22 अप्रैल। यह बिहार के आम गाँवों की तरह एक बस्ती है, लेकिन एक चीज जो आपको चौंकाएगी वह है, अक्षर से प्रेम कराती पाठशाला। यहाँ की महिलाएँ पुरुषों की तरह खेतों में काम करती हैं। साथ ही गाँव की अनपढ़ जनता के बीच शिक्षा की दीपक जला रही हैं। आगे चलकर यह ज्ञान समाज में शिक्षा का उजियारा फैलाकर सबको रोशन करेगा। हम बात कर रहे हैं पूर्णिया के बेलौरी से सटी एक बस्ती की, यहाँ पढ़ाने वाली महिलाओं को न वेतन की चिंता है और न ही पेंशन का लालच। वे अपने कर्म से एक बड़ी लकीर खींच रही हैं। महिलाओं को अक्षरदान कर इतिहास रच रही हैं।
जुनून वाली मजदूर शिक्षिका छठिया देवी सब कुछ जानती हैं। उन्हें पता है कि शिक्षा का उजियारा फैलाये बिना समाज अंधेरी खोह में भटकता रहेगा। इसलिए वे अपना काम करने के बाद शिक्षा दान करती हैं। महादलित समाज से आनेवाली छठिया देवी को यदि पढ़ाने का जुनून है, तो इस समाज की महिलाओं को पढ़ने का जुनून है। वे कोई सरकारी शिक्षक नहीं हैं। उन्हें न वेतन मिलता है और न ही पेंशन का कोई लालच है। बस वे सब मिलकर अपने समाज को निरक्षरता के कलंक से मुक्त करना चाहती हैं।
वे चाहती हैं कि उनके बच्चे पढ़ें व अफसर बनें और इसलिए पहले वे खुद पढ़ रही हैं, ताकि उनके बच्चों में भी पढ़ाई का जज्बा पैदा हो। वे चाहती हैं कि उनका समाज शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़े। इसके लिए एक दृढ़ संकल्प के साथ इन महिलाओं ने अभियान शुरू कर दिया है। इस अभियान में फिलहाल करीब 60 महिलाएँ पढ़ाई कर रही हैं।
शहर के समीप राष्ट्रीय राजमार्ग-31 से सटे बेलौरी से सटी एक बस्ती है, जहाँ महादलित समाज का बड़ा बसेरा है। इस बस्ती में शिक्षा का अलख जगाने की नींव शाम की पाठशाला चलाने वाले ई. शशिरंजन ने करीब छह साल पहले रखी थी। हालांकि शुरुआती दौर में किसी को यह अच्छा नहीं लगा था, पर धीरे-धीरे यहाँ की महिलाएँ जागरूक होती चली गयीं। इसी का नतीजा है कि छह साल पहले छात्रा बनकर ककहरा सीखनेवाली छठिया देवी अपने ही समाज की महिलाओं के बीच शिक्षिका बन गयी हैं।
पढ़ाई की कमान महिलाओं ने खुद थाम ली और सबको समझा-बुझा कर अभियान शुरू कर दिया। यहाँ की तमाम महिलाएँ पुरुषों की तरह खेतों में काम करती हैं। अब आलम यह है कि सुबह काम पर जाने से पहले और शाम काम से आने के बाद छठिया देवी शिक्षक और अन्य महिलाएँ छात्रा बन जाती हैं। करीब दो घंटे तक लगातार पढ़ाई होती है जो अब इनकी दिनचर्या में शामिल है। इस दौरान वे अपने बच्चों को भी साथ बैठाती हैं।
पढ़ने व पढ़ाने का जुनून इस कदर है कि इस महादलित टोला में न कोई स्कूल है और न ही कोई अन्य संसाधन, फिर भी वे कुर्सी-बेंच के अभाव में नीचे खुले आसमान में जमीन पर बैठ कर पढ़ाई कर रही हैं। इन महिलाओं में यह ललक है कि ‘हम पढ़ेंगे, तो हमारे बच्चे भी पढ़ेंगे।’ यही वजह है कि इस अभियान से छठिया देवी के अलावा ललिता देवी, पूनम देवी, दुलारी देवी, शनिचरी देवी, मानो देवीलखिया देवी भी जुड़ गयी हैं जो अलग-अलग केंद्रों पर पढ़ाती हैं।
छठिया देवी कहती हैं कि आज भी हमारी जाति का विकास नहीं हुआ और इसके लिए अशिक्षा मुख्य कारण रहा है। उनका कहना है कि इस समाज के बच्चे जब शिक्षा प्राप्त करेंगे तब कहीं जाकर उनकी मेहनत सार्थक होगी और इसीलिए वे मेहनत कर रही हैं। यहाँ पढ़ाई का माहौल बनानेवाले शाम की पाठशाला के संस्थापक शशिरंजन कुमार कहते हैं कि इन महिलाओं ने बहुत जल्द शिक्षा की अहमियत समझ ली और इसी का नतीजा है, कि खुद कमान थामकर वे अभियान चला रही हैं। अब वे सिर्फ समय-समय पर मॉनिटरिंग कर रहे हैं।
(‘प्रभात खबर’ से साभार)