समता का वह योद्धा हीरालाल जैन

0
स्व हीरालाल जैन


— नंद चतुर्वेदी —

धी सदी के पार देखता हूँ तो आज भी मुझे वही हीरालाल जैन नजर आते हैं- गैरबराबरी के विरुद्ध लड़नेवाले। उनके इस भाव में कभी कोई परिवर्तन, कोई घबराहट, संदेह, कोई अविश्वास हिचकिचाहट नजर नहीं आयी। समाजवाद का वे शास्त्रीय अर्थ भी जानते रहे और मानवीय अर्थ भी। मानवीय अर्थ में हीरालाल जी के लिए समाजवाद का संपूर्ण अर्थ गैरबराबरी के विरुद्ध खड़े रहना, लड़ना ही था। ऐसे खरे समाजवादी हीरालाल जैन आज हमारे बीच नहीं हैं। वे कोई क्रांति की धधकती मशाल नहीं थे। उनके साथ कई जनसभाओं में मैंने उन्हें भाषण की जगह बातें करते देखा…सिर्फ खबर की सूचनाएँ देते या सरकार की जन-विरोधी नीतियों का खुलासा करते। सभा में दूसरे साथी पुरुषोत्तम मंत्री, स्वामी माधोदास जी, कवि बशीर अहमद मयूख, महावीर जी और मैं दनदनाती भाषा में भाषण देते लेकिन जब हीरालाल खड़े होते तो हमें एक शांत, उद्वेग रहित स्वर सुनाई देता। वे अंत के वक्ता होते लेकिन वे गाँववालों का मन जीतनेवाली बातें कहते, आडंबर और अलंकार रहित। शोषण और जुल्मों का जिक्र करते समय किसी चतुराई या छल-कपट की जरूरत को वे महत्त्व नहीं देते थे। उनसे जुड़े कई दौर यादों में हैं।

यह 1948 की बात है। समाजवादियों ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था। लेकिन उनका विकास कांग्रेस के भीतर ही हुआ था। उनके विचारों पर गांधी-चिंतन की गहरी छाया थी। जनता प्रायः समाजवादियों को कांग्रेस की बीटीम कहकर छेड़खानी करती रहती थी। कांग्रेस वालों की तरफ से गाँव-गाँव में समाजवादियों के खिलाफ दो मुद्दे फैला दिये गये थे- संपत्ति और स्त्री। संपत्ति के स्वामित्व को लेकर उन्होंने लोगों को इतना डरा दिया था कि पान वाले तक हमसे पूछते कि पार्टी का अगर शासन हुआ तो उनके चूने-कत्थे के लोटे तो उन्हीं के रहेंगे न? सभाओं में हमें इन नाकारा सवालों का जवाब देने में शर्म आती है। स्त्री को लेकर यौन-शुचिता के बारे में तरह-तरह के भ्रम फैल गये थे। गाँवों और कस्बों में यह भावनात्मक मुद्दा पार्टी के लिए अदृश्य अभिशाप की तरह फैला हुआ था। संपत्ति के बँटवारे को लेकर हम बेटे-बेटी के समान अधिकार पर जोर देते। लोहिया जी ने द्रौपदी या सीता को लेकर जो बहस छेड़ दी थी उसमें सब रंगत के कट्टरतावादी, संप्रदायवादी, प्रतिक्रियावादी लोग आनंद और उछाह से शामिल हो गये थे।

तब पार्टी साथियों के उत्तेजनात्मक भाषणों के बावजूद जनता के मन में राजाओं के लिए कोई न कोई सम्मोहन था जो टूटता नहीं था। हम निराश होते लेकिन हीरालाल जी कभी नहीं। कहते कि यह शताब्दियों का संस्कार है। हम तो उनके पास आज भी आए हैं। अब मुझे लगता है कि संस्कार के साथ-साथ राजाओं की अनेक चारित्रिक विचित्रताएँ, नियंत्रण की अपार असंवैधानिक ताकत और तुरंत कार्रवाई उनकी लोकप्रियता के कारण हैं। अब जैसी राजनीतिक अराजकता और छीना-झपटी है, उसे देखते कई राजा भले और प्रजावत्सल नजर आते हैं। लेकिन राजशाही की नृशंसताएँ और इस संस्था को मिला ईश्वरवादी समर्थन हमारी कथाओं में उग्र नाराजगी के साथ प्रकट होता है।

साथी हीरालाल जी जन-आंदोलनों और स्वाधीनता संघर्ष के कठिन अनुभवों से गुजर चुके थे और वैसे भी वे ठंडे मन-मस्तिष्क के थे। वे देख रहे थे कि आजादी के बाद संघर्ष का मिजाज बदल गया था। जिस वैराग्य, सेवा और राष्ट्रप्रेम के लिए आजादी के संघर्ष में प्रतिज्ञाएँ की गयी थीं कि उन्हें व्यवहार में लाना असंभव सा नजर आने लगा था। सबसे पेचीदा सवाल यह था कि राष्ट्रीय सरकारों की अलोकतंत्रीय नीतियों का असरदार विरोध कैसे हो? एक उपाय तो वयस्क मतदान द्वारा सरकार बदलना था ही लेकिन पाँच वर्षों तक शोषण और उत्पीड़न सहना और अंत में लोक-लुभावन प्रचारतंत्र का मुकाबला करने की कठिनाइयों को देख कर लोहिया जी ने नारा दिया था बहादुर कौमें पाँच वर्ष तक इतजार नहीं करतीं। लेकिन बहादुर कौमें करें क्या?  सरकार की सामर्थ्य, उसकी शक्ति, उसका तंत्र, संसद और विधानसभाओं की आडंबरपूर्ण कार्यशैली का बहादुराना प्रतिरोध कैसे हो सकता है?

औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के ये पचास वर्ष इस दुखद तथ्य के गवाह हैं कि कौमें एक अरसे तक दिखावटी लोकतंत्र में जीवित रहने की अभ्यस्त हो सकती हैं और ऐसा प्रभु-वर्ग तैयार हो सकता है जो उत्पीड़न को एक खूबसूरत लोकतंत्र की तरह प्रचारित कर देने का हुनर हासिल कर ले।

बहरहाल, मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि तब भी साथी हीरालाल जैन ने न कोई दीनता दिखाई और न पलायन किया। वे अपनी नैतिक आस्थाओं को बनाये रखनेवाले मजबूत आदमी थे। इसका सबूत उनकी जिंदगी थी। राजनीति की शब्दावली में नाकामयाब जिंदगी। लेकिन लोक दृष्टि में साहसी, मानवीय और शुभ।

कोटा के रामपुरा बाजार में हरे रंग की लंबी तार-वाली रेलिंग लगी है। उस पर सफेद अक्षरों में न्यू एशियेटिक इंश्योरेंस कंपनी लिखा है। उसी पर कुछ तख्तियाँ लगी हैं- सोशलिस्ट पार्टी, जयहिंद, बीड़ी मजदूर यूनियन। इस इमारत के नीचे दुकानें हैं। उन दुकानों के बीच में सँकरी, अँधेरी सीढ़ियाँ हैं जिनसे गुजर कर ऊपर पहुँचा जाता है। यह बीच का हिस्सा है, इसके ऊपर एक और मंजिल है जिसमें दो कमरे हैं और छोटी छत है। बीच के हिस्से के एक कमरे में साथी हीरालाल जैन रहते थे। सटे हुए लंबे बरांडे में उनका कार्यालय था इंश्योरेंस का, जयहिंद साप्ताहिक का, मजदूर संगठनों का। यहीं पार्टी अखबार के बदले आनेवाली पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र, पार्टी बुलेटिन रखे जाते। यहीं शहर के बुद्धिजीवी, राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता आते। बहस, गपशप छींटाकशी, चुहलबाजी का यह केंद्र था।

जब मैं कोटा आया तब पचीस वर्ष का था और महाराष्ट्र के एक स्कूल की हेडमास्टरी छोड़ कर यहाँ एमए करने आ गया था। मुझे समाजवाद के बारे में तफसील से कुछ भी जानकारी नहीं थी। इतनी भर कि सबकी बराबरी का उसूल मुझे अच्छा लगता है और इस भाव को मैं अनायास ही कविताओं में बाँध चुका हूं। मधु के प्यालों में पलते हो वैभव के मादक दीवानों या कि पर मेरा तो दिल पत्थर का बैठा-बैठा देखा करता। मैं किसी रहने के कमरे की तलाश में था और तब तक अस्थायी मुकाम अपने कविमित्र रामनाथ कमलाकर के यहाँ कर लिया था। एक दिन संध्या को हमें सोशलिस्ट पार्टी की जनसभा में जाना था जो रामपुरा बाजार में थी। इस सभा में पहली बार किसी पार्टी के झंडे के नीचे मैंने भाषण दिया था और हीरालाल जैन से मुलाकात हुई जिन्होंने बाद वाली पूरी जिंदगी को बदलने में मदद की।

उस मुलाकात के बाद अमूमन पार्टी के दफ्तर में जाने लगा। यहाँ हीरालाल जी ही होते थे। उन्हें मैंने प्रायः पैंट और आधी बाँह के बुशशर्ट में ही देखा लेकिन एकदम सब कुछ कायदे का, एक संभ्रांत युवक जैसा। कुछ भी ढील-ढाल नहीं था। आकस्मिक तो कुछ भी नहीं। वे बातूनी मिजाज के नहीं थे। लेकिन घुन्ने भी नहीं। पार्टी को फैलाना और विश्वसनीय बनाना यह उनकी सबसे बड़ी चिंता थी।

दाएँ से बायें सर्वश्री राजनारायण, पुरुषोत्तम मंत्री, हीरालाल जैन एवं विज्ञान मोदी

पार्टी के प्रचार के लिए जय हिंद’  साप्ताहिक निकलने लगा। उसके संपादन का जिम्मा साथी हीरालाल जैन को सौपा गया। यह पार्टी का मुखपत्र था। जय हिंद मगनलाल जी मास्साब के कोटा प्रिंटिंग प्रेस ही छपता। वे संपादक के बड़े भाई थे और वहाँ संपादक हीरालाल जैन को लंबे समय तक उधार की सुविधा मिली हुई थी। वैसे वे मास्साब के साथ ही रहते थे, उन्हीं के रसोड़े के सदस्य थे और जब कभी कोई पार्टी का आदरास्पद साथी आता तो वह भी वहीं भोजन करता था। लेकिन असली और आत्मा का घर तो सोशलिस्ट पार्टी का कार्यालय ही था।

इमरजंसी का दौर याद करता हूँ। मैं जेल में बंद हीरालाल जी से मिलता हूँ। वे जेल-जीवन की खुशियों का वर्णन करते हैं, साथ-साथ रहने और सरकार द्वारा हो रही मेहमाननवाजी की तफसील के साथ सूचना देते हैं। ये इमरजंसी की शुरुआत के दिन हैं लेकिन कितनी भी छोटी अवधि की पराधीनता हो वह अपमान तो है ही। जेल में मेरे कई मित्र राजनीतिक बंदी हैं लेकिन वे तानाशाही के आगे नहीं झुके हैं यह आजादी को एक सनातन मूल्य की तरह व्याख्यायित करने का फलसफा और सुख है। थोड़ी देर में जेल की अधिकृतियाँ हमें बाहर निकल जाने का हुक्म देती हैं। संध्या हो गयी है। सूर्यास्त होने की निराशा के साथ-साथ साथियों का उदास बैरक में लौटना आजादी की वापसी का अंतहीन इंतजार ही तो है।

आपातकाल के बाद समाजवादी पार्टी का विलय हो जाता है और नयी पार्टी के लोगों में राजनीतिक प्रभुता पाने की जो दौड़ जो शुरू होती है उसमें समाजवादी पार्टी की पहचान ही विलुप्त हो जाती है। राजस्थान में जनता पार्टी का नेतृत्व थेरोसिंह जी करते हैं और उनकी कुशलता, राजनीतिक रणनीति समाजवादियों के सारे रास्ते बंद कर देती है। दुनिया में जैसे छोटे लोगों के वंश डूब जाते हैं, छोटी पार्टियों का भी अवसान हो जाता है। पुराने समाजवादियों को लोग खुशनुमा दीपों की तरह याद करते हैं लेकिन मुझे यह दया हमेशा अपमानजनक लगती है।

हीरालाल जी को, जब कुछ समय के लिए समाजवादियों का राजनीतिक अभ्युदय हुआ था, तब भी कुछ करने का मौका नहीं मिला और उनकी शांत प्रतिभा, मानवीय मूल्यों के लिए जगह बनाने की इच्छा, एक समृद्ध राजस्थान बनाने की आकांक्षा अवसादग्रस्त अँधेरे में विलीन हो गयी।

यह कहकर मैं उन्हें लज्जित नहीं करूँगा कि उन्होंने अपने सपनों के बदले प्रतिदान चाहा था, मैं तो सिर्फ उस राजनीतिक बेवफाई की बात कर रहा हूँ। जो वहाँ की फितरत है और जहाँ शानदार लोग गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं। लेकिन इस सारी दुनिया और कृपणताओं के बावजूद हीरालाल जी ने इस विपन्न प्रांत और गरीब देश के अच्छे दिनों की आशा और यह विश्वास नहीं छोड़ा कि अंतिम जीत मानव-मैत्री, समता और समाजवाद की ही होगी।

अंतिम दिनों में यानी अस्सी के पार भी वे अपने अठारह वर्ष की उमर वाले संकल्प को पूरा करने के उत्साह से विरत नहीं हुए। राजनीति के प्रपंच से अलग हो गये लेकिन जिंदगी के मूल्यों की लड़ाई से वे एक इंच भी पीछे नहीं हटे। अब वे प्रांत और देश की प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाओं में गैर-बराबरी, कट्टरतावाद और हिंसा के विरुद्ध बोलने-लिखने लगे। उनका लिखना उनके साधु मन के अनुसार ही पारदर्शी, सरल तो था ही, अस्पष्टताओं से भी बचता-बचता रहा। एक सुपठित समाजशास्त्री की तरह वे इक्कीसवीं सदी के लिए भविष्यवाणियाँ करते रहे।

(यह स्मरण-लेख सामयिक वार्ता के अप्रैल 2005 के अंक से लिया गया है )

Leave a Comment