लाल्टू की तीन कविताएँ

1
पेंटिंग : कौशलेश पांडेय


1. वक्त आएगा

 

वक्त आएगा वक्त आएगा वक्त आएगा

कि हम दरख्तों के बीच सुर्ख राहों पर चलेंगे

हमारे कदमों की आहटें आपस में गुफ्तगू करेंगी

 

राह पर पड़ी सूखी पत्तियाँ खुशामदीद कहने को उठ खड़ी होंगी।

उनके पीलेपन में से अदरक की शराब की खुशबू आएगी।

 

सारे परचम एक दरख्त के पास रख कर हम फिर

किसी शाम दरख्तों में गुम हो चुकी बातें करेंगे।

हम फिर साथ खुशी के गीत गाएँगे

 

यह जो उफान है

यह हमारी सदियों से जमा हो रही पीर है

हमने देखा कि दरख्तों पर ढेर सारी राख गिर चुकी है

हर शाख पर कुम्हलाई पत्तियाँ चुपचाप

देखती हैं कि पंछी बसेरा छोड़कर

कहीं दूर चले जा रहे हैं

 

हमने देखा कि शैतान अपनी शोहरत के नशे में अंधा है

हमारी पीर

उदास नदी बन कर बहती है

क्या नहीं है पानी में

ढूँढो तो तैरते हुए हमारे सपने दिख जाएँगे

शैतान की शोहरत आज दिखती है

हमारी पीर का सैलाब उसे बहा ले जाएगा

वक्त आएगा हम फिर

किसी शाम दरख्तों में गुम हो चुकी बातें करेंगे।

हम फिर साथ मिल कर खुशी के गीत गाएँगे ।                       

 

2. लंगर


(
टोकरी लिये खड़ी बच्ची

पंगत में बैठे लोगों को रोटी परोस रही है)

करीब से देखो तो उसकी आँखों में दिखती है

हर किसी को अपनी तस्वीर

 

एक निष्ठुर दुनिया में मुस्कराने की कोशिश में

कल्पना-लोक में विचरता है हर कोई

बच्ची और उसका लंगर है

किसान इतना निश्छल हर वक्त हो न हो

अपना दुख बयां करते हुए ज़रूर होता है

 

खुद को फकीर कहने वाले हत्यारे को यह बात समझ नहीं आती

अचरज होना नहीं चाहिए इसमें कि सब कुछ झूठ जानकर भी

पढ़े-लिखे लोग हत्यारे के साथ हैं

पर होता ही है

और अनजाने में हमारे दाँत होंठों के अंदर मांस काट बैठते हैं

कहते हैं कि कोई हमारे बारे में बुरा सोच रहा हो तो ऐसा होता है

 

इस बच्ची की मुस्कान को देखते हुए

हम किसी के भी बारे में बुरा सोचने से परहेज करते हैं

मुमकिन है कि हम इसी तरह मुस्करा सकें

जब हमें पता है कि इस मुस्कान को भी हत्यारे के दलाल

विदेशी साजिश कह कर लगातार चीख रहे हैं

 

यह अनोखा खेल है

इस मुल्क की मुस्कान को उस मुल्क की साजिश

 

और वहाँ की मुस्कान को यहाँ की साजिश कह कर

तानाशाह किसी भी मुल्क में जन्म लेना अभिशाप बना देते हैं

और फिर ऐसी हँसी हँसते हैं कि उनकी साँसों से महामारी फैलती है

आस्मां में रात में तारे नहीं दिखते और धरती पर पानी में

ज़हर घुल जाता है

 

यह मुस्कान हमें थोड़ा सा और इंसान बना रही है

हमारे मुरझाते चले चेहरों पर रौनक आ रही है

अब क्या दुख और क्या पीर

धरती के हम और धरती हमारी

हममें राम और हमीं में मुहम्मद-ईसा

सीता हम और राधा हम

माई भागो हम नानक-गोविंद भी हम

यह ऐसी मुस्कान है कि सारे प्रवासी पक्षी

इसे देखने यहाँ आ बैठे हैं

 

 तानाशाह,

इस बच्ची को देख कर हमें तुम पर भी प्यार आ जाता है

हम यह सोच कर रोते हैं कि तुम्हारी फितरत में

नफ़रत जड़ बना चुकी है

और फिर कहीं मुँह में दाँतों तले मांस आ जाता है

जाआज इस बच्ची की टोकरी से रोटी खाते हुए

तुझे हम एकबारगी माफ करते हैं।                                                     

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

3. बड़ा दिन 

 

बड़ा दिन आ रहा है

धरती और सूरज के अनोखे खेल में

उम्मीद कुलांचे भरती है

 

दिन बड़ा हो जाएगा

जाड़ा कम नहीं होगा

लहर दर लहर ठंड हमारे ऊपर से गुजरेगी

और तानाशाह दूरबीन से हमें लाशें उठाते देखेगा

वक्त गुजरता है

दरख्तों पर पत्तों के बीच में से छन कर आती

सुबह की किरण

हमें जगाती है

एक और दिन

हत्यारे से भिड़ने को हम तैयार हैं

 

दोपहर हमारे साए लंबे होते जाते हैं

फिलहाल इतना काफी है कि

तानाशाह सपनों में काँप उठे

कि हम आ रहे हैं

उसके ख्वाब आखिर अधूरे रह जाएँगे

जिन पंछियों को अब तक वह कत्लगाह तक नहीं ला पाया है

हम उनको खुले आकाश में उड़ा देंगे

और इस तरह वाकई एक नया साल आएगा

 

रात-रात हम साथ हैं

सूरज को भी पता है

जाने से पहले थोड़ी सी तपिश वह छोड़ जाता है

कि हमारे नौजवान गीत गाते रहें

हम हर सुबह उठ

समवेत गुंजन करते रहें कि जो बोले सो निहाल

कि कुदरत है

सत्

श्री

और अकाल!

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