यह स्वीकार करना चाहिए कि जेपी के सार्वजनिक जीवन में तीन विवादग्रस्त निर्णय रहे हैं – (1) 1954 में समाजवादी दल से अलग होकर निर्दलीय सर्वोदय अभियान के लिए जीवन-दान करना, (2) 1974 में चल रहे छात्र-युवा आन्दोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध विद्यार्थी परिषद और जनसंघ की सक्रियता के बावजूद ‘सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन’ का आवाहन (पटना : 5 जून,’74), और (3) सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के दौरान राजनीतिक दलों से निकटता बढ़ाना और चुनाव की चुनौती स्वीकार करना (पटना रैली : 18 नवम्बर’ 74)। लेकिन इनमें से किसी भी निर्णय को उनके निजी स्वार्थ, अहंकार या द्वेष से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है।
पहले निर्णय अर्थात समाजवादी आन्दोलन से भूदान आन्दोलन की ओर मुड़ने के बारे में जेपी से लेकर उनके सभी जीवनीकारों ने बहुत कुछ सामने रखा है। इसलिए कुछ नया बताने के लिए बाकी नहीं है।
दूसरे निर्णय अर्थात विद्यार्थी परिषद और जनसंघ की सक्रिय हिस्सेदारी के बावजूद बिहार आन्दोलन को सम्पूर्ण क्रांति का वाहन बनाने के प्रयास के प्रसंग को समर्थकों द्वारा जेपी के आशावाद और आदर्शवाद से जोड़ा गया है। लेकिन विरोधी और आलोचक इसे उनकी हताशा और नादानी से पैदा मानते हैं। इस प्रकार पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच बहस जारी है।
तीसरे निर्णय अर्थात बिहार विधानसभा के चुनाव में अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने की चुनौती को स्वीकार करने के प्रसंग को समझने के लिए कम से कम नवम्बर, ’74 की घटनाओं को याद करने की जरूरत है– 4 नवम्बर को पटना प्रदर्शन में जेपी और अन्य शांतिपूर्ण कार्यकर्ताओं के साथ क्या हुआ? 11 नवम्बर को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और 16 नवम्बर को कांग्रेस पार्टी ने‘जनतंत्र बचाओ’ के बैनर के साथ कैसा शक्ति प्रदर्शन किया? इसके प्रति-उत्तर में 18 नवम्बर की अभूतपूर्व रैली में जेपी ने चुनाव की चुनौती स्वीकार करने की घोषणा क्यों की? फिर दिल्ली में 20 नवम्बर को कांग्रेस के सांसदों के साथ जेपी की मुलाकात का क्या सन्देश था? इसके आगे 23-24 नवम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के माध्यम से सम्पन्न अखिल भारतीय विद्यार्थी प्रतिनिधि सम्मेलन का क्या निर्णय था? 25-26 नवम्बर को हुए गैर-कम्युनिस्ट राजनीतिक सम्मेलन में क्या हुआ?
इस चर्चा में यह तथ्य अनदेखा रह जाता है कि प्रजा समाजवादी पार्टी छोड़ने के बाद भी समाजवादियों के सभी संगठनों पर जेपी का गहरा असर रहा। समाजवादियों में जेपी के नेतृत्व में काम करने की संभावना की तलाश थी। जेपी ने भी समाजवादियों से स्नेह सम्बन्ध बनाये रखा था। जेपी ने स्वयं भुबनेश्वर की जनसभा में कहा कि उनकी सम्पूर्ण क्रांति और डॉ. राममनोहर लोहिया की सप्त-क्रांति एक ही हैं।
इसी प्रकार आरएसएस से जुड़े मंत्रियों-सांसदों की दुहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी की सरकार के असमय गिर जाने और जनता पार्टी के बिखराव के बाद भी जेपी और गांधीवादी समाजवाद की परछाईं बनी रही। यह उल्लेखनीय है कि इमरजेंसी खत्म होने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नागपुर स्थित राष्ट्रीय मुख्यालय में आयोजित विजयदशमी उत्सव में गांधीवादी साहित्यकार और चिंतक जैनेन्द्र कुमार को मुख्य अतिथि बनाया था। इस अवसर पर जैनेन्द्र कुमार ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका राष्ट्रीय है और ‘हिन्दू’ शब्द सुनकर कोई अपने को राष्ट्र-बाह्य मानता है तो राष्ट्रीय भूमिका के बारे में पुनर्विचार की जरूरत है (देखें : कुसुम देशपांडे (2010) विनोबा : अंतिम पर्व (परमधाम प्रकाशन, वर्धा; पृष्ठ 423-24)।
जनता पार्टी की टूट के बाद तीन संगठन उभरे– जनता पार्टी, जनता पार्टी (सेकुलर) और भारतीय जनता पार्टी। तीनों ने अपने को गांधी-जेपी की विरासत का दावेदार बताया। इसीलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा जनसंघ को पुनर्जीवित करने के दबाव के बावजूद गांधीवादी समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की गयी और नवगठित दल के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने एक नयी दिशा की जरूरत बतायी (इंडियन एक्सप्रेस; 2 अगस्त, ’79; स्टैट्समेन, 19 दिसम्बर, 1979; साधना (दीपावली विशेषांक) / हिन्दुस्तान टाइम्स, 25 अक्टूबर,’79)। 1980 में नव-गठित भारतीय जनता पार्टी ने 1984 का चुनाव घोषणापत्र ‘हिंदुत्व’ की बजाय‘गांधीवादी समाजवाद’ और ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ के आधार पर प्रस्तुत किया।
जेपी, जनसंघ और बीजेपी
यह सच महत्त्वपूर्ण है कि जनसंघ को जेपी से 1974 में बने संपर्क से पहले 1962 के आम चुनाव में 6.4 प्रतिशत वोट (14 सीट), 1967 में 9.4 प्रतिशत वोट (35 सीट) और 1971 में 7.3 प्रतिशत वोट (22 सीट) मिल चुका था। 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी जनसंघ के 24 उम्मीदवार विजयी हुए थे। वस्तुत: जेपी का अनुसरण करने से इनमें से 11 विधायकों को जनसंघ को निष्कासित ही करना पड़ा।
1984 में अटल बिहारी वाजपेयी के सुधारवादी नेतृत्व में ‘गांधीवादी समाजवाद’ का रास्ता अपनाने और आरएसएस की उदासीनता के बावजूद 7.7 प्रतिशत से जादा वोट मिले थे। यह रेखांकित करना प्रासंगिक होगा कि भाजपा के वोट में 1989 (11.3 प्रतिशत वोट/85 सीट), 1991 (20.1 प्रतिशत वोट/120 सीट), 1998 (25.5 प्रतिशत वोट/182 सीट) के चुनावों में एक दशक तक बड़ा उछाल आया था।
जबकि 1999 (23.7 प्रतिशत वोट/182 सीट), 2004 (22.1 प्रतिशत वोट/138 सीट), और 2009 (18.8 प्रतिशत वोट/ 116 सीट) के चुनावों में लगातार 10 बरस के दौरान 2004 में डेढ़ प्रतिशत और 2009 के चुनाव में तीन प्रतिशत गिरावट दर्ज की गयी थी। फिर 2014 के चुनाव में सबसे जादा प्रगति हुई – 31.3 प्रतिशत वोट (12.5 प्रतिशत बढ़ोतरी) और 282 सीट (166 सीटों की बढ़ोतरी)। इस तरक्की को जादातर जानकार कांग्रेस और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की मनमोहन सिंह की सरकार और अन्ना आन्दोलन के खाते में लिखते पाये जाते हैं। इसलिए इस सब में जेपी और सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की छाँह में आरएसएस द्वारा जनसंघ और विद्यार्थी परिषद के जरिये 1974-77 में कमाई राजनीतिक पूँजी को सबसे बड़ा कारण बताना सचमुच नासमझी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हैसियत का मुद्दा
26 जून ’75 को भारत में आपातकाल लागू होने के बाद 6 जुलाई ’75 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 25 अन्य संगठनों के साथ अवैध घोषित किया गया था। आरएसएस के सरसंघचालक बालासाहब देवरस समेत 1,336 प्रचारकों में से कम से कम 186 गिरफ्तार किये गये थे। जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के भी अनेकों सक्रिय कार्यकर्ता बंदी बनाये गये।
इसके बाद बालासाहब देवरस ने 15 जुलाई ’75 और 16 जुलाई ’76 के 12 महीनों के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को (22 अगस्त ’75, 10 नवम्बर ’75, और 16 जुलाई ’75) और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एस.बी. चव्हाण को (22 दिसम्बर ’75) कुल 4 बार पत्र लिखकर सरकार से पुनर्विचार की याचना की। किसी भी पत्र में जेपी और अन्य विपक्षी नेताओं की रिहाई और इमरजेंसी हटाने का कोई जिक्र नहीं था।
देवरस ने 10 नवम्बर ’75 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उनकी याचिका की आंशिक स्वीकृति पर अपनी प्रसन्नता जाहिर की थी। इंदिरा गांधी और आरएसएस के बीच मध्यस्थता के लिए दो पत्र (12 जनवरी ’76, कोई तिथि नहीं) आचार्य विनोबा भावे को भी लिखे गये। महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नेता और देवरस के वकील वी.एन. भिड़े ने भी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एस.बी. चह्वाण को तीन पत्र लिखे (15 जुलाई ’75, 24 जनवरी ’76, और 12 जुलाई ’76)। यह जानकारी भी उपलब्ध है कि इस प्रक्रिया में आरएसएस के वरिष्ठ नेता एकनाथ रानाडे ने भी योगदान किया। इमरजेंसी के विरुद्ध असाधारण साहस दिखानेवाले जनसंघ सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी के अनुसार माधवराव मुले, दत्तोपंत ठेंगडी, और मोरोपंत पिंगले समेत आरएसएस के 30 बड़े नेताओं ने भी नवम्बर,’76 में पत्र भेजकर एक समझौता प्रयास किया था। देवरस ने 1980 में यह भी दावा किया कि आरएसएस का कांग्रेस के साथ कोई मतभेद नहीं है और श्रीमती इंदिरा गांधी एक परिवर्तित व्यक्ति हैं (देखें : टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 13 फरवरी ’80 (ए.जी. नूरानी (2019, पृष्ठ 198)।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेपी के 5 मार्च,’75 के बयान के सन्दर्भ में लोकसभा में कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समाजसेवा करनेवाले संगठन का प्रमाणपत्र दिया जा चुका है। जिन लोगों ने आरएसएस के नेताओं के भाषणों को पढ़ा है, वे स्वयं निर्णय कर सकते हैं। वे पूरी तरह से राजनीतिक और जहरीले भाषण हैं। उनमें से कई तो भारत के कुछ एक समुदाय विशेष के विरुद्ध हैं। ऐसी ताकतों को सम्मान दिया गया है। उन्हें ऐसे क्षेत्रों में पकड़ बनाने का मौका दिया जा चुका है जहाँ उनकी पहले पहुँच नहीं थी। यह देश के भविष्य के लिए बहुत ही खतरनाक है (देखें : जे.पी. एक जीवनी – अजित भट्टाचार्य (2006) (बीकानेर, वाग्देवी प्रकाशन; पृष्ठ 190).
अब इस बात को परखना चाहिए कि क्या जेपी ने ही जनसंघ और विद्यार्थी परिषद को सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन का सहयोगी बनाकर आरएसएस आदि को प्रतिष्ठित किया? या (क) कुशासन, (ख) राजनीतिक भ्रष्टाचार, (ग) 1971 का बांग्लादेश सम्बन्धी भारत-पाकिस्तान युद्ध, (घ) संयुक्त मोर्चा की राजनीति के युग का आरम्भ, (च) विद्यार्थी असंतोष, (छ) व्यापक युवा बेरोजगारी आदि कई अन्य कारण थे?
अब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का प्रगति-विवरण देखा जाए। जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान 5 जून ’74 को किया था। लेकिन इससे पहले ही 1967 और ’74 के बीच पटना और दिल्ली से लेकर बनारस, इलाहाबाद, जयपुर, हैदराबाद, इंदौर आदि के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों में विद्यार्थी परिषद के सदस्य चुनावों में विजयी होने की क्षमता दिखा चुके थे। इनका समाजवादी, कम्युनिस्ट और कांग्रेस समर्थक प्रतिद्वंदियों से मुकाबला होता था। देशभर में 790 संस्थानों में 160,000 सदस्यता थी। यह नौ बरस बाद 1983 में बढ़कर 1100 शिक्षा संस्थाओं में 250,000 हुई। 1995 में इसकी देश के 167 विश्वविद्यालयों में से 121 में इकाइयाँ थीं। 2016 में इस संगठन के 31 लाख 70 हजार सदस्य थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विस्तार का क्या विवरण है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1975 में देशभर में 8,500 शाखाएं थीं। यह संख्या 1977 में 11,000और 1982 में 20,000 हो गयी। बीस साल बाद 2004 में 51,000 शाखाएं थीं। 2019 की रपट के अनुसार देशभर में दैनिक और साप्ताहिक शाखाओं की सम्मिलित संख्या 84,877 और सदस्य-संख्या 50 लाख से अधिक थी। संघ के कुल 22 विभाग भी सक्रिय हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्र सेविका समिति के 5,215 केंद्र और 875 शाखाएं हैं और भारतीय मजदूर संघ के 2002 में 62 लाख 15 हजार सदस्य हो चुके थे। क्या सचमुच 1977 की 11,000 शाखाओं और 2019 की 84,877 शाखाओं के बीच का चार दशक लम्बा रास्ता जेपी के कन्धों पर चढ़कर तय हुआ है?
अब आरएसएस की सम्मान-विवरणिका को देखा जाए। भूदान अभियान के आरंभिक चरण में आचार्य विनोबा भावे और सरसंघचालक गोलवलकर की 1951 में मेरठ में भेंट हुई और संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख इस अभियान में योगदान के लिए जुड़े। विनोबा जी के मन में आरएसएस के कार्यकर्ताओं के अनुशासन और ब्रह्मचारी रहकर समर्पित भाव से सेवाकार्य के प्रति मान्यता थी। समूचे भारत में पदयात्रा के दौरान विनोबा जी का कई स्थानों पर स्वयंसेवकों के बीच भाषण भी होता था। तब से सरसंघचालकों और जनसंघ के नायकों का आचार्य विनोबा से बराबर स्नेह-संपर्क था। विनोबा जी ने 2 जनवरी,’74 को प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी से कहा कि उनकी गोहत्या बंद करने की जनसंघ और आरएसएस की माँग के साथ सहानुभूति है। यही बात उन्होंने सर्व सेवा संघ के प्रतिनिधियों से 1 अप्रैल, ’74 की मुलाकात में दुहरायी थी।
सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के दौर में भी सरसंघचालक बालासाहब देवरस (11 मार्च, ’74 और 26 मार्च ’77), जनसंघ अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी (4 नवम्बर,’74) और महाराष्ट्र जनसंघ के अध्यक्ष और विधानसभा में विरोधी दल के नेता उत्तमराव पाटिल (5 अक्टूबर, ’76) की विनोबा जी से पवनार आश्रम में हुई बातचीत का विवरण प्रकाशित है। 11 मार्च, ’74 की मुलाकात में विनोबा जी ने देवरस को बताया कि “मैं आपको कहना चाहता हूँ कि मैं आपका यानी आरएसएस का ‘असभ्य-सभ्य’ (गैरसदस्य-सदस्य) हूँ। कारण क्या? एक तो आप राजनीति से अलग रहना चाहते हैं, और दूसरी बात, आप मुस्लिमों का विरोध नहीं करते हैं, बल्कि उनको मेनस्ट्रीम (मुख्य प्रवाह) में लाना चाहते हैं।” इस वार्ता के अंत में विनोबा जी ने स्वयं रची ‘कुरआन-सार’ की अरबी-नागरी प्रति देवरस के हाथ में देकर स्वयं गाना शुरू किया– बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम… (देखें : विनोबा : अंतिम पर्व – कुसुम देशपांडे (2010) (परमधाम प्रकाशन, पवनार; पृष्ठ 44-45; 60; 145-48; 345-46; 386-87)।
यह याद रखना चाहिए कि देवरस ने 12 जनवरी ’76 को आरएसएस के बारे में प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी से संवाद के लिए मदद माँगते हुए आचार्य विनोबा भावे को जेल से एक महत्त्वपूर्ण पत्र लिखा था। विनोबा जी ने भी कांग्रेस मंत्री वसंत साठे से कहा कि “…अभी भी कुछ लोग जेल में हैं। एसएम जोशी ने सुझाया था कि आरएसएस के लोगों को छोड़ दिया जाए। मुझे उनका सुझाव ठीक लगता है। चुनाव तो मुक्त वातावरण में होने चाहिए।’ साठे ने जवाब में क्या बताया? : उस सम्बन्ध में बातें चल रही हैं। कुछ लोग, जिनका बाबा से सम्बन्ध है, बातें कर रहे हैं… आपकी बात ऊपर पहुंचा दूंगा…।” यह वार्तालाप 14 फरवरी ’77 को पवनार आश्रम में ही हुआ था (देखें : कुसुम देशपांडे (पूर्वोक्त; पृष्ठ 381)।
अब भारत सरकार के स्तर पर देखा जाए। प्रधानमन्त्री नेहरू ने आरएसएस को भारत-चीन युद्ध के बाद 1963 की गणतन्त्र दिवस परेड में शामिल किया था। प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री ने सरसंघचालक गोलवलकर को 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद के सर्वदलीय सम्मेलन में निमंत्रित किया। 1967-’69 में कांग्रेस विद्रोहियों, समाजवादियों, जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से बनी गैरकांग्रेसी सरकारों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान में जनसंघ के विधायक मंत्री थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण के बाद गोलवलकर के साथ पत्र-व्यवहार सम्बन्ध बनाये रखा था (देखें : आरएसएस – ए.जी. नूरानी (2019) (नयी दिल्ली, लेफ्टवर्ड; पृष्ठ 486-88)।
आपातकाल की समाप्ति के बाद आरएसएस श्रीमती इंदिरा गांधी पर कोई मुकदमा चलाने के पक्ष में नहीं था। इसकी तरफ से ‘माफ़ करें और भूल जाने’ (फर्गिव एंड फारगेट) की पैरवी की गयी। इससे आगे जाकर 1984 में नानाजी देशमुख ने एक लेख लिखकर इंदिरा गांधी की प्रशंसा करते हुए उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी के समर्थन का आह्वान किया था (देखें : टेलीग्राफ, 19 नवम्बर, ’84)।
(जारी)
आनंद कुमार जी का जेपी,जनसंघ ,विद्यार्थी परिषद के बारे में लेख बहुत ही तथ्परक और संतुलित है । इन लेखों को मिलाकर एक पुस्तक या पुस्तिका छपनी चाहिए । – मंथन ,25.10.2021