अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश चुनाव ठीक पहले सरकारी कर्मचारियों को खुश करने के लिए पुरानी पेंशन स्कीम लागू करने का वादा किया है, फिर भी कर्मचारियों और कर्मचारी संगठनों को अभी पूरा भरोसा नहीं हो पा रहा है।
बीते कई सालों से राज्य और केंद्र के सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन स्कीम को बहाल किए जाने के लिए लगातार आंदोलन करते रहे हैं और सभी सार्वजनिक संस्थानों का ‘सेल’ लगाने से पहले ये बहुत गर्म मुद्दा बना हुआ था।
असल में कर्मचारियों को पुरानी पेंशन के रूप में सेवानिवृत्ति के समय प्राप्त वेतन का 50 प्रतिशत सरकार द्वारा मिलता था। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट तक ने 17 दिसम्बर 1982 के अपने निर्णय में कहा था कि यह कोई भीख या सरकारी कृपा नहीं है बल्कि कर्मचारी का लम्बित वेतन है जो उसकी जीवन व सामाजिक सुरक्षा के लिए जरूरी है।
पुरानी पेंशन व्यवस्था में कर्मचारी को कोई अंशदान नहीं देना पड़ता था। यह सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह अपने कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के उपरांत पेंशन का भुगतान करे।
यह पेंशन व्यवस्था अटल बिहारी वाजपेई की एनडीए सरकार के समय समाप्त कर राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था (एनपीएस) 1 जनवरी 2004 के बाद नियुक्त कर्मचारियों के लिए लायी गई।
इसे उस समय उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार ने लागू किया, जबकि त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने इसे लागू नहीं किया था। इस व्यवस्था के तहत कर्मचारियों के वेतन से 10 प्रतिशत अंशदान काटने और सरकार की ओर से 14 प्रतिशत अंशदान देने का प्रावधान किया गया था।
साथ ही यह भी तय किया गया था कि यह पैसा शेयर बाजार में लगाया जायेगा और इस योजना के तहत आने वाले कर्मचारी को सेवानिवृत्ति के समय कुल जमा धन की 60 प्रतिशत धनराशि प्राप्त होगी और 40 प्रतिशत धनराशि से पेंशन दी जाएगी। इस पेंशन योजना का कर्मचारी शुरू से ही विरोध कर रहे थे।
एक तो इस पैसे को शेयर बाजार में लगाने से कर्मचारियों का भविष्य असुरक्षित हो गया और दूसरा सरकार ने अपने को पेंशन देने की जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया था।
बावजूद इसके बाद में बनी मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने पेंशन निधि विनियामक और विकास प्राधिकरण अधिनियम 2013 (पीएफआरडीए) द्वारा इसे कानूनी जामा दे दिया और 1 फरवरी 2014 से इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया। इस काले कानून को लेकर वाम दलों को छोड़कर हर दल का समर्थन था।
पीएफआरडीए कानून जो एनपीएस का संचालन करता है, इसके अनुसार जो पैसा कर्मचारी के वेतन से कट रहा है और जो सरकारी अंश एनपीएस के खाते में दिया जा रहा है उसे शेयर बाजार में लगाया जा सकता है। दरअसल एनपीएस के माध्यम से जनता और कर्मचारियों का धन बड़े पूंजी घरानों के हवाले किए जाने का ये खुला रास्ता था। सरकार द्वारा नियुक्त फण्ड मैनेजर खुद घाटे में चल रहे हैं। ऐसे में वो रिर्टन कहां से दिला पाएंगे, इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
ऐसे तो नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों के बाद से ही मजदूरों और कर्मचारियों पर हमले लगातार बढ़े हैं। एनपीएस भी इन्हीं नीतियों की देन है। इन नीतियों में मजदूरों और कर्मचारियों के अधिकारों में कटौती हुई, निजीकरण कर बड़े पैमाने पर छंटनी की गयी, यहां तक कि काम के घंटे 8 से 12 करने का प्रस्ताव मोदी सरकार द्वारा लाए चार लेबर कोड में है।
इन नीतियों के प्रति सभी पूंजीवादी दलों की सहमति रही है और अपने अपने राज्यों में जहां इनकी सरकारें रही हैं वहां इन नीतियों को इन्होंने लागू किया है। इसीलिए इन नीतियों के कारण हो रहे हमलों पर कोई प्रतिवाद का स्वर भी इन पूंजीवादी दलों की तरफ से सुनाई नहीं देता है।
बहरहाल उत्तर प्रदेश चुनाव में अखिलेश यादव ने पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने की बात उठाई है। लेकिन जानकारों का कहना है कि इसके लिए फण्ड कहां से आयेगा इस पर अखिलेश ने कुछ नहीं बोला है। दरअसल जो गलतियां हुई हैं सपा को उसे जनता के सामने स्वीकार करना चाहिए।
अखिलेश यादव को बताना चाहिए कि एनपीएस लागू करने के केन्द्र में बने पीएफआरडीए कानून पर उनका क्या रुख़ है। इसी प्रकार रोजगार देने, पेट्रोल डीजल पर वैट घटाने और महंगाई पर उनकी क्या नीति है। नहीं तो यह घोषणाएं भी चुनाव के समय में की गई आम घोषणाओं की तरह ही रह जायेगी जिन्हें चुनाव के बाद भुला दिया जाता है।
– दिनकर कपूर
(workers unity.com से साभार। लेखक ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं)