— अशोक सेकसरिया —
अगर सच्चे अर्थों में किसी को क्रांतिकारी समाजवादी कहा जा सकता है तो दिनेश दासगुप्त के नाम का स्मरण आएगा ही। 16 वर्ष की उम्र में वे मास्टरदा सूर्य सेन के क्रांतिकारी दल से जुड़े तो अंत तक समाजवादी आंदोलन से। दिनेश दा की राजनीति आजादी के पहले देश को गुलामी से मुक्त कराने की थी और आजादी के बाद देश में समतावादी समाज स्थापना की। इस संघर्षशील राजनीति में उन्होंने गुलाम भारत में और आजाद भारत में बार-बार कारावास वरण किया।
दिनेश दासगुप्त का जन्म 5 नवंबर 1911 को हुआ। 16 वर्ष की उम्र में वे मास्टरदा सूर्य सेन की इंडियन रिपब्लिकन पार्टी में भर्ती हो गये और अप्रैल 1930 के चटगांव शस्त्रागार अभियान में सक्रिय रूप से भाग लिया। चटगांव शस्त्रागार अभियान के बाद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ धौलाघाट में गुरिल्ला युद्ध में वे ब्रिटिश सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये और उन्हें दस साल की जेल की सजा देकर 1932 में अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया गया। इस जेल में उन्होंने कई बार भूख हड़ताल की। 1938 में दिनेशदा और उनके साथी रिहा किये गये तो कुछ साथी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये पर दिनेशदा के मन में अंडमान जेल में रहते सरकार द्वारा अंडमान बंदियों के बीच मार्क्सवादी साहित्य के वितरण और अपने कुछ साथियों के देश की आजादी की लड़ाई को प्राथमिकता न देने के कारण कम्युनिस्टों के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया और वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल न होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये और चटगांव जिले में कांग्रेस सोशलिस्ट पर्टी का संगठन बनाने में जुट गये। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस से लौटते हुए उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और 1946 में कांग्रेस के सारे नेताओं की रिहाई के बाद उन्हें रिहा किया गया। छह साल के कारावास में उन्हें हिजली (मेदनीपुर) जेल, भूटान के निकट बक्सा किले और ढाका जेल में रखा गया। इस कारावास में भी उन्होंने भूख हडतालें कीं।
आजादी के बाद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की पश्चिम बंगाल शाखा और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड के सदस्य और सेक्रेटरी व अध्यक्ष के पद पर बैठाये गये। किसी पद पर बैठना दिनेशदा ने कभी नहीं चाहा। पदों के लिए झगड़ा होने पर उन्हें पद पर बैठना पड़ता था। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो कुछ साथियों ने उनसे आग्रह किया कि वे ओड़िशा या बिहार का राज्यपाल बनें तो उन्होंने इन साथियों को झिड़क कर कहा कि क्या तुम लोग मुझे सफेद हाथी बनाना चाहते हो। दिनेश दा अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो एकसाथ नेता और कार्यकर्ता दोनों थे।
जब डॉ. रामममनोहर लोहिया ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की तो दिनेश दा उसमें चले आये। सोशलिस्ट पार्टी के सारे आंदोलनात्मक कार्यों में वे मनप्राण से जुटे रहे। इन आंदोलनों में उन्होंने बार-बार कारावास वरण किया। अंग्रेजी हटाओ आंदोलन, दाम बांधो आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन, मेहतर आंदोलन, आदिवासी आंदोलन आदि में वे लगातार सक्रिय रहे। बांग्ला में लोहिया साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने राममनोहर लोहिया साहित्य प्रकाशन की स्थापना की।
1971 में बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में वे लगातार सक्रिय रहे। उन्होंने मुक्ति युद्ध के दौरान कई बार बांग्लादेश की गुप्त यात्राएं कीं। शेख मुजीबुर रहमान तक ने बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में उनके अवदान की चर्चा की थी। एमरजेन्सी में जेल में रहे, रिहा होने के बाद जनता पार्टी में शामिल हुए। जनता पार्टी के भंग होने के बाद वे ज्यादातर आदिवासियों के बीच काम करते रहे।
2004 तक दिनेश दा पूरी तरह सक्रिय रहे। 15 अगस्त 2003 को स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने जो स्वागत समारोह आयोजित किया था, उस समारोह में गये थे। 2004 से दिनेश दा बीमार रहने लगे और दो बार तो मरते-मरते बचे। आजीवन अविवाहित दिनेश दा की दस वर्षों तक अनाथचन्द्र सरकार, उनकी पत्नी माया सरकार, दोनों बेटियां चुमकी और पिंकी ने जो सेवा की वह अविस्मरणीय है। सारे समाजवादी, अनाथचन्द्र सरकार परिवार के प्रति कृतज्ञ हैं।
5 नवम्बर 1911 को जनमे दिनेश दा 23 अगस्त 2006 को चले गए लेकिन आजाद भारत में समाजवादी समाज का उनका सपना अभी भी बना हुआ है।
(प्रस्तुति – गोपाल राठी : यह हमारा सौभाग्य है कि दिनेश दा से मिलने और उनसे चर्चा का सौभाग्य मिलाl केसला के आदिवासी आंदोलन के सिलसिले में होशंगाबाद जेल में बंद साथी सुनील राजनारायण से मिलने वे होशंगाबाद आये थे l कांग्रेस से अलग होकर समाजवादियों का पहला सम्मेलन 1952 में पचमढ़ी में हुआ था l उस दौरान का वह सम्मेलन स्थल देखने और उस समय के जीवित समाजवादी साथियों से मिलने वे पचमढ़ी भी गए थे l लौटते वक्त पिपरिया स्टेशन पर हमने उनके चरण स्पर्श की कोशिश की तो उन्होंने हमें रोक दिया था और हाथ मिलाते हुए गले लगाया था l इतने बड़े क्रांतिकारी समाजवादी नेता से गले मिलकर निश्चय ही हम अभिभूत हो गए थे l वो ऊर्जा हम अपने अंदर आज भी महसूस करते है l दिनेश दा को शत शत नमनl क्रांतिकारी अभिवादन।)
समता मार्ग का आभार !
यों दिनेश दासगुप्त जी पर गंगा प्रसाद जी की एक पुस्तक सूत्रधार प्रकाशन , कांचरापाड़ा से आई है .. और दिनेश दा भी अपने बारे में बताने से संकोच करते रहे – तब भी खोजी पत्रकारों को लगकर उनके जिए को , उनके किए को , उनके कहे को और जो बातें उनके मन में रह गयीं – उन्हें और लिखने की कोशिश करनी चाहिए .. ऐसे लोग ऊर्जा के स्रोत होते हैं .