— नन्दकिशोर आचार्य —
मैं अकेलापन चुनता नहीं, स्वीकार करता हूँ – महात्मा गाँधी के जीवन के अन्तिम दिनों के बारे में जब भी सोचता हूँ तो अज्ञेय की यह टीप स्मरण हो आती है। जब से यह स्पष्ट हो गया था कि आजादी मिलना तय है, लगभग तभी से कांग्रेस का तत्कालीन स्थापित नेतृत्व महात्मा गाँधी की अवहेलना करने लगा था। इस अवहेलना का एहसास स्वयं गाँधीजी को भी होने लगा था और इसी वजह से अकेले पड़ जाने के अवसाद का एहसास भी। गाँधी इस अकेले छोड़ दिए जाने को एक महानायक की गरिमा के साथ स्वीकार कर रहे थे– इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि खुद के अकेले होते चले जाने के बावजूद महान संकट की उन घड़ियों में उन्होंने अपने उन पुराने साथियों को परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए अकेले नहीं छोड़ा जो उन्हें लगभग छोड़ चुके थे।
मुझे लगता है कि यों तो यह एहसास गाँधीजी को भारत छोड़ो आन्दोलन की तैयारी के शुरुआती दिनों से ही होने लगा होगा। अक्सर इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि कांग्रेस नेतृत्व ने भारत छोड़ो आन्दोलन के गाँधीजी के प्रारंभिक प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। यह प्रस्ताव मीराबेन के माध्यम से अप्रैल, बयालीस में इलाहाबाद कांग्रेस में भेजा गया था और पंडित नेहरू आदि नेताओं का मूड भाँपते हुए गाँधीजी ने पंडित नेहरू को अपने पत्र में स्पष्ट लिख दिया था कि उन्हें यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं होने का अर्थ यह है कि अब उन दोनों के लिए अपने अलग रास्ते चुनने का समय आ गया है। जुलाई, बयालीस में जब गाँधीजी के प्रस्ताव पर कांग्रेस कार्यसमिति में दुबारा विचार किया गया तब भी मौलाना आजाद और पंडित नेहरू जैसे नेता अंग्रेजों के तत्काल भारत छोड़ जाने के प्रस्ताव से सहमत नहीं थे।
लेकिन गाँधीजी का स्पष्ट कहना था कि यदि वे आन्दोलन के लिए सहमत नहीं हैं तो मौलाना को कांग्रेस की अध्यक्षता तथा पंडित नेहरू को कार्यसमिति से अलग हो जाना चाहिए। सम्भवतः, इसी दबाव के कारण भारत छोड़ो का प्रस्ताव कार्यसमिति में पारित हो सका। यद्यपि राजगोपालाचारी जैसे नेता तब भी प्रस्ताव के विरोधी रहे और उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भाग लेना स्वीकार नहीं किया। शायद यह भी एक वजह थी जिसके चलते राजाजी को भारत गणतन्त्र का प्रथम राष्ट्रपति बनाये जाने का विरोध कई कांग्रेसजनों द्वारा किया गया।
लेकिन ऐसा लगता है कि जो विश्वास इस दौर में गाँधीजी में दिखाई पड़ता है, वह बाद में धीरे-धीरे कम होता चला जाता है और कांग्रेस का नेतृत्व युद्धोत्तर काल में गाँधीजी के आग्रहों की अनदेखी करने लग जाता है- बल्कि गाँधीजी भी जैसे धीरे-धीरे इस अनदेखी को स्वीकार करने लग जाते हैं। इसका पहला प्रमाण सितम्बर, छियालीस में मिलता है, जब सरदार पटेल और पंडित नेहरू जैसे गाँधीजी के अनुयायी जेपी या आचार्य नरेन्द्रदेव को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के गाँधीजी के प्रस्ताव को पूरी तरह खारिज कर देते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोग भारत-विभाजन के घोर विरोधी थे और यदि संकट की उन घड़ियों में कांग्रेस का नेतृत्व जेपी या आचार्य नरेन्द्रदेव के पास होता तो विभाजन के विरोध में गाँधीजी के विचारों को बल मिल सकता था। लेकिन ऐसा लगता है कि- चाहे अनिच्छापूर्वक ही सही– कांग्रेस का स्थापित नेतृत्व अब महात्मा गाँधी के विचारों से अपने को असहमत पाने लगा था और उन्हें अकेले छोड़ देने में उसे कोई उज्र नहीं था।
इसका और ज्वलन्त प्रमाण मार्च, सैंतालीस में मिल जाता है, जब गाँधीजी को बिहार में साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए अपनी सक्रियता के बीच अचानक एक दिन अखबारों से पता चलता है कि कांग्रेस ने पंजाब के विभाजन का प्रस्ताव किया है। इसका सीधा तात्पर्य यह था कि कांग्रेस भारत-विभाजन के प्रस्ताव से सहमत हो रही है। यह त्रासद आश्चर्य है कि इतना बड़ा प्रस्ताव करने से पहले गाँधीजी से कोई सलाह-मशविरा तो दूर, उन्हें सूचना तक नहीं दी गयी थी। प्यारेलाल ने पूर्णाहुति में लिखा है कि उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानो उनके पैरों- तले अचानक जमीन फट गयी हो। उन्हें पत्र लिखकर पंडित नेहरू और सरदार पटेल से पूछना पड़ा कि कांग्रेस के इस प्रस्ताव की पृष्ठभूमि और तात्पर्य क्या है। सरदार पटेल का उत्तर गाँधीजी को अकेले छोड़ देने की जैसे घोषणा ही कर देता है जब वह लिखते हैं कि पंजाब संबंधी प्रस्ताव आपको समझाना कठिन है। वह अत्यन्त गहरे विचार-विमर्श के बाद पास किया गया था। जल्दबाजी में अथवा पूरे विचार के बिना कुछ भी नहीं किया गया है। हमें तो अखबारों से ही मालूम हुआ कि आपने उसके विरूद्ध अपने विचार प्रकट किये हैं। पर आप को जो ठीक लगे उसे कहने का अधिकार तो आप को ही है।
पंडित नेहरू ने कुछ भिन्न तरीके से ऐसी ही बात कही। उन्होंने लिखा कि पंजाब के विभाजन के बारे में हमारे प्रस्ताव की बात यह है कि वह हमारे पिछले निर्णयों का स्वाभाविक परिणाम है। पहले वे नकारात्मक हुआ करते थे, मगर अब ठोस निर्णय का समय आ गया है। और हमारे विचार प्रकट करने वाले प्रस्तावों को केवल पास कर देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मेरा पक्का विश्वास है, और कार्यसमिति के अधिकांश सदस्यों का भी है, कि हमें तुरंत इस विभाजन पर जोर देना चाहिए, ताकि वास्तविकता सामने आ जाय। स्पष्ट है कि अब कांग्रेस का स्थापित नेतृत्व महात्मा गाँधी के दिशा-निर्देश में चलना तो क्या, उनसे सलाह करने की जरूरत भी नहीं समझता था। हाँ, जरूरत पड़ने पर उनका पहले जैसा ही समर्थन वह अवश्य चाहता रहता था।
क्या कोई अनुमान लगा सकता है कि इस दौर में एक व्यक्ति के रूप में गाँधीजी को कैसा लग रहा होगा जब उन्हें यह महसूस हो रहा होगा कि उनके विश्वस्त साथी अब उनके विचारों की तो परवाह नहीं ही करते– बल्कि उनके व्यक्तित्व के प्रति भी उनमें औपचारिक आदर ही बचा है।
विभाजन को लेकर गाँधीजी का विरोध बिल्कुल स्पष्ट था– पंडित नेहरू और सरदार पटेल चाहते थे कि अपनी असहमति के बावजूद गाँधीजी कार्यसमिति और महासमिति में उनका समर्थन करें। प्यारेलाल महात्मा गाँधी के शब्दों को हमारे सम्मुख रख देते हैं : आज मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया हूँ। सरदार और जवाहरलाल तक का सोचना है कि परिस्थिति की मेरी समझ गलत है और विभाजन होने पर ही शान्ति स्थापित हो सकेगी।….हो सकता है वे सब सही हों और मैं अकेला ही अँधेरे में भटक रहा हूँ….लेकिन आज हर कोई भारत की आजादी के लिए अधीर है। इसलिए और कोई चारा नहीं है। फिर भी गाँधीजी का कहना था वह विभाजन का कतई समर्थन नहीं कर सकते।
गाँधीजी की उद्विग्नता का कोई पार नहीं था क्योंकि एक ओर वह विभाजन से सहमत नहीं हो पा रहे थे तो दूसरी ओर इस नाजुक मौके पर वह कांग्रेस में भी कोई फूट नहीं चाहते थे, क्योंकि इसका सीधा लाभ ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग को मिलता।
लेकिन उनके प्रति सरदार पटेल जैसे नेताओं का तरीका कैसा हो गया था, इसकी एक झलक प्रसिद्ध गाँधीवादी आरआर दिवाकर के कथन में मिल सकती है। दिवाकर के अनुसार सरदार पटेल ने उनके पास जाकर कहा कि या तो आप नेतृत्व करें या हमें करने दें। यदि आपको यही करना है तो हमारे इस्तीफे ले लीजिए, फिर जैसा चाहें कीजिए।
डॉ लोहिया ने भी लिखा है कि सारी कार्यसमिति विभाजन के पक्ष में थी। केवल जेपी, बादशाह ख़ान और स्वयं लोहिया ने ही विभाजन के प्रस्ताव का थोड़ा-बहुत विरोध किया। कांग्रेस कार्यसमिति की जिस बैठक में विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया, उसका वर्णन करते हुए बादशाह ख़ान ने एक साक्षात्कार में बताया कि गाँधी जब भी विभाजन-योजना का विरोध करने के लिए प्रस्तुत होने लगते तो पटेल उनसे झगड़ा करने लगते, जिसका मैं स्वयं साक्षी हूँ। बेचारे गाँधी एक शब्द भी नहीं बोल सके। उनकी आवाज दबा दी गयी। लोहिया के अनुसार, जब भी उन्हें लगता कि गाँधीजी उन्हें रोकना चाहते हैं, वे उग्रतापूर्वक चिल्लाने लगते। लोहिया ने इसके वर्णन में बार्कड वॉयलेंटली और ऑफेंसिवली एग्रेसिव जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है।
अगर इन वर्णनों में कुछ अतिरंजना भी हो– यद्यपि बादशाह ख़ान से तो अतिरंजना की भी अपेक्षा नहीं कर सकते, लोहिया की भाषा में कुछ क्रोध हो भी सकता है– तो भी यह अनुमान तो हो ही जाता है कि अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने गाँधीजी से अपने को अलग कर लिया था। उस गाँधीजी से जिसे वे सब बापू कहते ही नहीं, मानते भी रहे थे। ऐसी स्थिति में क्या यह संभव था कि महात्मा गाँधी विभाजन के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा कर पाते? कांग्रेस के नेता अब उनके साथ नहीं रह गये थे। मुस्लिम लीग और आम्बेडकर (जो पाकिस्तान के समर्थक थे) उनके साथ कभी थे ही नहीं। समाजवादियों को उनकी अहिंसा में पूरा विश्वास नहीं था। क्या बिना किसी बड़े संगठन के आन्दोलन हो सकता था?
लेकिन अकेलापन शायद गाँधीजी की स्वाभाविक नियति है। सत्य की राह पर चलनेवाले अकेले हो जाने को मानो अभिशप्त होते हैं। यह कितना विडम्बनापूर्ण है कि हिन्दुत्ववादी उनसे इसलिए नाराज थे कि वे दलितों और मुसलमानों की उन्नति और सुरक्षा की बात करते थे। मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग उनसे नाराज था कि वे पाकिस्तान की अवधारणा के विरोधी थे। और अब दलित उनसे इसलिए नाराज हैं कि उनकी राय में वे सवर्णवादी हैं। धर्मनिरपेक्षतावादी नाराज हैं क्योंकि वह धर्म की भाषा में बात करते हैं। धर्मवादी नाराज हैं क्यों कि वह राज्य को धर्मनिरपेक्ष रखना चाहते हैं।
दरअस्ल, गाँधी तब भी अकेले थे और आज भी अकेले हैं। ऐसा व्यक्ति सदैव अकेला ही रहेगा जिसे दूसरे केवल अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकें। वह जिस हद तक हमारे लिए सुविधाजनक है, उस हद तक आदरणीय है– लेकिन जब उसके विचार या व्यक्तित्व हमारे लिए असुविधाजनक होने लगे तब उसे अकेला छोड़ देने में ही सुरक्षा है– यदि मिटाया न जा सके। अकेला छोड़ देना भी प्रकारान्तर से मिटाना ही है। प्रसाद ने कहीं लिखा भी है कि उपेक्षा घोर शत्रुता है।