भारतीय कृषि के खिलाफ साम्राज्यवादी साजिश को शिकस्त

0


— रवीन्द्र गोयल —

भारतीय किसानों ने मोदी सरकार को तीनों कृषि कानून वापिस लेने को बाध्य कर दिया। किसानों की यह जीत न केवल दुनिया के पैमाने पर अनोखी जीत है बल्कि तय है कि  यह जीत दुनिया भर में पिछले तीस- चालीस सालों से हावी दिवालिया नवउदारवादी अर्थशास्त्र और टपक बूँद सिद्धांत (ट्रिकल डाउन थियरी) के कफन में एक महत्त्वपूर्ण कील साबित होगा।

बेशक नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध दुनिया, खासकर लैटिन अमरीका, के लोग बहादुराना संघर्ष लड़े हैं लेकिन वो ज्यादातर प्रयास चुनावों में साम्राज्यवादपरस्त सरकारों को  हराने की दिशा में रहे हैं। ज्यादातर आंदोलनों ने सरकारों को बदलने में अपनी ताकत लगायी है। इन संघर्षों में जनता ने आमतौर पर लंबे समय तक हड़ताल या घेराव जैसी प्रत्यक्ष कार्रवाई के माध्यम से अपनी माँगों को नहीं मनवाया। इससे अलग भारतीय किसानों ने प्रत्यक्ष कार्रवाई के जरिये नव-उदारवादी नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध सरकार को पीछे हटने को मजबूर किया।

यह जीत नयी पहलकदमियाँ खोलेगी, नये आन्दोलनों को जन्म देगी और दूरगामी तौर पर दुनिया के पैमाने पर नवउदारवादी नीतियों की जकड़ ढीला करने का कारक बनेगी। इन्हीं अर्थों में किसान संघर्ष और उसकी जीत का ऐतिहासिक महत्त्व भी है।

इस आन्दोलन के दौरान भारतीय कृषि पर आधिपत्य स्थापित करने के अम्बानी-अडानी जैसे एकाधिकारी कॉरपोरेट पूँजीपतियों के व्यापक मंसूबों, उनकी हितैषी मोदी सरकार के जनविरोधी चरित्र और कलमघिस्सू बुद्धिजीवी तथा बिके हुए गोदी मीडिया का पर्दाफाश खूब जमकर हुआ और भक्तों को छोड़ दिया जाए तो आम जन की चेतना में भी गुणात्मक विकास हुआ। इन सबसे इतर एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है, वो पहलू है किसानों की जीत का अमरीकी नेतृत्व में साम्राज्यवादी दुनिया के वैश्विक वर्चस्व की योजनाओं को एक बहुत ही मौलिक अर्थ में झटका। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पश्चिमी मीडिया मोदी सरकार के कानून वापिस लेने के निर्णय से नाखुश है और आलोचना कर रहा है।

साम्राज्यवादी देश दुनिया के सभी खाद्य पदार्थ, कच्चे माल के स्रोत, पेट्रोलियम के स्रोत आदि की तरह तीसरी दुनिया के देशों की कृषि लायक भूमि पर सम्पूर्ण वर्चस्व चाहते हैं ताकि वो अपनी जरूरतों के हिसाब से उस भूमि का इस्तेमाल कर सकें और अपने शोषण तंत्र को कायम रख सकें, उसका विस्तार कर सकें। इसमें यह ध्यान देने योग्य है कि तीसरी दुनिया के देशों की ज़मीनी विविधता और मौसम सम्बन्धी खासियत वहाँ की भूमि को कई किस्म की फसल पैदा करने के उपयुक्त बनाती है। ऐसा साम्राज्यवादी देशों में संभव नहीं है। 

उपनिवेशवाद का जमाना इस हिसाब से साम्राज्यवादियों के लिए सबसे ज्यादा मुफीद था। उन्होंने उपनिवेशों की जमीन पर कब्जा करके उसका मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने के लिए नीतियाँ बनायीं। नील, अफीम और कपास उन जमीनों पर जबरदस्ती उगवाया गया जिस पर पहले खाद्यान्न पैदा होता था। किसानों का बेतहाशा शोषण उस समय का यथार्थ था। दीनबंधु मित्रा द्वारा उन्नीसवीं सदी के बंगाली नाटक ‘नील दर्पण’ में नील उत्पादकों की दुर्दशा इतने  मार्मिक तरीके से बयान की गयी थी कि नाटक देखते समय समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने नील की खेती करानेवाले व्यापारी की भूमिका निभा रहे अभिनेता पर गुस्से में अपनी सैंडल फेंक दी थी!

लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद चली उपनिवेशवाद  विरोधी लहर में ज्यादातर उपनिवेश खत्म हो गये। तीसरी दुनिया के देशों में राजनीतिक आजादी के साथ जो सत्ताएँ शासन  में आयीं वो ज्यादातर पूँजीवादी होते हुए भी अपनी राजनीतिक  स्वंत्रता के प्रति सचेत थीं और उन्होंने नग्न पूँजीवाद को आवारा होने से रोका, उसपर लगाम लगायी। इसका एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था कृषि में, खासकर खाद्यान्न के उत्पादन के लिए, एक हद तक कीमत का समर्थन ताकि बहुसंख्यक किसानों के दरिद्रीकरण को रोक कर कृषि क्षेत्र की जमीन और उसपर क्या उत्पादन किया जाएगा, इससे संबंधित सवालों  को बाजार यानी पूँजीवादी, साम्राज्यवादी प्रभुत्व में जाने से रोका जा सके। साम्राज्यवाद और उसके देशी भाई बंदों को ये नीति पसंद नहीं थी। वो तो चाहते थे कृषि भूमि और उसपर क्या उगाया जाएगा के निर्णय करने की ताकत, लेकिन सरकारी नीतियों के चलते उनकी पसंदीदा नीति को लागू करने का मंसूबा नाकामयाब रहा।

1990 में नवउदारवादी चिंतन के प्रभावी होने के बाद साम्राज्यवाद और उसके देशी भाई बंदों को ऐसा शासन  मिला जो उनकी माँग को पूरा कर सकता था। साम्राज्यवाद चाहता था मूल्य-समर्थन की प्रणाली का पूर्ण उन्मूलन, और इसके अतिरिक्त, किसानों के फसल उगाने के निर्णयों को प्रभावित करने के लिए बाजार द्वारा संचालित एक वैकल्पिक तंत्र। मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों कृषि कानून अपने अति राष्ट्रवादी शब्दाडम्बर के बावजूद यही काम करते। इन कानूनों के जरिये खेती का निगमीकरण होता जिसके ऊपर साम्राज्यवादियों और उसके देशी दोस्तों का वर्चस्व स्थापित होता और वो किसानों से अपनी बाजार की सुविधा के हिसाब से खेती करवाते।

यहाँ बता दें कि इस मानव द्रोही सरकार/देसी पूंजीपति/साम्राज्यवादी गिरोह का पहला हमला नब्बे के दशक में भूमि अधिग्रहण के सवाल पर हुआ था। आदिवासियों और अन्य आबादी के तीव्र विरोध के चलते तत्कालीन कांग्रेस सरकार को अपना भूमि कब्जाओ अभियान रोकना पड़ा। 2013 में 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून में कुछ सुधार करके उसे थोड़ा सख्त बनाया गया। मोदी सरकार ने 2014 में सरकार में आते ही उस कानून पर हमला किया लेकिन जनता खासकर किसानों के तीव्र विरोध के चलते केंद्र सरकार को पीछे हटना पड़ा।

और अब किसानों ने अपने आन्दोलन के जरिये से एक महत्त्वपूर्ण लड़ाई जीती है और सरकार को बाध्य किया है कि वो अपनी नापाक गतिविधियों के जरिये इस देश की खेती को साम्राज्यवाद और पूँजीपतियों को न सौंपे। बेशक  एमएसपी की कानूनी गारंटी बिना ये लड़ाई अधूरी है और जब तक ये पूँजीपरस्त निज़ाम नहीं नेस्तनाबूद किया जाएगा तब तक खेती और किसान को देशी-विदेशी पूँजी का गुलाम बनाने का अंदेशा बना रहेगा। फिर भी तीन काले कानूनों के खिलाफ किसानों की जीत एक बहुत महत्त्वपूर्ण जीत है।

Leave a Comment