मौजूदा किसान-आंदोलन के सबसे लोकप्रिय नारों में एक ये है कि हमलोग अपनी फसल और नसल यानी भावी पीढ़ी और उपज को बचाने के लिए लड़ रहे हैं। किसानों की दशा पर केंद्रित नये सरकारी सर्वेक्षण से पता चलता है कि ये नारा दरअसल कितना सच्चा है। बीते 10 सितंबर 2021 को जारी यह अहम सरकारी सर्वेक्षण-रिपोर्ट सिर्फ नीति-निर्माताओं और राजनेताओं के लिए ही नहीं, किसानों और किसान-आंदोलन के लिए भी चेतावनी की घंटी है।
एनएसएस की 77वें दौर की गणना पर आधारित इस बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट (सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड एंड लैंड एंड लाइवस्टॉक होल्डिंग्स ऑफ हाउसहोल्ड्स इन रूरल इंडिया, 2019) को लेकर अखबारों में ज्यादातर सुर्खियां इस एक बात पर केंद्रित रही हैं कि देश के औसत किसान-परिवार पर कर्ज का बोझ 47,000 रुपये से बढ़कर अब 74,000 रुपये हो चला है। अब ये बात बेहद चिन्ताजनक है, खासकर इस रुझान को देखते हुए कि किसी किसान परिवार की दशा जितनी बेहतर है तो उसके ऊपर बकाया कर्ज का बोझ भी उतना ही ज्यादा है। लेकिन, यह खुद में रोग नहीं बल्कि रोग का लक्षण भर है। असल बात है, किसान की आमदनी या यों कह लें किसान की आमदनी में कमी।
सर्वेक्षण में किसानों की आमदनी के बारे में जो कहा गया है उसकी कुछ खबरों में नोटिस ली गयी है। खेती-किसानी में लगे एक औसत परिवार को लगभग 10,000 रुपये महीने की आमदनी होती है यानी उससे भी कम जितना कि बड़े शहरों में कोई घरेलू कामगार कमा लेता है। रिपोर्टों में ये भी बताया गया है कि साल 2013 में हुए ऐसे ही सर्वेक्षण को आधार बनाकर देखें तो बीते छह सालों में किसान परिवार की मासिक आमदनी 6,442 रुपये से बढ़कर 10,218 रुपये हो गयी है।
ये तथ्य भले ही हैरतअंगेज हों लेकिन कहानी का बस एक छोटा सा हिस्सा इनसे उजागर हो पाता है, बड़ा हिस्सा इन तथ्यों के पीछे छिपा रह जाता है। इन तथ्यों से यह धारणा बनती है कि खेती-किसानी से किसी किसान परिवार को महीने में 10 हजार रुपये से ज्यादा की आमदनी हो रही है और चूंकि छह साल पहले यह आमदनी और भी कम थी, तो मन में यह भी आ सकता है कि किसान-परिवारों की आमदनी में इजाफे की रफ्तार ठीक-ठाक है। लेकिन यह एक भ्रामक धारणा है जिसकी वजहें नीचे लिखी जा रही है।
एनएसएस के तथ्यों से जुड़े मसले
पहली बात तो यही कि एनएसएस के आंकड़े भटकाऊ हैं क्योंकि उनमें औसत आमदनी की बात बतायी गयी है। औसत आमदनी बताते इस तथ्य में तो 10 एकड़ या इससे ज्यादा की जमीन की मिल्कियत वाले वैसे बड़े किसान भी शामिल हैं जिनकी आमदनी लगभग 30,000 रुपये प्रतिमाह (सरकारी चतुर्थवर्गीय कर्मचारी की आमदनी से ज्यादा) की है। लेकिन देश में सबसे बड़ी तादाद 1 एकड़ से 2.5 एकड़ खेत वाले किसानों की है और ऐसे किसानों परिवारों की मासिक आमदनी 8,571 रुपये की है।
दूसरी बात, सर्वेक्षण में बतायी गयी आमदनी सिर्फ किसानी से हासिल आमदनी नहीं है बल्कि वह किसान-परिवार की कुल औसत आमदनी है। आप यह ना समझें कि यहां बाल की खाल निकाली जा रही है— दरअसल यह बड़े मार्के की बात है कि सर्वेक्षण में बतायी गयी आमदनी सिर्फ किसानी से हासिल आमदनी नहीं है। किसान-परिवार में हर कोई किसानी नहीं करता। और, ऐसा भी नहीं कि किसान को सारी आमदनी सिर्फ खेती-बाड़ी से ही होती है। सर्वेक्षण में खेतिहर परिवार की परिभाषा एक व्यापक दायरे में की गयी है। ग्रामीण इलाके के वैसे सभी परिवारों को किसान-परिवार माना गया है जिन्हें फसल उपजाने या पशुपालन से कुछ ना कुछ आमदनी हो जाती है। मतलब, अगर किसी ग्रामीण परिवार में पिता खेती-बाड़ी करते हों, भैंस की देखरेख मां के जिम्मे हो, बेटी स्थानीय स्कूल में शिक्षक हो और बेटा दुकान चलाता हो तो ऐसे परिवार को भी सर्वेक्षण में किसान परिवार माना गया है। इन चार स्रोतों से होनेवाली आमदनी को एक साथ जोड़ा जाएगा और सर्वेक्षण में इस कुल आमदनी को किसान-परिवार की आमदनी माना जाएगा। जैसा कि इस उदाहरण से जाहिर है, यहां खेती-बाड़ी से होनेवाली आमदनी का परिवार की कुल आमदनी में योगदान बहुत कम है।
यह कोई हवा-हवाई उदाहरण नहीं है। नये सर्वेक्षण से पता चलता है कि किसी किसान परिवार की कुल आमदनी में खेती-किसानी से हासिल कमाई का हिस्सा बस एक तिहाई से थोड़ा ही अधिक है। किसी एक माह में किसान-परिवार को विभिन्न किस्म की फसलों के उत्पादन से 3,798 रुपये हासिल होते हैं और 1,582 रुपये पशुपालन के जरिये आते हैं। किसान-परिवार की मासिक आमदनी में व्यापार से होनेवाली कमाई का हिस्सा 641 रुपये होता है जबकि 4,063 रुपये ऐसे परिवार को वेतन या मजदूरी के रूप में हासिल होते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो किसान-परिवारों को अपने खेत से जितनी कमाई नहीं होती, उससे ज्यादा आमदनी किसी अन्य जगह पर अपनी मेहनत बेचकर होती है। यहां याद रखने की बात यह है कि खेती-बाड़ी के काम से किसान-परिवारों की मासिक आमदनी बस 3,798 रुपये है। इस तथ्य से आप अनुमान लगा सकते हैं कि आखिर इतनी ज्यादा तादाद में लोग शहरों में क्यों आ रहे हैं या फिर लोगों में सरकारी नौकरी पाने के लिए इतना कोलाहल क्यों मचा है।
तीसरी बात यह कि यहां किसान को हासिल जिस मामूली सी आमदनी (3,798 रुपये) की बात कही गयी है, वह किसान की वास्तविक आमदनी का सटीक नहीं बल्कि कुछ बढ़ा-चढ़ा आकलन कहलाएगा क्योंकि आमदनी की गिनती में बड़ी उदारता बरती गयी है। खेती-बाड़ी से हासिल आमदनी की गिनती में ये देखा गया है कि किसानों को अपने सभी कृषि-उत्पाद बेचने पर कितनी रकम हासिल होती है और फिर इस रकम में से वह राशि घटायी गयी है जो किसान ने फसल उपजाने के क्रम में लागत के रूप में प्रत्यक्ष रुप से चुकायी है। इन दो राशियों के बीच जो अन्तर है, उसे किसान का हासिल लाभ माना गया है।
किसान-परिवार फसल उपजाने के लिए खुद के खेतों में जो मेहनत करता है या फिर जो अन्य चीजें लगाता है, उसकी कीमत को इस आकलन में नहीं जोड़ा गया है अन्यथा किसान को हासिल लाभ की राशि और भी कम आती। किसान ने जो लागत फसल उगाने के क्रम में नकदी के रूप में नहीं चुकायी, अगर आप उसे भी जोड़ें तो नजर आएगा कि लाभ वास्तविक लागत की तुलना में और भी कम हो जा रहा है। अगर आप किसान की आमदनी जोड़ने के इस सही तरीके को अपनायें तो दिखेगा कि उपज से किसान को महीने में बस 3,058 रुपये की आमदनी हो रही है और पशुपालन से केवल 441 रुपये की। मतलब, किसान-परिवार की औसत मासिक आमदनी 8,337 रुपये की है।
चौथी बात, छह साल में किसान की आमदनी में ठीक-ठाक रफ्तार से बढ़ोत्तरी होने की धारणा इस वजह से भी गलत है क्योंकि इसमें आमदनी की गिनती करते हुए छह साल की अवधि में हुई मुद्रास्फीति के साथ उसका मेल नहीं बैठाया गया है।
नये सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2013 से 2019 के बीच किसान परिवार की औसत नॉमिनल (संज्ञात्मक) आमदनी में 59 प्रतिशत की बढ़त हुई है लेकिन इस आंकड़े का मेल आप मुद्रास्फीति (ग्रामीण इलाके के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक जून 2019, आधार वर्ष 2012) से बैठायें तो आमदनी में बढ़त महज 22 प्रतिशत की ठहरती है। और ध्यान रहे, जैसा कि ऊपर बताया गया है, यहां हम किसान-परिवार की आमदनी का अर्थ सभी स्रोतों से प्राप्त आमदनी का ले रहे हैं।
अगर सिर्फ फसल को उपजाने से हुई आमदनी को केंद्र में रखें तो नजर आएगा कि विगत छह सालों में उसमें बढ़त नहीं हुई बल्कि कमी आयी है।
छह साल पहले किसान परिवार की फसल की उपज से प्रतिमाह आमदनी 3,081 रुपये की थी। यह रकम आधार-वर्ष यानी साल 2012 के वास्तविक मूल्यों के हिसाब से 2,770 रुपये की ठहरती है। अगर आधार वर्ष 2012 का ही लें तो किसान की फसल की उपज से हासिल वास्तविक आमदनी 2,645 रुपये की बैठती है। मतलब छह सालों में किसान की फसलों की उपज से हुई आमदनी में 5 प्रतिशत की कमी आयी है।
जाहिर है, फिर सर्वेक्षण का सही शीर्षक होना चाहिए कि : ‘किसानों की आमदनी दोगुनी करने के ऐतिहासिक मिशन के दौरान किसानों की आमदनी में ऐतिहासिक कमी।’
कृषि-आमदनी दोगुनी करने का प्रोजेक्ट : एक रिपोर्ट कार्ड
एनएसएस के सर्वेक्षण को छह साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करने के मशहूर प्रोजेक्ट के बारे में पहला रिपोर्ट कार्ड माना जा सकता है। इस प्रोजेक्ट की शुरुआत बड़े धूमधाम से साल 2016 की फरवरी में हुई थी। एनएसएस के सर्वे में जिन छह सालों (2013-2019) की अवधि ली गयी है वह किसानों की आमदनी दोगुनी करने की अवधि (2016-2022) से किंचित भिन्न है। लेकिन, यह मानकर चलना बेजा नहीं कि अवधि में भिन्नता होने के बावजूद नतीजे वही के वही रहने वाले हैं क्योंकि 2019 के बाद जो साल गुजरे हैं उनके ऊपर कोरोना महामारी और कोरोनाबंदी की छाया है।
इस सर्वे से पता चलता है कि किसान की वास्तविक आमदनी (यानी वह आमदनी जिसमें मौजूदा मुद्रास्फीति का ध्यान रखा गया हो) में इजाफा आगे के एक साल में 22 प्रतिशत से ज्यादा नहीं बढ़ने वाला। जैसा कि मैंने अपने पिछले कुछ लेखों में दर्ज किया है, यह आंकड़ा किसान की आमदनी में 100 प्रतिशत की वृद्धि की बात से कोसों दूर तो है ही, साथ ही, खेती-बाड़ी की बढ़त के पिछले 10 सालों में हुई आमदनी की बढ़ोत्तरी की तुलना में भी कम ठहरता है। किसानों की आमदनी दोगुना करने के प्रोजेक्ट की यह सचमुच ऐतिहासिक उपलब्धि कही जाएगी, है ना!
अगर हम मौजूदा सर्वेक्षण को मध्यावधि रिपोर्ट कार्ड भी मानकर चलें (क्योंकि इसमें किसानों की आमदनी दोगुनी करने के शुरुआती तीन सालों को लिया गया है) तो भी इस अवधि में किसानों की वास्तविक आमदनी में 35 प्रतिशत के इजाफे की जो बात आमदनी दोगुनी करने की बाबत बनी मोदी सरकार की समिति ने कही थी, वह सही साबित नहीं होती। किसान-परिवारों की कुल आमदनी में खेती-बाड़ी से होनेवाली आमदनी का हिस्सा कम होता जा रहा है, साथ ही आमदनी दोगुनी करने की बाबत बनी समिति ने बढ़त के जो अनुमान लगाये हैं, उसकी तुलना में बढ़ोत्तरी की रफ्तार बहुत कम है। तो, यों कहें कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने के प्रोजेक्ट के बारे में आए इस रिपोर्ट कार्ड में चहुंओर लिखा है : प्रोजेक्ट नाकाम रहा।
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम सर्वेक्षण के तथ्यों का इस्तेमाल किसानों की आमदनी दोगुनी करने को लेकर मोदी सरकार ने जो फर्जी दावे किये हैं, उनकी पोलपट्टी खोलने भर के लिए करें। इस सर्वेक्षण से उभरकर आनेवाले रुझान संकेत करते हैं कि आधुनिक ढंग की खेती ढांचागत संकट के दौर से गुजर रही है : जोतों का आकार छोटा होता जा रहा है, भूमिहीन मजदूरों की संख्या बढ़ रही है, कृषि-बीमा के उपाय नाकाम हो रहे हैं, न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था कारगर नहीं है और सरकार कृषि के बढ़ावे के जो उपाय कर रही है उसका किसानों से जुड़ाव नहीं है।
जिस हरित-क्रांति को लेकर इतने बधावन बजाये गये हैं उस हरित-क्रांति का मॉडल अब एकदम ही बंजर हो चला है। देश की कृषि-व्यवस्था को बड़े पैमाने पर अनुदान की जरूरत है और इस ढांचे में बड़े पैमाने के सरकारी निवेश की जरूरत है। साथ ही, इससे ज्यादा कुछ और करने की जरूरत है।
अगर हम अपनी नस्ल और फसल बचाने को लेकर गंभीर हैं तो फिर हमें खेती-बाड़ी के मौजूदा मॉडल के बारे में सोचना होगा। सोचना होगा कि : हम किसान से खेतिहर मजदूर में तब्दील होती जा रही एक बड़ी आबादी के इस रुख कैसे रोकें? कैसे छोटे किसानों के लिए खेती को फायदे का धंधा बनायें? तीन काले कृषि कानूनों की वापसी और उपज के लाभकर मूल्य के तात्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए चल रहे मौजूदा किसान-आंदोलन को, मांगों के मान लिये जाने के तुरंत बाद अपना ध्यान ऐसे सवालों की तरफ मोड़ना होगा। किसानों की दशा-दिशा के बारे में हुआ सर्वेक्षण हमें याद दिलाता है कि किसान-आंदोलन को अभी मीलों आगे जाना है।
(द प्रिंट से साभार)