गांधी के सचिव-मंडल का हिस्सा बन कर, उनके साथ काम करते हुए, उनका एक और गुण जो मैंने जाना, वह था उनका व्यापक दृष्टिकोण। उनके लिए कोई भी काम, दूसरे काम से हल्का नहीं था। वास्तव में वे मानवता की सेवा में ही ईश्वर की पूजा मानते थे, और इसलिए प्रत्येक छोटे से छोटा काम भी, उस पूजा का अंग होने के कारण, उनके लिए महत्त्वपूर्ण था। फिर वे जीवन को टुकड़ों में बांटकर नहीं देखते थे। इसलिए व्यक्ति का ज्ञान, अभिवृत्ति और कौशल सीधे समाज सेवा से जुड़ गए थे।
मुझे 1939 की एक अहम घटना याद है। दूसरे विश्वयुद्ध का ऐलान हो चुका था। वाइसराय ने एकतरफा घोषणा कर दी कि भारत ‘मित्र राष्ट्रों’ के साथ है। कांग्रेस के साथ कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया, जिसकी उस वक्त कई राज्यों में सरकारें थीं। इससे कांग्रेस के लोगों में नाराजगी फैली। इस नाजुक मोड़ पर वाइसराय ने गांधी को चर्चा के लिए आमंत्रित किया। वाइसराय उन दिनों शिमला में रह रहे थे, जो ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। कुछ दिनों की चर्चा के बाद वाइसराय को बातचीत आगे बढ़ाने से पहले लंदन से निर्देश लेने की जरूरत महसूस हुई। इससे चर्चा में कोई हफ्ते भर का अंतराल आ गया।
मैं खुश होकर इस एक हफ्ते की ‘छुट्टी’ के दौरान शिमला के चारों तरफ हिमालय की चोटियों के बीच घूमने के मंसूबे बांध रहा था। लेकिन गांधी के पास दूसरी योजना थी। उन्होंने हमें वापस सेवाग्राम जाने के लिए बोरिया-बिस्तर बांधकर तैयार हो जाने को कहा। सेवाग्राम तक ट्रेन के सफर में एक तरफ दो दिन का समय लगता था। वे सेवाग्राम में मुश्किल से तीन दिन ठहर सकते थे। हम हैरत में थे कि आखिर उन्हें वहां ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण काम आ पड़ा है कि मध्यभारत की चिलचिलाती गरमी में वे वहां जाएंगे, जबकि हफ्ते भर में ही उन्हें शिमला लौटना है?
मगर गांधी अपने निर्णय पर दृढ़ थे। ‘यह क्यों भूलते हो कि वहां परचुरे शास्त्री हैं?’ परचुरे शास्त्री संस्कृत के एक विद्वान थे, जो कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। उनके परिवार ने उन्हें छोड़ दिया था और उन्होंने सेवाग्राम आश्रम में शरण ली थी, यह सोच कर कि वहां मर सकेंगे। गांधी ने खुशी-खुशी उन्हें आश्रम में जगह दी थी। ‘‘आपकी पहली इच्छा स्वीकार है। आप आश्रम में ठहर सकते हैं। लेकिन आपकी दूसरी इच्छा स्वीकार नहीं है। आप यहां नहीं मरेंगे। हम आपको चंगा करने की कोशिश करेंगे।’’ यह वह समय था जब कुष्ठ को असाध्य और साथ ही संक्रामक रोग समझा जाता था। एक छोटी-सी बांस की कुटिया परचुरे शास्त्री के लिए बनायी गयी और दूसरे ही दिन सुबह गांधी ने उनकी मालिश शुरू की। फौरन सेवाग्राम लौटने का मकसद परचुरे शास्त्री की मालिश करना था, जिन्हें साथ रखना उनके परिवार को भी असह्य था। गांधी के लिए परचुरे शास्त्री की सेवा करना उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि से दूसरे विश्वयुद्ध में भारत के रुख पर चर्चा करना।
गांधी जीवन को उसकी संपूर्णता में देखते थे। उदाहरण के लिए, वे अर्थशास्त्र को नैतिकता से अलग एक स्वतंत्र विषय के रूप में नहीं देख सकते थे। गांधी के लिए नैतिकता–विहीन अर्थशास्त्र का मतलब था आर्थिक अनैतिकता और मानवता–विहीन विज्ञान का मतलब था अमानवीय विज्ञान।
2 मार्च, 1934 के ‘हरिजन’ के अंक में उन्होंने लिखाः ‘‘मेरा जीवन एक अविभाजित संपूर्ण इकाई है, और मेरी सारी गतिविधियां एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और वे सभी मनुष्यों के प्रति अगाध प्रेम से अपनी खुराक पाती हैं।’’
गांधी ने अतीत से मुक्त भाव से ग्रहण किया, पर वे कभी भी अतीत के गुलाम नहीं बने। गांधी का विकास जिस भाषा में हुआ वह मानवता की सांस्कृतिक विरासत की भाषा थी। ईसाइयों को लगता था कि वे लगभग बाइबिल जैसी भाषा बोलते हैं, इसी तरह आम हिंदू उनकी वाणी में वेद, उपषिद, गीता और मध्यकाल के संतों की प्रज्ञा की झलक देखते थे। लेकिन मूल्यों की मीमांसा में अंतःकरण ही उनके लिए सर्वोच्च कसौटी था। मसलन, अगर कोई विद्वान यह सिद्ध कर सके कि वेद अस्पृश्यता सिखाते हैं, तो वे वेदों को तुरंत त्याज्य मानने के लिए तैयार हो जाते।
गांधी को इतना अद्वितीय बनाने वाली चीज क्या थी? वह क्या चीज थी जिसने उन्हें लोकप्रिय बनाया? एक सम्मोहक नेता के कई असाधारण गुण उनमें नहीं थे। स्नेहपूर्ण आंखों और मुस्कराते चेहरे के सिवा उनमें कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे चित्ताकर्षक कहा जा सके। प्रसिद्ध कवयित्री सरोजनी नायडू उन्हें प्यार से ‘मिकी माउस’ कहती थीं। गांधी ने कोई असाधारण विद्वत्ता अर्जित नहीं की थी। भारतीय नेताओं में कई थे जो उनसे ज्यादा जोरदार भाषण दे सकते थे। कई विख्यात व्यक्ति थे, जो अपनी आध्यात्मिकता के लिए अधिक जाने जाते थे। कई थे जो अपनी तपश्चर्या और शुद्धाचरण के लिए विख्यात थे। फिर, वे कौन-से गुण थे जिन्होंने गांधी को इतना अद्वितीय बनाया?
मेरे खयाल से, गांधी को अद्वितीय बनाने में उनके दो गुणों का बड़ा योगदान था। एक, उनकी पूर्ण पारदर्शिता। उनके विचार, वचन और कर्म में कोई भेद या दूरी नहीं थी।
भारत की जनता इस गुण को अपने सहज बोध से भी समझती थी और अनुभव से भी। यहां एक ऐसा शख्स था जो अपनी बड़ी से बड़ी गलती को सबके सामने कबूल सकता था। यह शख्स उनके भी पापों के लिए प्रायश्चित कर सकता था। उसके निजी व्यवहार और सार्वजनिक जीवन के बीच कोई खाई नहीं थी। उनके जीवन की किताब दूसरों के सामने हमेशा खुली रही।
उन्हें अद्वितीय बनाने वाला दूसरा गुण था, सभी मनुष्यों की गरिमा को बहाल करने की उनकी उत्कट अभिलाषा।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का उनका तरीका बेशक बेजोड़ था। मगर इसके अपने उतार-चढ़ाव थे। गांधी के सभी सत्याग्रह सफल नहीं हुए। लेकिन उनके विफल सत्याग्रहों समेत हरेक सत्याग्रह ने, इनमें शामिल रहे लोगों के नैतिक स्तर को ऊपर उठाया और उनकी कड़ी नैतिक परीक्षा ली। यह गांधी की खूबी थी कि वे अपने लोगों के गुनाहों में खुद को हिस्सेदार मानते थे, और दोष अपने सिर ले लेते तथा श्रेय दूसरों को देते थे।
गांधी संत थे, पर दूसरे संतों की तरह उन्होंने स्वयं को लोगों से दूर नहीं रखा। गांधी राजनीतिक थे, लेकिन दूसरे राजनेताओं की तरह उन्होंने कभी स्वयं को नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं समझा।
गांधी के व्यापक दृष्टिकोण का ही परिणाम था कि उनके चरित्र में कई तरह के अद्भुत समन्वय दिखते हैं। आपको उनमें बुद्धिवाद और अंतर्ज्ञान का नैसर्गिक मेल दिखेगा। आपको उनमें खुलेपन और दृढ़ता का एक सुखद संयोग दिखेगा। आप उनमें प्राचीन परंपरा और आधुनिक वैज्ञानिक प्रवृत्ति का मिलन देख सकते हैं।
गांधी की एक दूसरी खूबी जीवन के प्रति उनके समग्र नजरिए में थी, जो उनके रचनात्मक कार्यक्रम और साथ ही सीधी अहिंसक कार्रवाई में प्रतिबिंबित होता था। जबकि दोनों के बीच क्या संगति है, यह उनके बहुत-से अनुयायी और कार्यकर्ता नहीं समझ पाते थे। गांधी को दोनों के बीच संतुलन बिठाना कभी भी मुश्किल नहीं लगा। उनके जीवन में संघर्ष और रचनात्मक कार्यक्रम दिन और रात की तरह एक के बाद एक लगे रहते थे और एक में दूसरे के बीज छिपे रहते थे।
संघर्ष और रचनात्मक कार्यक्रम के प्रति उनके रुख ने उनकी जिंदगी में एक दूसरे एकत्व को जन्म दिया, एक ऐसा एकत्व जो शायद उनकी शख्सियत की सबसे बड़ी खूबी बन गया। साधन की शुचिता पर उनके प्रबल आग्रह ने क्रांतिकारी, क्रांति और क्रांति के लक्ष्य में एकत्व स्थापित किया। शायद ही कोई इन तीनों को एक दूसरे से अलग कर सके। गांधी के जीवन में तीनों का संगम था, वैसे ही जैसे प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं।
(समाप्त )