सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा मूलतः, और अंततः भी, एक सांस्कृतिक अवधारणा है या राजनीतिक? इस प्रश्न का उत्तर बड़ी हद तक इस पर भी निर्भर करता है कि संस्कृति और राष्ट्र की हमारी अवधारणा क्या है। संस्कृति हमारे लिए एक ऐतिहासिक धर्म या संप्रदाय का पर्याय है या मूल्यान्वेषण और मूल्यानुभूति की प्रक्रिया? इसी तरह राष्ट्र एक भावात्मक अस्तित्व है या राजनीतिक संगठन अर्थात राज्य? दरअसल बहुलार्थी शब्दों का इस्तेमाल उनके प्रयोक्ता को एक सुविधा दे देता है जिससे वह अपने वास्तविक मंतव्य पर उन शब्दों के सदाशयी रूप का मुखौटा चढ़ा देता है? धर्म, संस्कृति या राष्ट्र आदि ऐसे ही शब्द हैं।
कुछ विचारकों की राय में धर्म की अवधारणा संस्कृति की अवधारणा से अधिक व्यापक है क्योंकि संस्कृति तो केवल वह है जो मानव निर्मित है अर्थात अलौकिक है जबकि धर्म की अवधारणा में लोक और लोकोत्तर दोनों ही समाहित हो जाते हैं। इसका तात्पर्य यह होता है कि धर्म संस्कृति का बीजाधार है और इसी कारण किसी समाज की संस्कृति की पहचान और व्याख्या धर्म के आधार पर की जाने लगती है। अब धर्म भी क्योंकि बहुलार्थी शब्द है इसलिए उसके इस्तेमाल से भी एक अतिरिक्त सुविधा यह मिल जाती है कि परिभाषा करते समय तो हम धर्म के तात्त्विक अर्थ है या धारयतीति धर्म: आदि की बात करते रहते हैं लेकिन जब उसकी व्याख्या करने लगते हैं तब धर्म शब्द के सांप्रदायिक अर्थ को प्रधानता देते हुए उसे ऐतिहासिक धर्मों के संदर्भ से जोड़कर देखने लगते हैं। इसी के परिणामस्वरूप एक मूल्यान्वेषण और मूल्यानुभूति के माध्यम से चेतना के गुणात्मक उत्कर्ष की प्रक्रिया होने का दावा करनेवाली संस्कृति हिंदू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, यहूदी संस्कृति, ईसाई संस्कृति आदि का रूप ग्रहण करने लग जाती है।
यही कारण है कि जिसे हम दार्शनिक शब्दावली में अद्वैत कहते हैं वह सामान्य बोलचाल में हिंदू संज्ञा धारण कर लेता है- और अद्वैत ही क्यों, भारतीय का अर्थ भी हिंदू हो जाता है। अन्यथा, भारतीयता को हिंदुत्व के संदर्भ से परिभाषित-व्याख्यायित करने का और क्या कारण हो सकता है? इसीलिए तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आग्रह करनेवाले संघ परिवार के पूर्व-नेता और विचार-स्रोत गुरु गोलवलकर भारत और भारतीय शब्दों को भ्रांतिकारक मानते हुए हिंदू शब्द का आग्रह करते हैं। अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट’ में वह लिखते हैं कि इंडियन से इस देश में रहनेवाले मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अनेक समुदायों का भी बोध होता है। अतः जब हम अपने खास समाज को व्यक्त करना चाहते हैं तो भारतीय शब्द से भी गलतफहमी होने की संभावना है। हम जो कहना चाहते हैं वह अर्थ मात्र हिंदू शब्द से सही और पूर्ण रूप में अभिव्यक्त होता है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि संघ परिवार जब भारतीय शब्द का प्रयोग करता है तो उसका आशय किसी दार्शनिक हिंदुत्व से नहीं बल्कि अन्य समुदायों से अलग केवल हिंदू समुदाय से होता है और स्वाभाविक है कि तब उसके लिए संस्कृति का वास्तविक तात्पर्य भी एक संकीर्ण अर्थ में हिंदू समाज के रीति-रिवाजों और रूढ़ियों से होता है। भारतीयता को हिंदुत्व से परिभाषित-व्याख्यायित करने के आग्रह का असल कारण भी यही है।
दरअसल किसी भी सांस्कृतिक प्रक्रिया का मूल प्रयोजन मनुष्य को उसके संकीर्ण स्व के घेरे से निकाल कर एक सार्वभौमिक चेतना, संपूर्ण जगत या अद्वैत की शब्दावली में कहें तो परम आत्म के साथ एकानुभूति के लक्ष्य की ओर अग्रसर करना है। कुटुंब, प्रदेश, संप्रदाय, समाज, राष्ट्र आदि इस यात्रा के पड़ाव हैं, मंजिल नहीं। यदि हम इनमें से किसी भी पड़ाव को मंजिल समझकर उसे ही अपना लक्ष्य मान लेते हैं तो यह अद्वैत की शब्दावली में एक प्रकार के अध्यास में गिरना है।
वस्तुतः, स्व या अस्मिता के कई वृत्त हैं जिनका विस्तार देश से लेकर अनंत सृष्टि तक है। मैं एक नाम से जानी जा रही देह हूं, मैं एक परिवार का सदस्य हूं, मैं एक जाति हूं, मैं एक अध्यापक, मजदूर, व्यापारी, लेखक या कुछ और हूं, मैं एक प्रदेश या राष्ट्र का निवासी हूं, मैं एक संप्रदाय विशेष या दल विशेष का अनुयायी हूं आदि सभी मान्यताएं अस्मिता के छोटे-बड़े घेरे हैं जो अनंत सृष्टि के साथ मेरी एकता की धारणा तक फैलते हैं। लेकिन यदि ये मान्यताएं या पहचानें मेरे आत्म के विस्तार का माध्यम होने के बजाय उसके संकीर्ण घेरे हो जाते हैं तो यह मेरे आत्म की वास्तविक संभावनाओं का दमन अर्थात संस्कृति विरोधी प्रक्रिया होगी।
दरअसल आत्म की इन पहचानों का तात्पर्य इनके व्यावहारिक उपयोग के माध्यम से परम आत्म की मंजिल तक पहुंचना है। यदि इनमें से कोई भी पहचान मुझे अपने में जकड़ लेती है तो वह मेरी वास्तविक पहचान का अवरोध हो जाती है। इन्हीं अर्थों में धर्म संगठन अक्सर धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं और तब धार्मिक होने- अर्थात आत्मा की निर्वैयक्तिक अनुभूति के लिए प्रयासरत होने- के बजाय एक संगठन को अपनी पहचान बना लेते हैं।
इसी तरह राष्ट्र भी एक भावात्मक सत्ता है। वह भी अपने स्व के संकीर्ण घेरे से निकलने में हमारा सहायक है- लेकिन सहायक ही। उसे लक्ष्य मानने का तात्पर्य राष्ट्राध्यास का शिकार होना है। अद्वैत की शब्दावली में अध्यास विकार है- फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह देश में होता है, संपत्ति में,संप्रदाय में, दल में अथवा राष्ट्र में। इसलिए भारतीय परंपरा में धर्म की बात करनेवालों को यह समझने की जरूरत है कि यदि वे संप्रदायगत अर्थ में एक धर्म को राष्ट्र का आधार बनाते हैं तो यह दुहरे अध्यास में गिरना होगा। जो धर्म मुझे अन्य से जोड़ने के बजाय आत्यंतिक रूप से उससे न केवल अलग करता बल्कि उसके प्रति आक्रामक या भयग्रस्त बनाता है, वह धर्म नहीं है और यदि उसके आधार पर राष्ट्र का निर्माण किया जाता है तो उसमें शैतान का निवास ही होगा। वह ईश्वर का वैसा निवास नहीं होगा जिसकी आकांक्षा श्रीअरविंद जैसे योगी-दार्शनिक ने की है।
वास्तव में हम राष्ट्र या राष्ट्रीयता की उस अवधारणा के शिकार हैं जिसका विकास उन्नीसवीं शती के यूरोपीय इतिहास की परिस्थितियों में हुआ था। यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि बात-बात में भारतीयता की दुहाई देनेवाले राष्ट्रवादी (!) विचारक राष्ट्र की किसी भारतीय अवधारणा की पहचान विकसित करने के बजाय उसी अवधारणा पर बल देते रहे हैं जिसका एक त्रासद परिणाम देश का विभाजन था।
सैद्धांतिक स्तर पर हिंदुत्ववादियों की राष्ट्र की अवधारणा और जिन्ना की मान्यता कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं में कोई बुनियादी फ़र्क़ नज़र नहीं आता- सिवाय इसके कि इससे पहला अपने संप्रदाय के लाभ की भ्रांति में है तो दूसरा अपने संप्रदाय के लाभ की भ्रांति में- जबकि वास्तव में इससे दोनों ही संप्रदायों का आत्मबोध विकसित और शोधित होने के बजाय विकारग्रस्त होता है। यह आश्चर्यजनक है कि न केवल जिन्ना और सावरकर, दोनों की राष्ट्र की अवधारणा में साम्य है बल्कि बाबासाहब आंबेडकर जैसे विचारक भी इसी अवधारणा के समर्थक कहे जा सकते हैं जिसका प्रमाण उनकी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ है।
लेकिन इस बहस में हम एक ऐसे विचारक को बिल्कुल भुला देते हैं जो हमारी विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थिति के आधार पर राष्ट्रीयता की एक मौलिक अवधारणा का विकास करता और जिन्ना-सावरकर के द्विराष्ट्र सिद्धांत को एक वास्तविक वैचारिक प्रत्युत्तर देता है। इसकी वजह शायद डॉ. राजेंद्रप्रसाद का निराग्रही और निस्पृह व्यक्तित्व रहा है। डॉ राजेंद्रप्रसाद अपनी लघु पुस्तिका इंडिया डिवाइडेड में राष्ट्रीयता की एक विशिष्ट अवधारणा रखते हैं। वे वैयक्तिक राष्ट्रीयता और राजनीतिक राष्ट्रीयता में बुनियादी फ़र्क़ को रेखांकित करते हुए स्पष्ट करते हैं कि वैयक्तिक राष्ट्रीयता का राजनीतिक राष्ट्रीयता से कोई संबंध नहीं ह। वैयक्तिक राष्ट्रीयता का संबंध व्यक्ति के परंपरागत विश्वासों से हो सकता है। उससे उसके निवास का कोई संबंध नहीं है।
उदाहरणार्थ अमेरिका, कनाडा या ब्रिटेन आदि देशों में रहने और वहां की नागरिकता ग्रहण कर लेनेवाला कोई हिंदू, मुसलमान या ईसाई अथवा बौद्ध आदि अपने परंपरागत विश्वासों और आचार को अपनाए रहकर भी वहां का अच्छा और कर्तव्यपरायण नागरिक बना रह सकता है। उसकी वैयक्तिक राष्ट्रीयता और उसकी राजनीतिक राष्ट्रीयता अर्थात एक राज्य का सदस्य होने की उसकी हैसियत में कोई पारस्परिक विरोध नहीं है। डॉ राजेंद्रप्रसाद अपने तर्क के समर्थन में कनाडा, स्विट्जरलैंड आदि देशों की व्यवस्था का उल्लेख भी करते हैं जहां विभिन्न वैयक्तिक राष्ट्रीयताओं के कई समूह एकसाथ एक राजनीतिक राष्ट्रीयता के अंतर्गत रह रहे हैं। कनाडा में अंग्रेज और फ्रांसीसी एक ही राजनीतिक राष्ट्रीयता को सहयोगपूर्वक अपनाए हुए हैं तो स्विट्जरलैंड में फ्रांसीसी, जर्मन और इतालवी।
भारत की ऐतिहासिक परिस्थिति भी इसी प्रकार की, बल्कि इससे कहीं अधिक वैविध्यपूर्ण है। यहां न केवल संप्रदायगत विश्वासों की विविधता है बल्कि भाषाओं और सामाजिक परंपराओं के आधार पर भी कई तरह की भावात्मक अस्मिताएं हैं जिनसे संबंधित समूह के सदस्यों की वैयक्तिक राष्ट्रीयता जुड़ी है। लेकिन भारत को यदि एक राजनीतिक इकाई के रूप में बने रहना है तो उसे इन समूहों की वैयक्तिक राष्ट्रीयताओं को सम्मान देते हुए राजनीतिक राष्ट्रीयता को इनसे अलग रखना होगा।
इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक अर्थात संप्रदायगत या भाषागत अथवा अन्य किसी प्रकार की परंपरागत राष्ट्रीयता राजनीतिक राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकती। जब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अर्थात संप्रदायगत या भाषागत राष्ट्रवाद के आधार पर अन्य वैयक्तिक राष्ट्रीयताओं को काटकर सिर्फ किसी एक परंपरा को केंद्र में रखते हुए राजनीतिक राष्ट्रीयता को स्थापित करना चाहते हैं तो उससे अंततः एक फासी राज्य का उदय होता है। केवल सांस्कृतिक लेबल चस्पां कर देने से कोई आक्रामकता सांस्कृतिक नहीं हो जाती। उसके लिए अलगाव और आक्रामकता के भाव से मुक्ति आवश्यक है क्योंकि संस्कृति में आक्रामकता और अलगाव को कोई स्थान नहीं है।