— अरविन्द मोहन —
गांधी के साथ रहीं और उनके अंतिम दिनों में उनकी देखभाल करनेवाली उनकी पोती मनु गांधी ने एक सुन्दर किताब लिखी है, ‘गांधी : माई मदर’। जाहिर है किताब में काफी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हैं क्योंकि यह दौर बहुत महत्त्वपूर्ण है और गांधी अपना बनाया काफी कुछ हाथ से निकलते देखते हैं। अपने तपे-तपाये सहयोगियों को सत्ता के लिए उलझते देखते हैं। मारकाट में लगे अपने समाज का बहुत डरावना रूप देखते हैं। लीग और अँगरेजों की चाल समझते ही थे। पर हार मानने की जगह वे अपने मुट्ठी भर सहयोगियोँ को साथ लिये साम्प्रदायिक हिंसा की आग में झोंक कर शांति कायम करने में लगे हैँ। और उसका नतीजा भी दिखता है।
पर मनु के विवरणों में गांधी के खर्च या किफायत और जरा भी लापरवाही पर डाँट के बहुत प्रसंग हैं। लालटेन ज्यादा देर क्यों जली, अगर कम रोशनी की जरूरत है तो बत्ती नीचे क्यों नहीं हुई (इसमेँ थोड़ा ज्यादा तेल लगता है), एक बरसों पुराना झाँवा (पैर साफ करने का पत्थर) छूट गया तो उसे लेने के लिए अकेली मनु को दंगा वाले गाँव में अँधेरे में भेजा। और सब दिन वे चन्दे की चिंता करते थे लेकिन इस दौर में ज्यादा ही करने लगे थे।
उनकी कंजूसी के किस्से कम नहीं हैं लेकिन इस दौर के किस्से और ज्यादा हैं। शायद वे तब सार्वजनिक पैसे का हिसाब ज्यादा लगा रहे थे। ऐसा सब दिन था। हो सकता है यह मनु के लिए नया था। बल्कि गांधी ही क्यों तब तो आम आदमी भी खैरात खाने से परहेज करता था और सार्वजनिक जीवन में आनेवाले काफी सारे लोग चन्दे को अपने ऊपर खर्च नहीं करते थे। उनके बीच यह मान्यता सी थी कि अगर किसी और काम के लिए लिया गया पैसा अपने ऊपर खर्च किया जाए तो कोढ़ हो जाता है। गांधी ने ऐसा कहीं नहीं कहा और लम्बे समय से उन्होंने अपना निजी जीवन भी कुछ नहीं रखा था लेकिन फिर हर पैसे का हिसाब रखना और जरा भी ज्यादा खर्च न होने देना एक नियम सा था।
गांधी की कंजूसी और चंदा वसूलने की उस्तादी के किस्से बहुत हैं। जबलपुर में हरिजन कल्याण कोष में मिले चंदे का हिसाब इस बात से गड़बड़ा रहा था कि किसी महिला की एक कान की बाली ही मिली। गांधी का कहना था कि यह हो नहीं सकता कि कोई महिला एक ही बाली दे और एक रख ले। बहुत ढूँढ़ने पर दूसरी बाली दरी में फँसी मिली। चन्दा भी सार्वजनिक बाद में माँगना शुरु हुआ। चम्पारण में तो स्थानीय चन्दे की मनाही ही थी क्योंकि स्थानीय किसान कष्ट में थे और गान्धी को उनसे पैसा लेना उचित नहीं लगा। वहाँ गांधी के सहयोगियोँ ने छपरा के रिविलगंज में पुणे के फर्गुसन कालेज जैसा एक कालेज बनाने की योजना के लिए जरूर पैसे जुटाये जिसमें राजेन्द्र बाबू को प्रिंसिपल बनाने की योजना थी। जब आन्दोलन से फुरसत न होने के चलते यह योजना आगे न बढ़ी तो गांधी ने वह सारे पैसे लौटवाये और बाद में इन्हीं लोगों से चन्दा लेकर बिहार विद्यापीठ बना।
गांधी ने चम्पारण में चन्दा नहीं जुटाया तो खर्च कहाँ से हुआ। तब इतने लोगों के रहने, खाने, परिवहन, स्टेशनरी और डाक का खर्च काफी था। तब डाक के रेट, खासकर तार के, काफी थे। कहीं भी सीधा जिक्र नहीं है। पर उस समय गांधी के कामों में कुछ ही लोग मदद देते थे। और जो पढ़ाई मैंने की, उससे यही लगता है कि गांधी के मित्र डा. प्राणजीवनदास मेहता ने यह पूरा खर्च उठाया था। गांधी अपनी आत्मकथा में यह जिक्र जरूर करते हैँ कि आन्दोलन पर हमारे करीब बाईस-तेईस सौ रुपए खर्च हुए।
आन्दोलन साढ़े नौ महीने चला था। और फिर वे बहुत निहाल होनेवाले अन्दाज में बताते हैं कि हमारे आठ-नौ सौ रुपए बच ही गये। कहाँ से पैसे आए और इन बचे पैसों का क्या हुआ यह हिसाब कहीं दिया नहीं गया है। शायद दो दोस्तों का मामला होने से ऐसा हुआ हो। डा. मेहता जबरदस्त आदमी थे और गांधी के कामों के लिए बैंक खोलने की सोच रहे थे। लकवा होने से उनकी सक्रियता कम हो गयी और यह योजना पूरी नहीं हुई पर शुरुआत के एक दौर में वे गांधी को बहुत मदद देते रहे थे।
खेड़ा सत्याग्रह में कमान गांधी के पास न थी। वह सरदार पटेल के कमान में चला और गांधी उसमें एक प्रमुख सैनिक की हैसियत से ही गये थे। वहाँ की सारी तैयारियाँ सरदार ने जबरदस्त तरीके से कर रखी थीं। और इस आन्दोलन के बाद देश में उनके संगठन-कौशल का डंका भी बजा। उन्होंने ही आन्दोलन के लिए पहले से चन्दा करके रखा था। और जब ब्रिटिश हुकूमत सारा जुल्म करके थक गयी तब उसने किसानों की माँगें मान लीं और गांधी को दूसरे किसान आन्दोलन में भी सफलता मिली।
यहाँ आन्दोलन के ब्यौरे नहीं देने हैं। उसकी चर्चा कभी अलग से हो सकती है। पर हुआ यह कि आन्दोलन खत्म होने के बाद चन्दे के कोष में पन्द्रह हजार रुपये बचे हुए थे। सो यह सवाल काफी महत्त्वपूर्ण हो गया कि इन पैसों का क्या किया जाए। पन्द्रह हजार का मतलब अच्छी-खासी रकम। पटेल समेत कई सारे लोगों की राय थी कि इन्हें रहने दिया जाए और बाद में किसी और सार्वजनिक काम में इस्तेमाल कर लिया जाएगा। गांधी की राय थी कि जिस काम के लिए पैसे माँगे जाएँ उसी पर खर्च हों। अगर धन घटे तो खर्च का हिसाब और काम की प्रगति का विवरण देते हुए और पैसे लिये जा सकते हैं। और अगर पैसे बच गये हों तो काम का हिसाब देने के साथ बचे पैसे वापस कर देने चाहिए।
सार्वजनिक धन के ऐसे साफ हिसाब-किताब से ही आगे पैसे माँगने के साथ सामाजिक जिम्मेवारी का निर्वाह होता है। गांधी ने धीरे-धीरे सबको अपनी राय मानने के लिए राजी किया क्योंकि बेईमानी किसी के मन में नहीं थी। और ये पैसे वापस किये गये। चन्दा वापसी के ऐसे उदाहरण कम ही होंगे।