कम्‍युनिस्‍ट सुभाष बोस को गद्दार परंतु सोशलिस्ट देशभक्त मानते थे — प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन

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सबसे बायें सुभाष चन्द्र बोस, बीच में जयप्रकाश नारायण, दायें बी.टी.रणदिवे

(पाँचवीं किस्त)

क तरफ कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी जहाँ आज़ादी के संघर्ष में गांधी जी की अनिवार्यता और उनके कार्यक्रमों की समर्थक थी वहीं दूसरी ओर सुभाष बाबू द्वारा आज़ाद हिंद फौज के माध्‍यम से लड़े जा रहे संघर्ष में उनको एक महान देशभक्‍त मानती थी। सुभाष बाबू को कम्‍यूनिस्‍ट देशद्रोही, जापानियों का पिट्ठू कहकर लगातार अपमानित करने का प्रयास कर रहे थे।

कम्‍यूनिस्‍ट, सुभाष को क्विजलिंग कहकर निंदा करते थे (क्विजलिंग अथवा पंचमांगी शब्‍द का इस्‍तेमाल दुश्‍मन के दलाल के रूप में किया जाता है, क्‍योंकि नार्वे का क्विजलिंग नाजियों के साथ हो लिया था, इस शब्‍द का अर्थ देशद्रोही किया जाता था, कम्‍यूनिस्‍ट  नेताजी सुभाष बोस को हमेशा क्विजलिंग कहते थे)।
कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी के महामंत्री जयप्रकाश नारायण ने जेल से 1942 में निकल भागने के बाद आज़ादी के सिपाहियों के नाम दो पत्र लिखे, अपने पहले ख़त में जयप्रकाश जी ने सुभाष बाबू के बारे में लिखा :

“आपको तो शायद यह मालूम ही होगा कि श्री सुभाषचंद्र बोस ने शोनान (सिंगापुर) में एक स्‍थायी भारतीय सरकार की स्‍थापना की है जिसे जापानी सरकार ने मान लिया है। उन्‍होंने एक भारतीय राष्‍ट्रीय सेना का भी संगठन किया है जो तेजी से विस्‍तार कर रही है। ये घटनाएँ  हमारे लिए कुछ महत्त्व रखती हैं। मैं यहाँ पर आपको यह भी सूचित कर दूँ कि सुभाष सरकार ने जो पहला काम किया है वह है हमारे लिए इतना चावल भेज देने का ज़िम्‍मा लेना जितना कि बंगाल के भूखों मरते हुए लोगों को खिलाने के लिए ज़रूरी हो।

क्विजलिंग करार देकर सुभाष को गाली देना आसान है। जो खुद ही ब्रिटेन के क्विजलिंग हैं वे बड़े इतमीनान के साथ आज उन्‍हें गालियाँ दे रहे हैं। लेकिन राष्‍ट्रीय भारत तो उन्‍हें एक उत्‍कट देशभक्‍त तथा एक ऐसे व्‍यक्ति के रूप में जानता है जो देश की आज़ादी की लड़ाई के मैदान में सदा आगे रहा है। यह सच है कि जो भी धन या सामान उनके पास है वह सब उन्‍हें धुरी राष्‍ट्रों से मिला है। लेकिन वे लोग जो उनकी सरकार या राष्‍ट्रीय सेना में हैं सभी ऐसे भारतीय हैं जिन्‍हें अंग्रेज़ी  राज से नफरत है और जिनमें अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराने की इच्‍छा जल रही है। इसके अलावा हमें यह भी ख्‍याल रहे कि उन सभी भगोड़ी यूरोपियन सरकारों का सारा साजो-सामान जो आज मित्र राष्‍ट्रों की छत्रछाया में चल रहा है, उन्‍हें इन्‍हीं राष्‍ट्रों से मिला है। फिर कोई यह भी तो नहीं कह सकता कि आज की इस विश्‍वव्‍यापी लड़ाई का कौन-सा दाँव जाने किस शक्तिशाली राष्‍ट्र को अपनी गरज के चलते एक छोटे और अशक्‍त देश के आगे दबने को न मजबूर करे। जापानियों द्वारा बर्मा की आज़ादी की घोषणा का काफी प्रचार है और यहाँ तक खबर है कि इनसे सोवियत सरकार को इतनी दिलचस्‍पी हुई है कि उसने तो सरकार को उसकी इस उदारता के लिए बधाई तक दे डाली है! बात चाहे जो हो लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं मालूम पड़ता कि बर्मा वालों को आज एक फासिस्‍ट सरकार की छत्रछाया में उससे कहीं अधिक आज़ादी प्राप्‍त है जो उन्‍हें ‘ब्रिटिश-जनतंत्र’ के अधीन थी। अब हम श्री सुभाष बोस की बात को लें। ज़ाहिर है कि उन्‍होंने राजनीति के उस पुराने सिद्धांत के अनुसार जो मैकियावेली तथा कौटिल्‍य से भी पुराना है, अपने देश के दुश्‍मनों से मदद लेना गवारा किया है। इस तरह एक तीसरे पक्ष से मदद लेकर वे अंत में ठगे भी जा सकते हैं, लेकिन इस बात से उनकी नेकनीयती तथा बुद्धिमानी में कोई फर्क नहीं आता। अपने देश की आज़ादी हासिल करने में वे कितनी मदद पहुँचा सकेंगे, यह तो ऐसी घटनाओं पर निर्भर है जिन पर उनका या किसी भी देश के किसी राजनीतिज्ञ का अधिक वश नहीं।”

1942 के अगस्‍त क्रांति आंदोलन में अरुणा आसफ अली का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 1942 के आंदोलन में वे सोशलिस्‍ट पार्टी में सक्रिय रहीं। अगस्‍त क्रांति में कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी की भूमिका पर अपने भाषण में सुभाष बाबू पर कम्‍यूनिस्‍टों द्वारा जो हमले हो रहे थे, उसका जवाब देते हुए उन्‍होंने कहा :

“जब देश जीवन और मृत्‍यु के महान संघर्ष में जल रहा था तो कम्‍यूनिस्‍ट जो अपने को क्रांतिकारी कहते हैं, अंग्रेज़ों  का साथ दे रहे थे और उनकी साम्राज्‍यवादी जकड़न को मज़बूत कर रहे थे। उन्‍होंने जनता के युद्ध का गलत और अर्थहीन नारा उछाल कर देश को गुमराह करने की कोशिश की। …… लेकिन मुझे प्रसन्‍नता है कि देशवासियों ने अब उनके असली चरित्र को जान लिया है। जनता के युद्ध के अपने राष्‍ट्र विरोधी सिद्धांत को समझाने की उनकी सारी कोशिशें नाकामयाब हुई हैं और उन्‍हें नाकामयाब होना ही था।”

“हमारे तथाकथित देश-भक्‍तों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जापानियों की कठपुतली कहने की गुस्‍ताखी की और बेशर्मी से उन्‍हें टोजो का हरावल दस्‍ता कहकर उनकी निंदा की। कोई ऐसा अपमानसूचक विशेषण नहीं था जिसका उन्‍होंने आज़ाद हिंद फौज के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया जिसने भारत की सीमाओं पर युद्ध करते हुए अंग्रेज़ों को बाहर निकालने की कोशिश की। आज़ाद हिंद फौज के बहादुर जवानों ने इसलिए कष्‍ट सहे ताकि उनके कष्‍टों से भारत की आज़ादी का शिशु जन्‍म ले। कौन नहीं जानता कि आज़ाद हिंद फौज में आत्‍मबलिदानी दस्‍ते थे जिनके सदस्‍य शत्रु के टैंकों को उड़ाने के लिए डायनामाइट लेकर चलते थे। वे मौत को अपनी कमर से बाँधे रहते थे। उन्‍होंने भारत माता की आन की रक्षा के लिए मृत्‍यु की घड़ी निर्धारित करने में भगवान की इच्‍छा को भी चुनौती दी।”

“यह शर्म की बात है कि भारत माता के ऐसे निडर सपूतों की कम्‍युनिस्‍टों ने देशद्रोही कह कर निंदा की। देशद्रोही आज़ाद हिंद फौज के सिपाही नहीं, वे कम्‍युनिस्‍ट थे जिन्‍होंने उनकी निंदा की और भाड़े के टट्टू तथा भीख माँगने वाले वे अफ़सर और सिपाही देशद्रोही थे जिन्‍होंने आज़ाद हिंद फौज का भारत की पवित्र भूमि पर कदम रखने पर विरोध किया।

आज़ाद हिंद फौज के सिपाही बहुमूल्‍य रत्‍न थे जो भारत माता के गले का हार बनने के योग्‍य थे और वे सब हिंदुस्‍तानी जिन्‍होंने उनका आगे या पीछे के मोर्चे पर विरोध किया, पत्‍थर हैं जिन्‍हें कचरे के डिब्‍बे में फेंका जाना चाहिए।”

( जारी )

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