— नन्दकिशोर आचार्य —
संस्कृति या परंपरा के नाम पर मानवाधिकारों और कानून-सम्मत प्रक्रियाओं पर आघात करने वाली घटनाएँ आये दिन देखने को मिलती रहती हैं- फिर चाहे उन का संबंध किसी प्रेमी युगल के अन्तरजातीय विवाह से हो, किसी दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढ़ कर बारात निकालने से हो अथवा सती जैसी गैर-कानूनी प्रथाओं से। संविधान-सम्मत मौलिक अधिकारों अथवा कानून के संरक्षण के प्रयोजन से निर्मित संस्थाएँ ऐसी घटनाओं को लेकर क्या कार्रवाई करती हैं और वह कार्रवाई कितनी प्रभावी होती है तथा क्या वह भविष्य में ऐसी घटनाओं और उन के पीछे काम कर रही मनोवृत्ति को कैसे तथा किस सीमा तक नियंत्रित कर पाती है, इन सब सवालों पर तो विचार की जरूरत है ही, लेकिन उस सामाजिक मनोवृत्ति को समझने और उस का उचित प्रत्युत्तर दिये जाने की जरूरत शायद और भी ज्यादा है क्यों कि सामाजिक मनोवृत्तियों को केवल कानून के भरोसे नहीं बदला जा सकता।
कानून की भूमिका केवल एक अतिरिक्त दबाव बनाने की ही हो सकती है अथवा अधिक-से-अधिक दण्ड देने की। लेकिन केवल दण्ड भी सामाजिक मनोवृत्तियों को बदलने का सामर्थ्य नहीं रखता। यदि ऐसा होता तो अधिकांश सामाजिक अपराध मिट चुके होते। यह आश्चर्यजनक है कि ऐसी मनोवृत्तियों से संचालित घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों को कानून की दृष्टि से अपराधी घोषित कर दिये जाने के बावजूद संबंधित समाजों में उन की प्रतिष्ठा न केवल बनी रहती है, बल्कि उन्हें संस्कृति या जातीय परंपरा अथवा गौरव के रक्षक होने की हैसियत प्राप्त हो जाती है। कानून द्वारा दण्डित कर दिये जाने के बावजूद उन की सामाजिक हैसियत में कोई कमी नहीं आती। राज्य के कानून के सामाजिक स्तर पर निष्प्रभावी होने का इस से बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है?
यह विडम्बनापूर्ण है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाली इन घटनाओं को समाज के कुछ बौद्धिकों द्वारा इस तरह विश्लेषित किया जाता है मानों कोई प्रवृत्ति मानवाधिकारों अर्थात मनुष्य के मनुष्य होने के अधिकार पर कुठाराघात करके भी संस्कृति कहलाने का गौरव हासिल कर सकती है!दरअस्ल, पिछले एक अरसे से संस्कृति को असूर्यम्पश्या जैसी कोई चीज मान लिया गया है और उसे बचाने के नाम पर किसी भी तरह की गैर-कानूनी और मानवविरोधी कार्रवाई को भी सामाजिक मान्यता मिलने लगी है। जब सती जैसी प्रथा को हमारे बौद्धिकों और संबंधित समाज द्वारा उचित माना जाता और अन्तरजातीय विवाह जैसी घटनाओं को जाति-पंचायतें सार्वजनिक फैसले लेकर दण्डित करती हैं, जिसे संबंधित गाँव या जाति की बहुसंख्या का समर्थन भी मिलता है, तो इस के पीछे विकृति को संस्कृति मानने की मानसिकता काम कर रही होती है, क्यों कि इस दृष्टि को मानने वालों के लिए बहुसंख्यक समाज की स्वीकृति ही संस्कृति होती है, क्यों कि अन्ततः समाज का आचरण ही तो उस की संस्कृति कहलाता है। विचारणीय यह है कि ऐसे लोग या जाति- पंचायतें आदि यह नहीं मानती, बल्कि शायद समझ बी नहीं पाती कि वे जो कुछ कर रही हैं, वह मानवाधिकारों का उल्लंघन या कोई अनुचित बात है क्यों कि यह सब वे अपनी सांस्कृतिक परंपरा की रक्षा के प्रयोजन से कर रही हैं।
दरअस्ल, इस मनोवृत्ति की पृष्ठभूमि में एक प्रकार के सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की विचारधारा सक्रिय रही होती है। सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की अवधारणा इस पूर्वमान्यता पर आधारित है कि सार्वभौमिक संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं होती क्यों कि प्रत्येक संस्कृति का अपना विशिष्ट चरित्र होता है, जो उस के परंपरागत रिवाजों के रूप में अभिव्यक्त होता है और इस लिए उन रिवाजों में कोई भी परिवर्तन उस विशिष्ट चरित्र को, अर्थात् उस समाज की सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट करने की दिशा में उठाया जा रहा कदम है। ऐसा मानना भूल होगी कि ये लोग मानवाधिकार विरोधी या मानव-हन्ता होते हैं क्यों कि अन्य परिस्थितियों में इन्हें उदार मानवतावादी कार्यों में भी सक्रिय देखा जा सकता है। यहाँ मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा जो अपने किन्हीं निजी या राजनीतिक स्वार्थों की वजह से संस्कृति के नाम पर उत्तेजना पैदा करना चाहते हैं। मेरा आशय उन लोगों से है जो सामान्य तौर पर नैतिक और सीधे-सादे लोग होते हैं- जैसा कि हमारे ग्रामीण समाज का बहुसंख्यक वर्ग रहा है- लेकिन जिन्हें संस्कृति के नाम पर उत्तेजित किया जा सकता और किया जाता है।
इस वर्ग के साथ मैं उन बौद्धिक लोगों को जोड़ना चाहूँगा जो शायद उतने भोले और सीधे-सादे तो नहीं होते, लेकिन सांस्कृतिक अस्मिता जिनके लिए एक ऐसी पवित्र अवधारणा होती है, जिस का स्पर्श भी नहीं किया जा सकता। यहाँ इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आधुनिक काल में बहुत-से नये राष्ट्र-राज्यों का निर्माण सांस्कृतिक अस्मिता या किसी समाज के विशिष्ट सांस्कृतिक चरित्र के तर्क के आधार पर ही हुआ है, जिस का तात्पर्य है कि सांस्कृतिक अस्मिता की इस अवधारणा को बौद्धिक स्तर पर ही नहीं, राजनीतिक स्तर पर भी अन्तरराष्ट्रीय मान्यता मिल चुकी है। इस लिए यदि इस सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के नाम पर किसी समाज को उत्तेजित किया जा सकता है तो किम् आश्चर्यम्!
दरअस्ल, सांस्कृतिक अस्मिता की अवधारणा पर ही आक्रामक रवैया अपनाने के बजाय यह समझने-समझाने की जरूरत है कि संस्कृति कोई जड़ या गतिहीन प्रक्रिया नहीं है और रिवाजों तथा बुनियादी सांस्कृतिक मूल्यों में फर्क होता है। रिवाज एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज होते हैं और इतिहास निरंतर चलता रहता है। यह देखा जाना चाहिए कि किसी संस्कृति का उत्स किसी बुनियादी मूल्यबोध में है या इतिहास के एक विशेष दौर में विकसित किसी रिवाज में – वह रिवाज आज उचित है या अनुचित, इसे आज के ऐतिहासिक संदर्भ के साथ-साथ उस बुनियादी मूल्य-दृष्टि की कसौटी पर भी परखने की जरूरत है जो किसी संस्कृति की बुनियादी मूल्य-दृष्टि है। इस दृष्टि से देखें तो किसी भी संस्कृति की मूल्य-दृष्टि को मानवाधिकारों की विरोधी नहीं माना जा सकता क्यों कि सभी के मानवीय आशय या सरोकार लगभग समान होते हैं। विकृति वहीं आती है, जहाँ मनुष्य के मनुष्य होने के अधिकार की अनदेखी की जाती है। कोई विकृति किसी दीर्घावधि के लिए प्रचलन में रही, इस से वह संस्कृति नहीं हो जाती। जैसे शरीर में किसी बीमारी के दीर्घकाल तक रहने के आधार पर उसे स्वास्थ्य का लक्षण अथवा उस देह की अस्मिता नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार दीर्घकाल तक चलने वाले किसी विकृत रिवाज को भी संस्कृति का दर्जा नहीं दिया जा सकता। एक रुग्ण मानसिकता ही रोग को अपनी अस्मिता मान सकती है। किसी चीज के होने की वजह से यह तो माना जा सकता है कि वह है, पर उस से उस का नैतिक या सांस्कृतिक औचित्य प्रमाणित नहीं होता।
यह ठीक है कि प्राकृतिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों की वजह से प्रत्येक संस्कृति का अपना विशिष्ट चरित्र होता है, लेकिन यह वैशिष्ट्य उस चरित्र को संस्कृति की मूल अवधारणा की परिधि के बाहर नहीं कर सकता। संस्कृति का तात्पर्य ही है मानवीय सर्जनात्मकता का विकास। यदि मानवीय सर्जनात्मकता नहीं है तो जो कुछ है वह प्रकृति है, संस्कृति नहीं। इस लिए विशिष्ट सांस्कृतिक चरित्र के नाम पर यदि मानवीय सर्जनात्मकता पर आघात होता है तो उसे सांस्कृतिक नहीं माना जा सकता। किसी भी प्रकार की सर्जनशीलता के लिए स्वतंत्रता एक पूर्वशर्त है क्यों कि जो समाज स्वतंत्रता का दमन करते हैं, वे सर्जनात्मकता के और इसी लिए संस्कृति के विकास के विरोधी ही माने जायेंगे। मध्यकाल में ब्रनो, गैलीलियो या मंसूर आदि के साथ जो व्यवहार हुआ, वह इस का ज्वलंत उदाहरण है। कोई समाज जिस सीमा तक स्वतंत्रता और सर्जनात्मकता का दमन करने की कोशिश कर रहा है, उस सीमा तक वह एक संस्कृति विरोधी समाज हो जाता है- यह दमन व्यक्ति के स्तर पर भी हो सकता है और वर्ग, जाति या राष्ट्र के स्तर पर भी। मानवीय स्वतंत्रता से वंचित समाज की कोई सांस्कृतिक अस्मिता या चरित्र नहीं होता क्यों कि उसकी कोई संस्कृति ही नहीं होती।
इस लिए जो कोई सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का दायित्व लेना चाहता है, उसे यह समझना जरूरी है कि स्वतंत्रता की रक्षा ही संस्कृति की रक्षा है और कोई विशिष्ट संस्कृति, दरअस्ल, संस्कृति है ही नहीं, यदि वह संस्कृति मात्र की परिभाषा की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। मानवाधिकार अर्थात् मानव-स्वातंत्र्य- कहें कि प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य का स्वातंत्र्य- इस लिए किसी भी संस्कृति की कसौटी है, उस के विशिष्ट चरित्र या अस्मिता की भी। जो अस्मिता स्वातंत्र्य को नकारती है, वह दरअस्ल, अपनी अस्मिता को ही नकार रही होती है।