— किशन पटनायक —
(यह लेख अगस्त 1981 में लिखा गया था। लेख की शुरुआत से ही जाहिर है कि उन्नीस सौ चौहत्तर में उठे युवा ज्वार के अनुभव और उन दिनों और उसके बाद भी चलती रही बहसें इस लेख की पृष्ठभूमि में हैं। आज जब देश में युवाओं में चौतरफा असंतोष दिख रहा है तब यह सवाल सहज ही उठता है कि आखिर यह क्या शक्ल लेगा? क्या इसमें किसी रैडिकल बदलाव की संभावना देखी जा सकती है, क्या युवा उसका हरावल दस्ता बन सकते हैं? इन सवालों का उत्तर तलाशने में शायद किशन जी का यह लेख मददगार साबित हो।)
सन 1974-75 में भारत के कम्युनिस्टों ने युवा आंदोलन की वैधता पर अपत्ति उठायी थी। यह आपत्ति अवैज्ञानिक थी और विरोधाभास से भरी हुई भी। उनकी आपत्ति तीन बातों को लेकर थी- ‘युवा कोई वर्ग नहीं होता’; ‘मजदूर आंदोलन होता है लेकिन युवा-आंदोलन नहीं होता’; ‘युवा-समूह की कोई खास क्रांतिकारी भूमिका नहीं होती’।
उनका कहना था कि युवा या विद्यार्थी सामाजिक वर्गों में रहते हैं। समाज में जितने वर्ग होते हैं उतने ही वर्ग युवा या विद्यार्थियों में होते हैं। अतः उनका कोई आंदोलन नहीं हो सकता। विद्यार्थियों में ज्यादातर बुर्जुआ होते हैं- इसलिए उनका आंदोलन बुर्जुआ आंदोलन होगा।
ऐसी बातें विरोधाभासपूर्ण हैं क्योंकि सारी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियाँ युवाओं को, विद्यार्थियों को अलग से संगठित करती हैं और उनके लिए अलग-अलग संगठन बनाती हैं- युवाओं के लिए अलग और विद्यार्थियों के लिए अलग। अगर छात्रों और युवाओं की कोई विशेष भूमिका क्रांति के लिए नहीं है तो ये संगठन क्यों बनाये जाते हैं? क्या ये सारे संगठन धोखा हैं? भारतीय कम्युनिस्टों ने युवा और छात्रों की विशेष भूमिका को स्पष्ट करते हुए कोई किताब या थीसिस लिखी है या नहीं, यह पूछना पड़ेगा। शायद इस दुविधा या दोहरी नीति के कारण कम्युनिस्ट अकसर युवा-विद्यार्थी आंदोलनों में आरंभ में शामिल हो जाते हैं लेकिन बीच में साथ छोड़ देते हैं।
लेकिन यह भी सही है कि 1974-75 आंदोलन के अधिकांश युवा और छात्र-नेताओं के दिमाग में अपनी भूमिका के बारे में गलतफहमी भी थी और कुछ बिंदुओं पर उनकी इस मूर्खता के संदर्भ में कम्युनिस्ट आलोचना सही साबित होती है। पहले हम उस गलतफहमी को दूर करना चाहेंगे।
युवा अपने-आप क्रांतिकारी या प्रगतिशील होता है, यह एक गलतफहमी है। जिस समूह में अधिक संख्या में युवा रहेंगे वहाँ प्रगतिशीलता की मात्रा अधिक होगी, यह भी गलत है। यह बात केवल युवाओं के लिए नहीं, मजदूर वर्ग के लिए भी लागू होती है। मजदूर अपने आप क्रांतिकारी या प्रगतिशील नहीं होता है। भारतीय जनता पार्टी में भी किसान, मजदूर, युवा रहते हैं- लेकिन उनकी दिशा प्रतिगामी होती है।
विधानसभा, संसद में युवा प्रतिनिधि अधिक संख्या में जाएँगे तो संसद अधिक जीवंत होगी, यह कथन भी हास्यास्पद है। मौजूदा संसद का शासक-दल इसका सबसे बड़ा नमूना है- क्योंकि इतनी मुरदा संसद कभी नहीं थी और इसके पूर्व संसद में इतने नौजवान भी कभी नहीं थे।
तथ्य यह है कि कोई भी सामाजिक तबका अपने आप क्रांतिकारी नहीं होता।
मजदूर बहुत अधिक धर्म और व्यवस्था को मानने वाला होता है। लेकिन उसकी सामाजिक और ऐतिहासिक स्थिति ऐसी होती है कि क्रांति की चेतना उसमें सहज ढंग से पैदा की जा सकती है। सबसे पहले क्रांतिकारी चेतना (यानी मौलिक परिवर्तन की जरूरत) कुछ बुद्धिजीवियों में पैदा होती है जो आमतौर पर निम्न मध्यमवर्ग के व्यक्ति होते हैं। मजदूरों में सामूहिक चेतना पैदा होती है। इसलिए एक वर्ग के तौर पर उनको संगठित किया जा सकता है। तीसरी बात यह है कि मजदूर एक समूह के तौर पर मौजूदा व्यवस्था के शासकवर्ग के साथ टकराने के लिए तैयार हो जाता है।
अतः पहले हम इस सवाल का उत्तर दें कि मजदूर को क्यों हम क्रांतिकारी वर्ग मानते हैं। इसलिए कि उसकी तीन विशषताएँ हैं- (1) उनके मानस में विद्रोह और क्रांति की चेतना स्वाभाविक रूप से पैदा की जा सकती है। कारण, इस व्यवस्था में वह कोई सुधार की उम्मीद नहीं कर पाता है, व्यवस्था बदलने से उसका कोई नुकसान नहीं होनेवाला है। (2) उसका विद्रोह, संघर्ष सामूहिक होता है, इसलिए एक वर्ग के तौर पर उसे संगठित किया जा सकता है। (3) यह समूह शासकवर्ग से टकराने के लिए तैयार हो जाता है।
मजदूर वर्ग की विशेषता को जानने के बाद हम युवाओं-विद्यार्थियों की विशेषताओं का उल्लेख करेंगे :
(1) सारी दुनिया में युवा मानस भावुक, आदर्शवादी, उग्रवादी और सीमा-लंघनकारी होता है। वह अपनी शारीरिक, सामाजिक सीमाओं को लाँघ सकता है; नयी दुनिया के सपने देखता है, नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने की इच्छा करता है। वह सुख नहीं चाहता है, रोमांच और अनुभव चाहता है। इसलिए पागलों और बेवकूफों की तरह असंभव को संभव मान बैठता है। किशोरावस्था और युवावस्था के एक छोटे अरसे में यह दौर तीव्र रहता है, जब युवा मानस में असीम और अजेय होने का भ्रम रहता है। असल में यह न पागलपन है, न बेवकूफी है, न भ्रम है, न उन्माद है। यह युवा मानस का एक अनिवार्य लक्षण है और यह जीवन का सबसे अधिक उर्वर और सृजनशील समय होता है। इस अवस्था में वह उस बीज को पनपा सकता है, जो पूरे जीवन की प्रवृत्ति बन सकता है। इस अवस्था में किस प्रकार की शिक्षा या प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए- शिक्षाशास्त्र अभी तक यह निर्धारित नहीं कर सका है। यहाँ मुख्य बात यह है कि इस अवस्था में मनुष्य अपनी सीमा से बाहर निकलने की और बड़े-बड़े काम करने की प्रवृत्ति से लैस रहता है। अत्यधिक सुख या अत्यधिक अभाव की स्थिति में यह प्रवृत्ति कुंठित हो जाती है, इसलिए मध्यमवर्ग में ही यह प्रवृत्ति सबसे अधिक तेज रहती है।
अगर युवा मानस ऐसा है तो उसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति किस प्रकार की होगी? संपन्न समाजों में युवा मन की अभिव्यक्ति वैज्ञानिक आविष्कार, खेल, सेक्स इत्यादि की दिशा पकड़ती है। गरीब मध्यमवर्ग की स्थिति में आर्थिक और सामाजिक विषमता की बाधाएँ चुनौती खड़ी कर देती हैं। प्रतिक्रिया में एक विद्रोह का तत्त्व मानस में आ जाता है। इसलिए गरीब या निम्नमध्य वर्ग के नौजवानों में सामाजिक तथा राजनैतिक सुधार के काम में रुचि पैदा हो जाती है। समाज बदले, यह बात उन्हें अच्छी लगती है। बदलने में जोखिम या गड़बड़ी आ सकती है, उसको वे झेल सकते हैं।
इस अर्थ में युवा वर्ग भी मजदूर वर्ग जैसा ही एक तबका बन जाता है। मजदूरों में गरीबी अधिक है। नौजवानों में जोश और कल्पना अधिक है। व्यवस्था बदलने से मजदूर को कोई नुकसान नहीं है (नकारात्मक), निम्नमध्य वर्ग के नौजवानों को मामूली नुकसान हो सकता है परन्तु उनमें नयी व्यवस्था की कल्पना और चाह तीव्र होती है (सकारात्मक) और इस चाह के कारण वे नुकसान झेल सकते हैं।
(2) दुनिया के संपन्न देशों और गरीब औपनिवेशिक समाजों के नौजवानों में एक बुनियादी फर्क है। इस फर्क को न समझने के कारण भारत के कम्युनिस्ट युवा आंदोलन की संभावनाओं को नहीं जानते। संपन्न देशों के नौजवानों में भी युवा उत्तेजना रहती है। खोज, खेल, हिंसा और सेक्स में उनकी अभिव्यक्ति अधिक दिखाई देती है। गरीब औपनिवेशिक समाज में युवाओं का सबसे बड़ा हिस्सा निम्नमध्यम वर्ग का होता है। विद्यार्थियों में और साक्षर बेरोजगारों में निम्नमध्य वर्ग के युवाओं का अनुपात और भी अधिक है। युवा और विद्यार्थियों के नाम पर जो सामूहिकता बनती है, वह मुख्यतः इसी वर्ग की होती है। इसलिए भारत के युवा-आंदोलन में यह वर्गचरित्र स्पष्ट दिखाई देना चाहिए। 75 फीसदी तक विद्यार्थियों में वर्ग-भिन्नता नहीं के बराबर होती है। इसलिए उनमें सामूहिकता भी स्वाभाविक रूप से आ जाती है। कम्युनिस्ट लोग जब कहते हैं कि विद्यार्थी बहुत सारे वर्गों में विभाजित हैं, तो वे भारत के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को नजदीक से नहीं देख रहे हैं। अगर कोई सर्वेक्षण करके देखेगा तो यह मिलेगा कि युवा-विद्यार्थी समूह का मतलब है निम्नमध्य वर्ग की अगली पीढ़ी। तो क्या इस पेटी-बुर्जुआ समूह में क्रांति की चेतना आ सकती है?
कम्युनिस्टों को इसके साथ-साथ दूसरा प्रश्न भी करना होगा- इन विद्यार्थियों के बाप-चाचा-मामा जो टाटा-बिड़ला के कारखानों में या सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरी करते हैं और जीवन की सुरक्षा के एहसास में जीते हैं, उनमें क्रांतिकारिता कैसे आती है? श्रमिक संगठन के नाम से जब ऐसे लोग संगठित होते हैं तब वह क्रांतिकारी संगठन कैसे हो जाता है? क्या युवा संगठन कर्मचारी संघों तथा कारखानों के श्रमिक संगठनों से कम क्रांतिकारी है या समान रूप से अक्रांतिकारी है? कारखानों के श्रमिकों में इस व्यवस्था के अंदर भी बेहतर जीवन और लगातार सुधार के लिए उम्मीद हो जाती है और जब अपने श्रमिक संगठनों के जरिए इस उम्मीद तक पहुँच जाते हैं तब वे गैर-क्रांतिकारी हो जाते हैं। फिर भी वामपंथियों में यह विश्वास बना रहता है कि श्रमिक संगठन की कार्यशैली को अगर हम बदल सकेंगे तो मजदूर आंदोलन क्रांतिकारी आंदोलन में परिणत हो जाएगा। देश का सबसे गरीब तबका वह नहीं है (खेतिहर मजदूर, हरिजन-आदिवासी समूह ही सही मानी में सर्वहारा हैं);फिर भी औद्योगिक मजदूरों से यह उम्मीद की जा सकती है।
(जारी)