स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : चौथी किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

न्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेज अफसरों द्वारा उत्तरी भारत का जो आर्थिक सर्वेक्षण किया गया था उसका जिक्र रमेश दत्त ने अपनी किताब में किया है। इस सर्वेक्षण के दौरान विभिन्न जेलों में यह पाया गया था कि महिलाएँ सर्वत्र सूत कातने का काम करती थीं। उनके द्वारा तैयार सूत से बुनकर कपड़ा बनाते थे। इन जिलों के नाम गिनाए जा सकते हैं। मसलन डॉ. बुकानन नामक एक अर्थशास्त्री ने 1807 में बंगाल और उत्तर भारत का सांख्यिकी दृष्टि से एक सर्वेक्षण किया था। मांटगुमरी मार्टिन (जिसका जिक्र मैंने पहले किया है) ने बुकानन द्वारा एकत्र आँकड़ों को प्रकाशित किया है। उसकी रपट से एक उद्धरण देखिए : सूत कातनेवालों की संख्या नगण्य नहीं थी, न ही करघा चलानेवालों की। इस काम से काफी मुनाफा होता था।

उसी तरह शाहबाद जिले के बारे में भी डॉ. बुकानन ने लिखा है कि सूत कताई और कपड़ा बुनाई इस इलाके के बड़े राष्ट्रीय उद्योग हैं। डेढ़ लाख से ज्यादा औरतें सूत कातने का काम करती हैं और औसतन 12 लाख 50 हजार रुपए का सूत एक साल में तैयार कर लेती हैं। इसमें से कपास की कीमत यदि घटा दी जाए तो हरेक महिला एक साल में डेढ़ रुपया, यानी तीन शिलिंग कमा लेती है। यह रकम ज्यादा नहीं है, लेकिन उनके परिवार की आमदनी में इन महिलाओं द्वारा घर बैठे-बैठे किये जा सकनेवाले काम की वजह से इजाफा हुआ है। उन दिनों सस्तापन था, रुपए का असली मूल्य बहुत ज्यादा था।

जहाँ तक बुनकरों का सवाल है, वे ज्यादातर सूती कपड़ा बनाने का काम करते थे, हालांकि कुछ रेशम के कारीगर भी थे। 7025 घरों के ये बुनकर लोग 7950 करघे पर काम करते थे। एक साल में एक करघे के पीछे पौने 21 रुपए, यानी 41 शिलिंग 6 पैसे कमाई हुई और एक करघे पर काम करने के लिए एक मर्द, उसकी बीवी और उनके साथ एक उनका लड़का या लड़की का श्रम काम आया। लेकिन चूंकि कोई भी परिवार 48 रुपए या 4 पौण्ड 16 शिलिंग प्रतिवर्ष से कम पर जिंदा नहीं रह सकता था इसलिए बुकानन का यह कहना है कि उपरोक्त जो आय दिखाई गयी है, वास्तविक आय उससे कुछ अधिक ही थी।

दिनाजपुर जिले के सर्वेक्षण के बारे में भी बुकानन लिखता है कि इस जिले में भी कपड़े का उत्पादन होता था जिसका सालाना मूल्य 16 लाख 74 हजार रुपए था।

बिहार के पूर्णिया जिले के बारे में भी वह लिखता है कि अपनी फुर्सत के समय यहाँ की महिलाएँ सूत कताई का काम करती थीं। सूत कताई के काम का प्रसार इतना व्यापक था कि इस काम को किसी भी जाति की महिला अपमानजनक नहीं समझती थी।

इस जिले में शुद्ध रेशम का काम भी 200 करघों पर किया जाता था और 48,600 रुपए का रेशमी कपड़ा बनाया जाता था। कच्चे रेशम की खरीद पर उनके 34,200 रुपए खर्च होते थे। इस प्रकार उनको 14,400 रुपए मुनाफा होता जाता था। इसका मतलब है कि प्रतिवर्ष एक करघे के पीछे 72 रुपए की आय उन्हें हो जाती थी। सूती कपड़ा बुनकरों की संख्या भी इस जिले में बहुत ज्यादा थी। 3500 करघे काम में लाये जाते थे। इनके ऊपर अच्छा काम होता था। इससे 50,6000 रुपए का कपड़ा बनाया जाता था और 1,04,900 रुपए का उन्हें मुनाफा हो जाता था। 10 हजार करघों पर मोटा कपड़ा पैदा किया जाता था जिसका कुल मूल्य 10,9000 रुपए था और उसमें विशुद्ध मुनाफा 3,34000 रुपए था। (हिंदुस्तान का आर्थिक इतिहास, रमेश दत्त : खंड, पृ.161-73)

इसी तरह लोहा बनाने की तकनीक को लें। इंग्लैण्ड में लोहा तैयार करने की प्रक्रिया बहुत पुरानी नहीं है। परन्तु प्राचीन भारत में लोगों को यह तकनीक आती थी, ऐसा विल्सन, बोल आदि अंग्रेजों ने लिखा है। दिल्ली के कुतुबमीनार के पास जो लौह स्तंभ है उसकी तारीफ कई विदेशियों ने की है। उस जमाने में असम में तोपें बनती थीं और भारतीय इस्पात से दमिश्क में कटारें, तलवारें आदि तैयार की जाती थीं। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति से पहले भारतीय इस्पात का प्रयोग कांटा-छुरी आदि कटलरी का सामान बनाने के लिए किया जाता था। महादेव गोविंद रानाडे ने लिखा है कि अंग्रेजी प्रशासन और इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रांति ने भारत के लौह उद्योग को नष्ट कर दिया।

जहाजरानी उद्योग की भी कहानी लगभग ऐसी ही थी। बंगाल और पश्चिम भारत में सूरत में अच्छे जहाज बनते थे जो भारतीय माल लादकर लंदन के बंदरगाह में ले जाते थे। भारतीय बनावट के इन व्यापारिक जहाजों को देखकर इंग्लैण्ड के लोग काफी आश्चर्य व्यक्त करते थे। यह जानकारी हमें उद्योग निगम की 1916-18 की रपट से मिलती है। नेल्सन के नाविक बेड़े में एक भारतीय बनावट का जहाज था, यह भी प्रमाण उपलब्ध है।

इन सब बातों को देखने से धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा था कि अद्भुत कारीगरी और हुनर हमारे पास होने के बावजूद वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों के अभाव में एक दिन अपनी आर्थिक स्वायत्तता भी खो बैठेंगे। राजनीतिक स्वायत्तता हम पहले ही खो चुके थे। हमारी दुर्गति का मूल हमारी बौद्धिक जड़ता में था। जबसे हमारा ह्रास और अवनति शुरू हुई  उस समय पश्चिम यूरोप में एक अनोखी गतिशीलता जन्म ले रही थी। क्रोनोलोजी आफ द मार्डन वर्ल्ड नाम की किताब देखने से यह बात स्पष्ट होती है। इस पुस्तक में 1763 से लेकर 1965 तक विश्व में हुए प्रमुख आविष्कारों का विवरण दिया गया है। किसी भी तरह की कोई टीका-टिप्पणी या विश्लेषण इसमें नहीं है, बल्कि है केवल विवरण। सिर्फ 1763 से 1772 तक के दस वर्षों को ही लीजिए। इन वर्षों में यूरोप में तीव्र रफ्तार से प्रत्येक वर्ष नयी खोज और शोध हो रही थी :

1763 में कोलरायटर ने परागवाहक प्राणियों द्वारा वनस्पति-संसेचन पर प्रयोग आरंभ किए। कृषि छात्र जानते हैं कि इस खोज का कृषि उत्पादन और विकास पर कितना गहरा असर हुआ।

1764 जेम्स हारग्रीहज ने सूत कताई के लिए स्पिनिंग जेनीनामक यंत्र तैयार किया। इससे सूती धागे की उत्पादन क्षमता में काफी इजाफा हुआ। इसी वर्ष फ्रांस में सड़क की तीन-स्तरीय तकनीक की खोज हुई।

1765 में जेम्य वाट ने एक ऐसा कंडेन्सर तैयार किया जिसकी बदौलत कुछ ही वर्षों बाद वह 1774-75 में वाष्पशक्ति चालित इंजन बना सका।

1766 में हेनरी के होडिंश ने सिद्ध किया कि हाइड्रोजन गैस वायु से अधिक हलकी है।

1767 में एक शाही ज्योतिर्विद नेह्रि मस्केलिन ने नौकायन की सहायता के लिए नाटिकल अल्मानेक संपादित किया तथा जोसेफ प्रिस्टले की विद्युत का इतिहास नामक पुस्तक प्रकाशित हुई।

1768 में जेम्स कुक ने समुद्री यात्रा के जरिए पश्चिम आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के समुद्री किनारों की खोज की। पी.एस. पलास रूस होकर चीन की सीमा पर पहुंचा, महज शुक्र के संक्रमण का अवलोकन करने की जिज्ञासा से।

1769 में रिचर्ड आर्कराइट ने सूत कताई के लिए स्पिनिंग मशीन तैयार की। जोसेफ ब्लैक ने कन्डेन्सर और निकोलस क्यूनाट ने वाष्पशक्ति से सड़क पर चलनेवाली गाड़ी बनाई।

1770 में जेम्स रेम्सडन ने लोहा काटकर स्क्रू बनानेवाली खराद मशीन (लेथ) तैयार की।

1771 में जे.ए. डेलक ने ऊँचाई नापने हेतु बैरोमीटर के इस्तेमाल के नियम बनाए। ब्रिटेन में स्मिटोरियन क्लब नामक इंजीनियरों के एक संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका का प्रथम संस्करण भी प्रकाशित हुआ।

1772 में डैनियल रदरफोर्ड ने नाइट्रोजन गैस की खोज की। एल.यूलर ने यंत्र विज्ञान (मेकेनिक्स) प्रकाश विज्ञान (आप्टिक्स) ध्वनिशास्त्र (अकूस्टिक्स) तथा ज्योतिर्विद्या (एस्ट्रानामी) के सिद्धांतों का निरूपण किया। नार्फोक में टामस कुक ने पशु-संवर्द्धन के प्रयोग शुरू किए। जेम्स ब्रूस ने सफेद और नीली नाईल (नील) नदी के संगम की खोज की। ओडर और विस्तूला नदियों को जोड़नेवाली ब्राम्बर्ग नहर का काम भी इसी साल शुरू हुआ।

कहने का मतलब यह है कि पश्चिम यूरोप में इस दशक में विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान की कक्षाएँ कितनी विस्तृत हो रही थीं, यह देखकर अचंभा होना स्वाभाविक है। दूसरे शब्दों में कहें तो पश्चिमी यूरोप के देश और निवासी अपनी मौलिक सूझबूझ और ज्ञान-शक्ति के सहारे विश्व पर अपनी भौतिक और मानसिक प्रभुता स्थापित करने की ओर अग्रसर हो रहे थे।

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