— कुमार शुभमूर्ति —
(दूसरी किस्त)
अहिंसा यदि साधन है तो गांधीजी की यह बात साफ समझ लेनी होगी कि अहिंसा और कायरता साथ-साथ नहीं चल सकते।
अहिंसा की अनिवार्यता है बहादुरी। कायर होते हुए कोई हिंसा कर सकता है पर वह सत्याग्रह नहीं कर सकता। इसलिए 1917 में गांधी जब चंपारण गये तो सबसे पहले उन्होंने ऐसा कार्यक्रम चलाया कि लोगों के मन से डर भाग जाए। इलाका छोड़ देने के सरकारी आदेश का उन्होंने खुला उल्लंघन किया, जेल जाएंगे लेकिन जमानत नहीं कराएंगे, लोग अपनी तकलीफों का बयान दर्ज कराएँ और सरकारी मुलाजिमों की उपस्थिति में दर्ज कराएँ– ऐसे कार्यों से दबी, कुचली और भयभीत जनता तनकर खड़ी हो गयी। जनता की इसी निर्भयता के बल पर भारत में गांधी का पहला सत्याग्रह सफल हो गया।
अंग्रेजी राज के खिलाफ 1921 में शुरू किया गया असहयोग आंदोलन अपने पूरे उफान पर था तो 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले के चौरीचौरा कस्बे में आंदोलनकारियों द्वारा पुलिस थाने के साथ उसमें छिपे 22 सिपाहियों को जिंदा जला दिया गया। इन पुलिसवालों ने उन सत्याग्रहियों पर बेरहमी से अत्याचार किया था। बहुत सारे राष्ट्रीय नेताओं ने आंदोलन के स्थगन का विरोध किया। लेकिन काफी सोच-विचार कर गांधी ने पूरे असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया। इससे यह साफ प्रदर्शित होता है कि सत्याग्रह के लिए अहिंसा की अपरिहार्यता गांधीजी पूरी तरह से मानते थे। सत्याग्रहियों को व्यापक रूप से अहिंसा के लिए प्रशिक्षित किये बिना असहयोग आंदोलन को शुरू करना गांधी ने अपने लिए “हिमालयन ब्लंडर” माना। अगले करीब दस वर्षों तक गांधी देश भर में घूमे। धार्मिक सद्भावना और अछूतों के उद्धार का आंदोलन चलाते रहे। इन कार्यक्रमों से देशभर में अहिंसा के लिए एक बेहतर वातावरण तैयार हुआ।

इस तैयारी का प्रदर्शन सन 1930 की तारीख 12 मार्च को शुरू हुए दांडी मार्च से प्रारंभ नमक सत्याग्रह में हुआ। इस देशव्यापी सत्याग्रह में लोगों पर अनेक अत्याचार हुए। लात-घूंसे, लाठी मार कर सर फोड़ देना, यहां तक कि कई स्थानों पर गोली भी चली पर सत्याग्रहियों की ओर से कहीं कोई हिंसा नहीं हुई। 23 अप्रैल को खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा संगठित, खुदाई खिदमतगारों की टोली आगे बढ़ी तो उनपर ब्रिटिश अफसरों ने गोली चलाने का आदेश दिया। पर गढ़वाल रेजीमेंट के दस्ते ने इन निहत्थे बहादुरों पर गोली चलाने से साफ इनकार कर दिया। उन्हें मालूम था कि आदेश मानने से इनकार करने पर कोर्ट मार्शल होगा और कठोर सजा भुगतनी पड़ेगी। लेकिन उस वक्त खुदाई खिदमतगारों के साथ वे फौजी भी सत्याग्रही बन गये थे।
इस अहिंसक नमक आंदोलन ने कुछ अहिंसक किसान आंदोलनों को भी जन्म दिया। गांधी इरविन पैक्ट और 1932 के पूना पैक्ट के बाद आधिकारिक रूप से इस आंदोलन को गांधी ने अप्रैल 1934 में वापस ले लिया। नमक सत्याग्रह के माहौल में कुछ ऐसे आंदोलन भी हुए जिसमें हिंसा का सहारा लिया गया था। परन्तु वे नमक आंदोलन का हिस्सा थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

करीब दस वर्षों बाद गांधी ने फिर सत्याग्रह की घोषणा की। यह 1941 का व्यक्तिगत सत्याग्रह था। गांधी ने खुद सूची बनायी जिसमें पहला नाम आचार्य विनोबा भावे का था जिन्हें गांधी ऋषि तुल्य मानते थे। दूसरा नाम जवाहरलाल नेहरू का था और तीसरा रचनात्मक कार्यों को समर्पित कार्यकर्ता बाबू कामत का। यह सत्याग्रह व्यक्तिगत प्रकार का था, लेकिन इसका उद्देश्य आजादी की अंतिम लड़ाई लड़ने और व्यापक सत्याग्रह करने के लिए देश की जनता को तैयार कर देना था।
यह दूसरे विश्वयुद्ध का समय था। विभिन्न शक्तियां अपने-अपने दांव खेल रही थीं। भारत ने गांधी के नेतृत्व में 9 अगस्त 1942 को करेंगे या मरेंगे का नारा देते हुए अंग्रेजो “भारत छोड़ो” का आंदोलन शुरू किया। गांधी की रणनीति एक तरफ तो मित्र राष्ट्रों के साम्राज्यवाद का विरोध करने की थी तो दूसरी तरफ हिटलरशाही का भी विरोध करना था।
विश्व युद्ध में अंग्रेजों के खेमे, मित्र राष्ट्रों की जीत हो गयी और धुरी राष्ट्रों की हार। हिटलर और हिटलरशाही का अंत हो गया। साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि अब साम्राज्यवाद का अंत भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो जानेवाला है। कुछ ही वर्षों के भीतर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ढह गया। ऐसा होने में गांधी और गांधी के सत्याग्रह ने जो माहौल दुनिया भर में बनाया था उसका बड़ा हाथ रहा।

जैसे गांधी ने कहा था, सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं वैसे ही कहा जा सकता है कि गांधी और सत्याग्रह एक ही सिक्के के दो पहलू है। गांधी हमेशा सत्य के सूत्रों को पकड़कर प्रयोग किया करते थे। अपने साथ, मुसीबत में पड़ी जनता के साथ या फिर किसी भी सत्ता के साथ वे सत्य के प्रयोग करते और इन प्रयोगों से उनके सामने सत्याग्रह के नये नये रूप प्रकट होते थे। एक तरह से उनका सारा जीवन ही सत्याग्रह की खोज में लगा रहता था। उनके उपवास, उनकी प्रार्थना सभाएं, दंगे की आग में जलते नोआखाली में उनकी पैदल यात्रा, आज़ादी के दिन कलकत्ते में उनका उपवास या फिर अंत में सरकारी सुरक्षा से इनकार कर राम का नाम लेते हुए गोली खाकर शहीद हो जाना, यह सब हमारी आज की सभ्यता के सामने, उनका एक सत्याग्रह ही था।
आज के युग में सत्याग्रह ही अन्याय के प्रतिकार का रास्ता है। आज जितने भी आंदोलन अन्याय के विरुद्ध हो रहे हैं वे सब गांधी का नाम लें या नहीं, सत्याग्रह के तत्त्वों को ही अपना रहे हैं। हिंसा की बात आज कोई नहीं करता। वे सभी के सभी कहते हैं कि हमारा आंदोलन शांतिमय है, किसी दल से बँधा हुआ नहीं है, आमलोग और विचार ही हमारी ताकत हैं। ये सभी रणनीतियां सत्याग्रह से जुड़ी हुई हैं।
आज हमारा देश बहुसंख्यक वर्चस्ववादी लोकतंत्र से त्रस्त है। यह फासीवाद का ही एक रूप है। इसके खिलाफ वैचारिक संघर्ष जारी है। विभिन्न दल भी अपनी तरफ से प्रतिकार कर रहे हैं। इन सारी शक्तियों को मिलकर सत्याग्रह का रूप लेना पड़ेगा। तभी इस प्रकार की सत्ता और इस प्रकार की विचारधारा से छुटकारा मिल सकेगा। हां यह जरूर है कि परिस्थिति के अनुरूप आज सत्याग्रह का रूप क्या होगा इसे खोजना पड़ेगा।
(समाप्त)
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