लाखों-लाख संख्या में उमड़े

चले आ रहे हैं

गूंजते उनके कंठ-स्वर

गूंजते जी जा रहे हैं

दिक्-दिगन्त और

सरहदों के पार।

 

कि वे आ रहे हैं गुप्ता साहब!

वे आ रहे हैं!

वे आ रहे हैं!

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