1.लोकतंत्र
खरगोश बाघों को बेचता था
फिर
अपना पेट भरता था
बिके बाघ
खरीदारों को खा गये
फिर बिकने बाजार
में आ गये
2. लड़कियाँ जो दुर्ग होती हैं
जाति को कूट पीस कर खाती लड़कियों के गले से
वर्णहीन शब्द नहीं निकलते
लेकिन निकले शब्दों में वर्ण नहीं होता है
परंपराओं को एड़ी तले कुचल चुकी लड़कियों के
पाँव नहीं फिसलते
जब वे चलती हैं
रास्ते पत्थर हो जाते हैं
राख लड़कियों की देह की माटी से बनी हैं
सभी देव प्रतिमाएँ
इसलिए ईशपूजा से भागती हैं ये लड़कियाँ
जो लड़कियाँ धर्मच्युत बताई जाती हैं
वास्तव में धर्ममुक्त होती हैं
धर्म को ताक़ पर रख चुकी लड़कियाँ
स्वयं पुण्य हो जाती हैं
और बताती हैं –
पुण्य! कमाने से नहीं
ख़ुद को सही जगह पर खर्च करने से होता है
वे न परंपरा ढोती हैं
न त्यौहार
वे ढूँढती हैं विचार
वे न रीति सोचती हैं
न रिवाज़
वे सोचती हैं आज
नयी तारीख़ लिखती
इन लड़कियों की हर यात्रा तीर्थ है
जाति धर्म और परंपरा पर
प्रवचन नहीं करने वाली
इन लड़कियों की रीढ़ में लोहा
और सोच में चिंगारी होती है
ये अपनी रोटी ठाठ से खाते वक्त
दूसरों की थाली में नहीं झाँकती
ये रेत के स्तूप नहीं बनाती
क्योंकि ये स्वयं दुर्ग होती हैं
3. माई लाई गाँव के बच्चियों की क़ब्र(1968)
माई लाई गाँव में मारी गयी
कुछ बच्चियाँ शिन्ह पेंटिंग बन गयी
कुछ फूलों की क्यारियाँ
कुछ प्राचीन लाल टाइलों वाली छत
और दीवारें
कुछ अब भी विचरती रहती हैं
गोल नाव में बैठकर
वे देखती हैं
कभी आकाश
तो कभी नारियल के पेड़
संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा में रो रही थी
एक ईराकी लड़की
उसके रोने भर से जाग गयी थी क़ब्रों में सोयी
उन बच्चियों की आत्माएँ
जिनके देह पर उम्र से ज़्यादा बड़े घाव थें
उस यज़ीदी लड़की ने एक बार कहा था
कि काश युद्घ में सतायी गयी वह अंतिम लड़की
हो पाती!
और आमीन से गूँज उठी थीं सब क़ब्रें
4. अफ़वाह
अफ़वाह है कि एक बकरी है
जो चीर देती है सींग से अपने छाती शेर की
खरगोश बिल में दुबका है
बाघ माँद में डर से
लोमड़ी और गीदड़ नहीं बोल रहे हैं कुछ भी
पर एक जोंक है
बिना दाँत, हड्डी के भी रीढ़ वाली
वह चूस आयी है सारा खून बकरी का
कराहती बकरी कह रही है-
अफ़वाह की उम्र होती है,
सच्चाई ने मौत नहीं देखी है
क्योंकि यह न घटती है, न बढ़ती है
5. लिंचिंग
भीड़ से भिन्न था
तो क्या बुरा था
कबीर भी थें
अम्बेडकर भी थें
गांधी की भीड़ कभी पैदा होती है क्या?
पत्ते खाकर
आदमी का रक्त बहा दिया
दोष सब्ज़ियों का नहीं
विचार का है
इस बात पर कि वह
खाता है वह सब
जो भीड़ नहीं खाती
खा लेते कुछ भी
पर इंसान का ग्रास…आदमखोर
इन प्रेतों के बढ़ते झुंड आपके
पास आऐंगे
आज इस वज़ह से
कल उस वज़ह से
निशाना सिर्फ़ इंसान होंगे
जो जन्म से मिला
कुछ भी नहीं तुम्हारा
फिर इस चीज़ों पर
इतना वबाल
इतना उबाल
और फिर ऐसा फ़साद?
आज अल्पसंख्यक सोच को कुचला है,
कल अल्पसंख्यक जाति,परसों धर्म
फिर रंग, कद, काठी, लिंग को
फिर उन गाँव शहर देश के लोगों को जिनकी संख्या
भीड़ में होगी कम
किसी एक समय में
किसी एक जगह पर
हर कोई उस भीड़ में होगा अल्पसंख्यक
और भीड़ की लपलपाती हाथें तलाशेंगी
सबका गला, सबकी रीढ़ और सबकी पसलियां
पहले से ही वीभत्स है
बहुसंख्यकों का खूनी इतिहास
अल्पसंख्यकता सापेक्षिक है
याद रहा नहीं किसी को
असभ्यों की भीड़ से एक को चुनकर
सभ्यों की जमात में खड़ा कर दो
और पूछो तुम्हारा स्टेटस क्या है?
6. वह कोच लड़की
दार्जिलिंग की पहाड़ियों में
मिली
एक कोच लड़की ने
बताया था मुझको
भात से अधिक कुछ भी नहीं
चाहिए पेट भरने के लिए
बाक़ी सब चीज़ें आडम्बर हैं
दूसरे खाद्य पदार्थों का नाम वह सिर्फ़
इसलिए याद रखती है
क्योंकि ये किताबों में लिखी हैं
और परीक्षा में उन पर पूछे प्रश्नों का उत्तर देना
आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है
वह चाहती है पढ़-लिखकर कलेक्टर बनना
लेकिन तब भी वह पैसे से सिर्फ़ चावल ही खरीदेनी
बाकी बचे पैसे से वह पढ़ाएगी सब लड़कियों को
ताकि वे सब भी अपनी कमाई से ख़रीद सकें चावल
और बना सकें अपना भात
7. तथाकथित प्रेम
अलाप्पुझा रेलवे स्टेशन पर
ईएसआई अस्पताल के पीछे जो मंदिर हैं
वहाँ मिलते हैं
फिर रेल पर चढ़कर दरवाज़े पर खड़े होकर
हाथों में हाथ डालकर बस एक बार ज़ोर से हँसेंगे
बस इतने से ही बहती हरियाली में
बने ईंट और फूस के घरों से झाँकती
हर पत्थर आँखों में एक संशय दरक उठेगा
डिब्बे में बैठे हर सीट पर लिपटी फटी आँखों में
मेरा सूना गला और तुम्हारी उम्र चोट करेगी
मेरा यौवन मेरे साधारण चेहरे पर भारी
तेरी उम्र तेरी छवि को लुढ़काकर भीड़ के दिमाग़ में ढनमना उठेगी
चरित्र में दोष ढूँढ़ते चश्मों में बल्ब जल उठेंगे
हमारे आँखों की भगजोगनी भूक-भूक
उनके आँखों के टार्च भक से
हम पलकें झुकाएँगे और भीड़ हमें दिन दहाड़े
या मध्यरात्रि में मौत की सेंक देगी
तथाकथित प्रेम, मिट्टी से रिस-रिस कर
उस नदी में मिल जाएगा
जिसे लोग पेरियार कहते हैं