— संजय गौतम —
समाजवाद की संभावना’ प्रख्यात समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा के ऐसे लेखों का संग्रह है, जिनमें आधुनिक सभ्यता के वैचारिक प्रस्थान बिंदुओं की चर्चा है, मौजूदा संकट की चर्चा है और भविष्य के समतामूलक समाज के आधार बिंदुओं को रेखांकित किया गया है। इन लेखों को चार खंडों में समायोजित किया गया है। पहला खंड है- ‘आधुनिक चेतना का नेपथ्य’। इसमें तीन लेख हैं- ‘हमारा समय और डार्विन’, ‘संघर्ष सहयोग और नया नियतिवाद’ और ‘पूंजीवाद का संकट’। दूसरा खंड है- ‘गहराता पर्यावरण संकट’। इसके अंतर्गत पांच लेख हैं- ‘ऊर्जा संकट और समाधान’, ‘ऊर्जा संकट, समाधान या बहाना’, ‘भविष्य की सवारी बैलगाड़ी’, ‘पर्यावरण संकट की अंधी गली’, ‘जल संकट के छिपे कारक’। तीसरा खंड है- ‘विकास और विस्थापन’। इसके अंतर्गत चार लेख हैं- ‘विस्थापन का विकास’ ‘नयी व्यवस्था में किसान’, ‘किसान आंदोलन की चुनौती, ‘मेरा नाम तेरा नाम नंदीग्राम’। चौथा खंड है– ‘विकल्प की तलाश’। इसके अंतर्गत चार लेख हैं- ‘भविष्य का साम्यवाद कैसा होगा’, ‘आज की दुनिया में समाजवाद’, ‘भावी समाजवाद, अनुभवों के आलोक में’, ‘हिंद स्वराज का भारत’।
लगभग सौ पृष्ठों में समाये कुल सोलह लेखों के माध्यम से समाजवाद के अतीत और भविष्य का एक मुकम्मल खाका बनता है। आज के समय में समाजवाद की संभावना पर बात करना कुछ लोगों के लिए समाप्त हो चुकी संभावना पर व्यर्थ का विलाप करना है या फिर कभी घटित न हो सकने वाली संभावना पर व्यर्थ का सपना देखना है। ऐसा इसलिए है कि पूंजी तंत्र द्वारा ‘समाजवाद’ को अपने तरीके से निपटा दिया गया है। सत्ता की राजनीति करनेवाले समाजवादी दल या साम्यवादी दल भी समाजवाद की वापसी की बात आत्मविश्वास और दिल की गहराई से नहीं करते हैं। वे केवल कुछ प्रतीकों के सहारे सत्ता की राजनीति में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं। दलों के नाम में जो ‘समाजवाद’ शब्द चिपका रह गया है, वह भी प्रतीक के रूप में ही।
सच्च्दिानंद सिन्हा अपने लेखों में प्रचलित राजनीति की विचारहीनता, दिशाहीनता और मौजूदा संकट के प्रति नासमझी को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करते हैं। किताब के पहले खंड में वह हमें डार्विन, हर्वर्ट स्पेंसर, माल्थस इत्यादि विचारकों के पास ले चलते हैं, जिनसे पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता को ताकत मिली। साथ ही वह मार्क्स के विचारों की याद दिलाते हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर सोवियत रूस और चीन जैसे देशों में साम्यवादी शासन, समाज की स्थापना हुई। लेकिन माओवादी क्रांति के बावजूद ये दोनों धाराएं अंततः एक हो गयीं और पूंजीवादी आर्थिक संरचना में तब्दील हो गयीं। बड़ी औद्योगिक संरचना की यही नियति थी। पूंजीवाद के विस्तार ने मनुष्य की जरूरतों के हिसाब से उद्योगों का विस्तार नहीं किया, बल्कि उत्पादन को बढ़ाते हुए मनुष्य में अत्यधिक उपभोग की लालसा व आवश्यकता पैदा की। इसी शिकंजे में आज का मनुष्य जकड़ा हुआ है।
पूंजीवाद की इस दैत्याकार औद्योगिक तथा यांत्रिक संरचना ने आज सभ्यता के सामने तीन बड़े संकट खड़े किये हैं- विकास के नाम पर विस्थापन, प्रकृति का विनाश और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी। विकास का स्वाद समाज का प्रभुवर्ग ले रहा है, लेकिन उसकी लालसा विभिन्न माध्यमों से नीचे तक पहुंचती है और उसे यह एहसास बना रहता है कि ‘कभी न कभी वह भी विकास के शिखर तक पहुँचेगा। वह विकास की सीढ़ी पर पहुंचने की जगह विस्थापित हो जाता है और निरंतर सभ्यता के हाशिये पर धक्के खाता रहता है। बेरोजगारी का दंश भी वही सहता है और प्रकृति की मार भी सबसे ज्यादा उसी पर पड़ती है।
आधुनिक पूंजीवादी संरचना और प्रभुवर्ग भी इन समस्याओं की चिंता करता हुआ दिखता है, लेकिन बुनियादी समझ और दिशा ठीक न होने की वजह से वह विस्थापन को पुनर्वास से, प्रकृति के विनाश को नयी तकनीकों से तथा बेरोजगारी को भत्ता से क्षतिपूर्ति करने का प्रयास करता है, जिसका कोई खास असर समाज पर नहीं पड़ता है और स्थिति दिन पर दिन और संकट की ओर बढ़ जाती है। किताब में इन समस्याओं पर एक बुनियादी समझ बनाने और दिशा तय करने का प्रयास है।
किसानों के संकट पर विचार करते हुए लेखक औद्योगिक सभ्यता की शुरुआत में बनाये गये ‘एन्क्लोजर’ की ओर हमारा ध्यान खींचता है, जिसने बड़ी फार्मिंग के लिए जमीन मालिक को मजदूर बना दिया था। उदारीकरण ने एक बार फिर से पूरी दुनिया में बड़ी फार्मिंग के लिए व्यवस्था का निर्माण करना शुरू किया। आज उसका असर तेज दिख रहा है। भारत के किसान आंदोलन और मौजूदा संकट की बुनियाद में भी यही सोच और नीति है, लेकिन किसानों के साथ खड़े हुए राजनीतिक दलों में भी कोई बुनियादी समझ नहीं है।
सच्चिदानंद सिन्हा ने सत्ता की राजनीति से अलग समाजवाद के स्वप्न और उसकी जरूरत को रेखांकित किया है। उनका मानना है कि संसदीय राजनीति से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन संसदीय राजनीति में थोड़ी बहुत हिस्सेदारी के बल पर बुनियादी परिवर्तन की दिशा में कार्य नहीं किया जा सकता। इसके लिए संकट के बुनियादी पहलुओं से आम जन को अवगत कराना होगा और उसे एक दिशा के लिए तैयार करना होगा, यह कार्य कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है। उन्होंने 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’ से एक कथन यहाँ उद्धृत किया है, ‘उनकी (समाजवादियों की) स्थिति उन पर्वतारोहियों जैसी थी जो दूर से हिमाच्छादित सुनहरे शिखरों से आकृष्ट होकर शिखरों पर पहुंचने के लिए कदम बढ़ा देते हैं, लेकिन जैसे-जैसे वे पर्वत के पास पहुंचते हैं पथ दुरूह होता जाता है। जैसे-जैसे वे पर्वत के ऊपर चढ़ते हैं वैसे-वैसे शिखर आँखों से ओझल होता जाता है और सामने बच जाता है कंटकाकीर्ण मार्ग। अनेक रास्ते की कठिनाइयों में लक्ष्य भूल कर भटक जाते हैं। लेकिन जो साहस और विश्वास के साथ अपने उद्देश्य पर डटे रहते हैं अंत में शिखर पर पहुंच ही जाते हैं।’ (पृ.81)
सवाल उठता है आज शिखर पर पहुंचने का विश्वास कितने लोगों में बचा हुआ है और उसका रास्ता क्या है। लेखक ने इसके लिए गांधी की ओर देखा है, जिनके वैचारिक चिंतन का एक स्रोत यूरोप में भी रहा है। जिन्होंने छोटे उद्योगों के साथ ही ग्राम की परस्पर निर्भरता पर जोर दिया, जिन्होंने प्राकृतिक साहचर्य पर जोर दिया, जिन्होंने बड़ी औद्योगिक संरचना को इसलिए नकार दिया कि बड़ी पूंजी और लालसा ही इसकी जरूरत भी है और ताकत भी। यह मनुष्य को बराबरी न देने के लिए ही चल रही है और इसके जरिये बराबरी और सुरक्षित पर्यावरण का सपना नहीं देखा जा सकता है। उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में बाकायदा इसका चित्र खींचा, यह जानते हुए भी कि तत्कालीन मनुष्य समाज इसके लिए तैयार नहीं है। लेकिन आज के संकट में बार-बार इसकी याद आती है। सिन्हा जी ने इसीलिए ‘हिंद स्वराज’ पर एक अध्याय से ही पुस्तक को समाप्त किया है।
सच्चिदानंद सिन्हा ने आज की सभ्यता के संकट की गंभीरता को बताते हुए वैकल्पिक अर्थनीति की अनिवार्यता पर जोर दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि मौजूदा प्रयास सभ्यता के संकट को, खासतौर से पर्यावरण और बेरोजगारी के संकट को सुलझा नहीं सकते। यह संकट दिन पर दिन गंभीर होता जाएगा। इसके लिए कम उपभोग एवं ग्रामोद्योग पर जोर देना ही होगा। इसके लिए दृढ़संकल्पित होकर अहिंसक तरीके से, रचनात्मक तरीके से कार्य करना होगा। समाजवाद की संभावना यदि है तो इसी रूप में साकार होगी।
सच्चिदा जी ने जिस तरफ संकेत किया है नि:संदेह आज की स्थिति में उस दिशा में चलना एक कठिन कार्य है। न पूंजी के विस्तार की लालसा कम है, न जनता की अभिलाषा कम है। फिर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा इस संकट की बुनियाद को समझता है, उसे ही अपना रास्ता तय करना है। समता के शिखर पर पहुंचने का कंटकाकीर्ण रास्ता। यह किताब इसी दिशा में चलने के लिए प्रेरित करती है, और हमारे दिमागी धुंधलेपन को साफ करती है।
किताब : समाजवाद की संभावना
लेखक : सच्चिदानंद सिन्हा
मूल्य : 225
प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन (अब सेतु प्रकाशन समूह का अंग), सी-21, सेक्टर 65, नोएडा-201301, फोन संपर्क : 09718717200
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