स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : पाँचवीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

लेकिन उन दिनों हमारे देश में क्या हो रहा था? यह विडंबना की ही बात है कि उन दिनों हमारे देश में केवल पुराने धर्मग्रंथों को लेकर शुष्क और निरर्थक वाद-विवाद होता था कि पंचगव्य (पंचामृत) कैसे बनाया जाए? उसमें गोमूत्र ज्यादा मात्रा में हो या गोबर। वह दो दफा पीने से पुण्य मिलेगा, या चार दफा पीने से। यह चर्चा चलती थी उन दिनों हमारे देश में। यह मजाक की बात नहीं है। महामहोपाध्याय काणे आज भी एक महान पंडित माने जाते हैं। उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्र के इतिहास पर एक विख्यात ग्रंथमाला छह खंडों में अंग्रेजी में लिखी है। आज भी विद्वान इस ग्रंथमाला को धर्मशास्त्र का आधिकारिक वर्णन मानते हैं। इसके प्रथम खंड के अंत में उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्र संबंधी साहित्य का मूल्यांकन किया है। इसमें उन्हें भी स्वीकारना पड़ा है कि :

 “धर्मशास्त्र पर लिखनेवाले पंडित धार्मिक व्यवहार के क्षेत्र में फैली अराजकता को व्यवस्थित करने और प्राचीन ऋषियों के आदेशों के अनुसार जनता के प्रत्यक्ष आचार-व्यवहार में मेल बिठाने के नाम पर बाल की खाल निकालते थे। और धार्मिक रीति-रिवाजों तथा मंत्र-तंत्र को मानवीय जीवन का सर्वस्व समझ बैठे-बिठाने के अपराधी थे। वे उत्तरोतर तंग गलियों और भूलभुलैया में भटकते रहे। उन्मुक्त और उल्लसित वातावरण में समाज जीवन को नयी दिशा देने जैसी दूरदृष्टि उनके पास नहीं थी।

(धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम खंड पृ. 980)

और देखिए कि भारत में उन दिनों क्या हो रहा था? उस समय भारत के प्रकाण्ड पंडित और विद्वान जिन ग्रंथों की रचना और जिन विषयों का निरूपण कर रहे थे, उनकी सूचीमात्र से हमारी स्थिति का पता चल जाता है। नागोजी भट्ट नामक विद्वान की विद्वत्ता की सिफारिश स्वयं डॉ. काणे करते हैं। उनका कहना है कि नागोजी भट्ट की विद्वत्ता किसी ज्ञानकोश के समान थी। लेकिन इतने उच्चकोटि के विद्वान क्या करते हैं? वे चर्चा करते हैं अशौच निर्णय की, प्रायश्चित सार-संग्रह की, आचारेन्दुशेखर आदि ग्रंथों में वर्णित विषयों की।  उसी तरह एक विद्वान हैं काशीनाथ पाध्ये। उन्होंने अपने ग्रंथ धर्म सिंधु-सारमें जनता को क्या बताया है? वे बताते हैं कि किस दिन कौन काम वर्जित है, कब किस तरह के प्रायश्चित करने चाहिए, आदि। 

 इससे स्पष्ट होता है कि विश्व के एक हिस्से में जिस समय वैज्ञानिक शोध और आविष्कार के नए प्रफुल्लिंग प्रस्फुटित हो रहे थे, उस समय भारतीय समाज किस मनोवृत्ति का शिकार था। दुर्भाग्य तो इस बात का है कि आज दो सौ से अधिक साल बाद भी जनसाधारण के मानसिक चिंतन में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया है। दो साल पहले पूर्ण सूर्यग्रहण के समय राजधानी दिल्ली में कोई आदमी घर से बाहर नहीं निकला और लाखों लोग कुरुक्षेत्र आदि तीर्थ स्थानों में स्नान की तैयारी कर रहे थे। विज्ञान ने भारतीय जनसाधारण के मन को छुआ तक नहीं है। वही पुरातन विशुद्ध कर्मकाण्ड हमारे ऊपर हावी हैं।

1498 में पुर्तगाली वास्को-द-गामा कालीकट पहुँचा। 1510 में अल्फांसो अल्बुकर्क ने गोवा में पुर्तगाली हुकूमत स्थापित की। उसके बाद पुर्तगाली अरब सागर के दोनों किनारों और हिंद महासागर में अड्डे बनाते हुए सीधे चीन तथा जापान तक पहुँच गए। उनके बाद वलंदी (डच), फ्रांसीसी तथा अंग्रेज आए। हमारे देश और एशिया महाद्वीप के अन्य देशों का यह दुर्भाग्य था कि न हमारे यहाँ, न एशिया में किसी भी राजा या शासक वर्ग के मन में यह बात नहीं आयी कि इसका पता लगाया जाए कि इतनी दूरी से ये लोग क्यों आ रहे हैं? उनके मुल्क कहाँ है? उनके मुल्कों की क्या स्थिति है, क्यों हमारे ऊपर अपना प्रभाव जमाने का प्रयत्न  कर रहे हैं? ये लोग जहाज कैसे बनाते हैं, तोपें कैसे बनाते हैं? इसकी जानकारी करने का विचार पूरी 16वीं, 17वीं, और 18वीं शताब्दी में (यानी तीन सदियों तक) किसी भी हिंदुस्तानी या एशिया के शासक के दिमाग में नहीं आया। इनमें न किसी तरह की जिज्ञासा थी न किसी किस्म का कौतूहल।

हम लोगों की इसी मनोवृत्ति के कारण पश्चिमी साम्राज्यवाद के अभूतपूर्व आक्रमण के सामने हम लोग नहीं टिक पाए तो इसमें अचरज की क्या बात है? हम लोगों में औत्सुक्य नाम  की कोई चीज नहीं थी। जिज्ञासा, ज्ञान-पिपासा, नयी शोध और खोज की हमारी बुद्धि पर पर्दा सा पड़ गया था। विज्ञान में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी और निरर्थक चीजों में हम लोग फँस गए थे। शायद इस बात पर कोई आसानी से विश्वास नहीं करेगा कि भारत की ऐसी हालत पश्चिमी साम्राज्यवादी आक्रमण के पाँच सौ साल पहले ही हो चुकी थी। अल्बेरूनी ने भारत संबंधी अपने ग्रंथ में हिंदुस्तानी आत्मतुष्टि तथा आत्मकेंद्रित मनोवृत्ति पर अच्छा प्रकाश डाला है। आत्मसंतोष के लिए हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय जीवन सिर्फ कर्मकाण्ड मात्र नहीं था, कर्मकाण्ड के परे हमारे आध्यात्मिक आदर्श भी थे। समाज की प्रवृत्ति आध्यात्मिक चिंतन की ओर थी, भौतिक तरक्की की ओर नहीं। कुछ भी हो, समाज में या तो लोग आध्यात्मिक चिंतन में मगन थे या फिर निरर्थक कर्मकाण्ड चर्चा में।

विश्व में फौजी दृष्टि से 16वीं शताब्दी में सबसे शक्तिशाली ताकत थी तुर्की की। तुर्क सेना के सामने कोई टिक नहीं पाता था। यहाँ तक कि तुर्क सेना आस्ट्रिया की राजधानी वियेना तक पहुँच गई थी। वियेना पर वे कब्जा नहीं कर सके यह बात अलग है। उसी समय एक माने में तुर्की की अवनति प्रारंभ हो गयी। 17वीं शताब्दी के आरंभ से दुनिया का इस्लामी समाज ह्रास की ओर चल पड़ा था। हिंदू समाज तो पहले ही अवनति की ओर अभिमुख हो चुका था। यही कारण है कि 18वीं शताब्दी में हिंदुस्तान में जब मुगल साम्राज्य टूटकर बिखरने लगा तो एक अराजकता की सी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। मराठों के राज्य का विस्तार तो अवश्य हुआ, लेकिन वह फल-फूल नहीं सका। साम्राज्य की रचना करने और प्रशासन उत्तम ढंग से चलाने की उनकी क्षमता नहीं थी जैसे कि पूर्वकाल में अशोक, अकबर जैसे सम्राटों में थी। मराठों ने ज्यादातर लूटपाट या चौथ वसूली का काम किया। चौथ वसूली का क्या मतलब हुआ? यही कि प्रजा की जिम्मेदारी नहीं सँभालनी, अच्छे और आदर्श राज्य की स्थापना नहीं करनी, बल्कि उसके स्थान पर स्थानीय सरकारों द्वारा जमा किया कर हड़प लेना, उसमें से चौथ या दसवाँ हिस्सा ले लेना।

नतीजा यह हुआ कि जिनको ऐसा हिस्सा देना पड़ता था वहाँ रैयत की हालत खराब होने लगी और मराठों को अपने प्रदेश के बाहर जनता का सहयोग प्राप्त नहीं हो सका था। वे आम लोगों के कोपभाजन बन गये। साधारण लोग उनसे आतंकित रहने लगे थे। जनता उन्हें अपना मित्र नहीं समझती थी, मुक्तिदाता के रूप में नहीं दिखती थी। इस तरह 18वीं शताब्दी में हिंदुस्तान की दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी थी। ऐसे वक्त अगर कोई भी सशक्त विदेशी शक्ति अनुशासित रूप में इच्छा और संकल्पशक्ति के साथ हिंदुस्तान पर हमला बोल देती तो समाज की इस दुरवस्था में हिंदुस्तान में कोई ऐसी ताकत नहीं थी जो उसका सफलतापूर्वक प्रतिकार कर सकती। इस तथ्य का पता पश्चिम के लोगों को 18वीं शताब्दी के मध्य में चल गया था जिसका उन्होंने बाद में भरपूर फायदा उठाया।

यह तो हुई तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक दशा की बात। हम तत्कालीन हिंदुस्तान का राजनीतिक मानचित्र भी देख लेते हैं। मुगल साम्राज्य उस समय पतनोन्मुख था। दिल्ली से बाहर बादशाह को कोई नहीं पूछता था। अवध और बंगाल के नवाब आजाद हो चुके थे। दक्षिण का सूबेदार नाममात्र का दिल्ली का प्रतिनिधि था। इतना ही नहीं, दिल्ली के आसपास सिक्ख, जाट, रोहिल्ले आदि शक्तियाँ केंद्र सरकार के लिए सिरदर्द बन गयी थीं। कर्नाटक (जिसको वर्तमान में तमिलनाडु कहा जाता है, लेकिन जिसको उस समय कर्नाटक या अर्काट कहते थे) का नवाब भी आजाद हो गया था। पूरे पश्चिम की ओर मध्य भारत में मराठों का राज्य स्थापित हो चुका था। वे गुजरात तथा मालवा पर कब्जा करके और आगे बढ़ रहे थे। कहने का मतलब है कि 18वीं शताब्दी के मध्य में हिंदुस्तान की इस तरह की डांवांडोल और अस्थिर राजनीतिक स्थिति थी।

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