भारत को ब्रिटिश राज से लेकर इंदिरा गांधी के इमरजेंसी राज से मुक्ति में अग्रणी भूमिका के लिए सतत प्रेरणा-स्रोत रहे जयप्रकाश नारायण जीवन भर सवालों की बौछार के बीच जिये। उनका मृदुल व्यक्तित्व था इसलिए कुछ प्रश्नों ने उन्हें जरूर विचलित किया था। ऐसे मौकों पर उनका उत्तर अप्रत्याशित रूप से चौंकानेवाला होता था। वह अपने प्रतिपक्षी से सदैव संवाद के लिए प्रस्तुत रहते थे। यह प्रसिद्ध है कि आत्मीय आलोचकों को तो जेपी प्राय: कठोर शब्दों की बजाय हृदय विदारक आँसुओं से भी अपना उत्तर देते थे। उनमें किसी सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ जैसी चालाकी नहीं थी। एक युद्ध पिपासु सेनापति जैसी कठोरता नहीं थी। उनमें लोक-संग्रह की लगन थी और प्रतिपक्षी से भी सहयोग पाने की प्रवृत्ति थी।
‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ के दौरान जब उनकी देशभक्ति पर सत्ताधीशों ने प्रश्नचिह्न लगाने का दुस्साहस किया तो उन्होंने प्रति-उत्तर में कहा कि ‘यदि जयप्रकाश की देशभक्ति पर संदेह किया गया तो शायद आपको कोई भी देशभक्त नहीं मिलेगा।’
इसी प्रकार जब सत्ताधीशों ने उनपर हमला करते हुए कह दिया कि ‘धनपतियों से पैसा लेनेवालों को भ्रष्टाचार पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है,’ (इंदिरा गाँधी, भुबनेश्वर : 1 अप्रैल, 1973) इसी आशय का आरोप भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी लगाया था, तो इसके उत्तर में जेपी ने न सिर्फ अपनी निजी जिंदगी के आर्थिक पक्ष को सार्वजनिक किया बल्कि यह भी लिखा कि ‘मुझे अवश्य कहना चाहिए कि वे अपने को जिस निचले स्तर पर गिरा रही हैं मैं उतना नहीं गिर सकता। मैंने अपने लेख ‘निंदकों के प्रति’ (एवरीमैन्स : 13 अक्तूबर, 1973) में स्पष्ट रूप से लिखा है कि किस तरह मैंने अपने को वर्षों से सँभाला है। एक पूर्णकालिक सार्वजनिक कार्यकर्ता, जिसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत न हो, बिना साधन-संपन्न मित्रों के कैसे रह सकता है? मुझे इसके अलावा इस विषय में कुछ और नहीं कहना है। यदि इंदिरा जी के पैमाने को सर्वत्र लागू किया जाता तो गांधीजी सबसे भ्रष्ट व्यक्ति पाये जाते क्योंकि उनके धनाढ्य प्रशंसक उनका सारा खर्च उठाते थे।’ ( जेपी एक जीवनी – अजित भट्टाचार्य (2006) (बीकानेर, वाग्देवी प्रकाशन; पृष्ठ 166)
लेकिन अधिकांश प्रश्नों और प्रश्नकर्ताओं को वह एक प्रतिबद्ध शोधकर्ता की तरह आग्रह के साथ संवाद में शामिल किया करते थे। इनमें से कुछ प्रश्नों की चर्चा उन्होंने ‘समाजवाद से सर्वोदय की ओर’ (1957), ‘भारतीय राज्य-व्यवस्था का पुनर्निर्माण’ (1960), ‘आमने-सामने’ (1972) और ‘जेल डायरी’ (1976) में की है। जेपी के शोध, निष्कर्षों और कर्मधारा से जुड़े मुख्य सवालों का विवरण-विश्लेषण ‘मेरी विचार यात्रा’ (जयप्रकाश नारायण) में है। ‘जेपी की विरासत’ (आचार्य राममूर्ति), ‘इज जेपी द आन्सर?’ (मीनू मसानी), ‘कनफ्लिक्ट इन जेपी’ज पोलिटिक्स’ (भोला चटर्जी), ‘नॉन-वायलेंट रिवोल्यूशन इन इण्डिया’ (जेफ्री आस्तर्गार्ड), ‘इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी ऐंड इंडियन डेमोक्रेसी’ (पी.एन. धर), ‘इन द नेम ऑफ डेमोक्रेसी’ (बिपन चन्द्र), ‘विनोबा : अंतिम पर्व’ (कुसुम देशपांडे), ‘शोध की मंजिलें’ (कुमार प्रशांत), ‘द आर.एस.एस.’ (ए.जी. नूरानी), जनता पार्टी एक्सपेरिमेंट (मधु लिमये), ‘स्टेट ऐंड सोसायटी इन इण्डिया’ (आनंद कुमार) और ‘द ड्रीम ऑफ रेवोलुशन’ (बिमल प्रसाद व् सुजाता प्रसाद) समेत कई किताबों में आ चुका है।
उनको सबसे ज्यादा सवाल खुद से मिलते रहे। क्योंकि उन्होंने अपनी हर सफलता और विफलता का सार्वजनिक आत्म-विश्लेषण किया। दूसरों से पहले खुद पूछते थे कि ‘हमसे कहाँ भूल हुई?’ जेपी ने इमरजेंसी राज के कारावास के दौरान एक लम्बी कविता में लिखा (9 सितम्बर, ’75) था कि :
…जीवन विफलताओ से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आयीं निकट,
दूर ठेला है निज मार्ग से!
तो क्या वह मूर्खता थी?
नहीं!
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी…
(देखें : प्रिजन डायरी – जयप्रकाश नारायण (1976) (बम्बई, पापुलर प्रकाशन, पृष्ठ 132)
इस कविता के दो दशक पहले 1957 में समाजवाद से सर्वोदय की ओर आगे बढ़ने के मौके पर जारी एक लम्बे बयान में जेपी ने लिखा था कि ‘मेरे पिछले जीवन का रास्ता किसी बाहरी व्यक्ति को टेढ़ा-मेढ़ा, अन्धकार में टटोलने जैसा और मुश्किलों वाला लग सकता है। इसमें कई किस्म की तलाश जरूर थी लेकिन वह किसी अंधे की तलाश नहीं थी। रोशनी के प्रकाशस्तंभ शुरू से थे और वही इस कठिन मार्ग में मेरा मार्गदर्शन करते रहे हैं। इस टेढ़ी-मेढ़ी यात्रा के लिए मेरे मन में कोई अफसोस नहीं है। क्योंकि इसी ने मुझे उस रास्ते पर न चलने का निर्णय मजबूती से करने का बल दिया, जिस पर मैं नहीं चला।’
जेपी ने क्या भूल की?
जयप्रकाश नारायण के एक बड़े देश के बड़े नेता थे और हर नायक की तरह उनसे भी कई सही और कुछ गलत अनुमान हुए थे। इसलिए सही और गलत निर्णय भी हुए। इस बारे में उनके आलोचकों को अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह जेपी खुद स्वीकार कर चुके हैं।
सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन और आपातकाल से जुड़े प्रश्नों के बारे में जेपी ने जेल डायरी में लिखा है कि उनका यह मानना बहुत बड़ी भूल थी कि प्रधानमन्त्री के नाते इंदिरा जी एक शांतिपूर्ण जनतांत्रिक आंदोलन को दबाने के लिए सभी सामान्य और असामान्य उपाय जरूर करेंगी लेकिन कभी भी जनतंत्र को ही समाप्त करके तानाशाही कायम नहीं करेंगी। जेपी के लिए इससे भी अधिक विस्मयकारी यह रहा कि गौरवशाली लोकतान्त्रिक परम्पराओं वाली उनकी पार्टी और वरिष्ठ सहकर्मियों ने यह सब होने दिया। (पूर्वोक्त; पृष्ठ 1-2)
इसी ‘भूल’ को एक अन्य दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते हुए उन्होंने रेखांकित किया कि कांग्रेस में विद्यमान कम्युनिस्ट और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी द्वारा अपनायी गयी राह के आखीर तक समर्थक बने रहेंगे, वैसे भी उनकी लोकतंत्र के बारे में कोई निष्ठा नहीं रही है। रूस भी इसमें भरपूर मदद कर रहा है क्योंकि श्रीमती गांधी की गलतियों के अनुपात में ही रूसी प्रभाव बढ़ता जाएगा। अंतत: श्रीमती गांधी की उपयोगिता चुक जाने पर रूस उनको कांग्रेस में पैठ बना चुके इन तत्त्वों और सीपीआई के माध्यम से इतिहास के कूड़ेदान में डालकर अपने किसी व्यक्ति का अभिषेक करा सकता है। यह भी संभव है कि वह समझ-बूझकर इस खेल में शामिल है और कुर्सी से हटाया जाना न पसंद करें क्योंकि उनको सत्ता से प्रेम है। लेकिन निकट भविष्य में ही वह अपने को असहाय पाएंगी। क्या भारत भी पाकिस्तान या बांग्लादेश बन जाएगा? यह अविश्वसनीय लगता है। इसीलिए मुझे भरोसा है कि भारतीय लोकतंत्र जरूर पुनर्जीवित होगा। (देखें : प्रिजन डायरी – जयप्रकाश नारायण (1977, पृष्ठ 3-4)
फिर भी जेपी ने जेल से अपनी गिरफ्तारी के चार सप्ताह के बाद ही प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर मेल-मिलाप का प्रस्ताव रखा। बशर्ते कि सही कदम उठाये जाएँ – 20-सूत्री कार्यक्रम, उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण, चुनाव-सुधार, और विपक्ष को विशवास में लिया जाए। इसका कोई जवाब नहीं मिला! अब यह भूल नहीं तो क्या थी? लेकिन जेपी की ही नहीं, इंदिरा गांधी की भी।
एक भविष्यद्रष्टा की तरह यह सब जेपी ने 22 जुलाई, ’75 को चंडीगढ़ में राजबंदी के रूप में लिखा था। चारों तरफ इमरजेंसी के आतंक का बोलबाला था और ‘राग-दरबारी’ बज रहा था। लेकिन कुल बीस महीनों के अंदर उनकी भविष्यवाणी अक्षरश: सच साबित हुई। 23 मार्च, ’77 को जनादेश आया कि देश तानाशाही के खिलाफ है और श्रीमती गांधी ने अपनी सरकार का त्यागपत्र राष्ट्रपति जत्ती को सौंप दिया। 26 जून, ’75 को लागू इमरजेंसी के कारण मरणासन्न हो गये लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने में जयप्रकाश नारायण की भूमिका स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गयी। लेकिन उन्हें इससे संतोष नहीं था। बुनियादी बदलावों के लिए बेचैनी कम नहीं हुई। इसे भूल ही तो कहा जाएगा!
जेपी ने 13 अप्रैल,’77 को देश के नाम संबोधन में इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए गुजरात और बिहार से शुरू देशभर में फैली विद्यार्थी आन्दोलन और जन आन्दोलन की लहर को ही पूरा श्रेय दिया। इसके साथ ही (क) चुनाव सुधार, (ख) प्रशासन सुधार और (ग) शिक्षा सुधार के लिए बिना विलम्ब किये काम शुरू करने का अनुरोध करते हुए 6 मार्च,’75 के ‘जनता चार्टर’ को नयी सरकार का मार्गदर्शक बनाने पर बल दिया। लेकिन आत्महत्या के लिए अभिशप्त जनता पार्टी सरकार के कान पर जूँ नहीं रेंगी! यह निश्चय ही एक आशावादी भूल थी।
सम्पूर्ण क्रान्ति के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के लिए जातिगत विषमताओं के कलंक को दूर करने और विवाह, जन्म, तथा मृत्यु से जुड़े कालबाह्य हो चुके रीति-रिवाजों को स्पष्टता के साथ चिह्नित किया। अंतिम बात के रूप में देश-निर्माण के लिए अनिवार्य हो चुके सामाजिक-आर्थिक सुधारों को कागज से जमीन पर उतारने की खातिर युवा-शक्ति को आगे बढ़ने के लिए पुकारा। इसे भी एक आदर्शवादी भूल की सूची में शामिल किया जा सकता है।
अब अंतिम बात को रखने की जरूरत है। सम्पूर्ण क्रांति के प्रकाश-पथ और इमरजेंसी की अँधेरी गुफा से गुजरने के बाद देश के लोगों ने 1977 में जनादेश देकर तानाशाहों को हटाकर लोकतंत्र को पुन:स्थापित करने के लिए जुटी एक नयी जमात के हाथों में देश की बागडोर सौंपी। इस अवसर पर जेपी ने बड़े संकोच के साथ राष्ट्र के नाम एक सन्देश जारी किया। इसकी आखिरी पंक्तियों में इस देश की दशा सुधारने के लिए प्रतिबद्ध सभी विचारधाराओं, संगठनों और निर्दलीय स्त्री-पुरुषों से लेकर आनेवाली पीढ़ियों तक के लिए स्पष्ट पथ-प्रदर्शन था :
मेरे युवा मित्रो आगे बढ़ो!
सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है।
भावी इतिहास हमारा है।
विभिन्न विचारधाराओं, संगठनों और अभियानों से जुड़े हम सब के पिछले चार दशकों के आचरण और प्रयत्नों को देखते हुए नयी पीढ़ी के युवक-युवती इस नतीजे पर पहुँचने से नहीं रोके जा सकते कि जेपी की हमसे सम्पूर्ण क्रांति के लिए आगे बढ़ने की आशा सचमुच हिमालय से बड़ी भूल थी! लेकिन इसके बारे में जेपी से जवाब की माँग नहीं की जानी चाहिए। जेपी ने तो गांधी की तरह ही असम्भव को संभव बनाने के लिए पूरी जिंदगी खपा दी! हम ही उनके अनुसरण में असफल रहे।
(देखें : ‘मैसेज टु द नेशन’, 13 अप्रैल,’77; प्रिजन डायरी – जयप्रकाश नारायण (1977; पृष्ठ 125-8)